मैंने 12वीं बोर्ड परीक्षा में 96.5 फीसदी नंबर पाए. क्या मैं इस लायक हूं?
हैरानी भी यही है, शायद हमारी शिक्षा प्रणाली में ही कुछ गलत है. क्योंकि छात्र सिर्फ नफरत की वजह से शिक्षा के विषय पर बात नहीं करना चाहते.
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हाल ही में मेरे एक पारिवारिक मित्र के साथ कक्षा 12 की बोर्ड परीक्षा के संबंध में हुई बातचीत मुझे याद है. मेरी तत्काल और पहली प्रतिक्रिया राहत भरी थी. मैंने इसके बारे में एक शब्द भी नहीं कहा कि मैंने तब कैसा परफॉर्म किया था- मुझे लगता है कि इस बात से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था.
और हैरानी भी यही है, शायद हमारी शिक्षा प्रणाली में ही कुछ गलत है. क्योंकि छात्र सिर्फ नफरत की वजह से शिक्षा के विषय पर बात नहीं करना चाहते. बल्कि वे उत्साह के साथ इस बात पर चर्चा करना चाहते हैं कि शिक्षा की तरह कौन से विशेषाधिकार हैं, जिनके वो हकदार हैं.
अफसोस है कि सीबीएसई की बोर्ड परीक्षा देने वाले लगभग हर छात्र की यही प्रतिक्रिया दिखाई दे रही है. अपनी कहूं तो अच्छे शिक्षकों की कमी के बावजूद मुझे सीखने और पढ़ने का सौभाग्य मिला.
कल रिजल्ट आया था और मैंने 96.5 फीसदी (चार विषयों में सर्वोत्तम) नंबर हासिल किए. मुझे रोमांचित होने के साथ ही राहत मिली थी. मैं सोच रही हूं कि क्या यह नतीजा वाकई मेरी क्षमताओं को दर्शाता है. क्या वर्तमान शिक्षा प्रणाली सबसे अच्छी समग्र शिक्षा का प्रतिनिधित्व करती है?
शुरुआत से ही यह सिस्टम छात्रों को सिर्फ नतीजे की ओर धकेलता है, न कि कुछ सीखने के लिए. और शब्दकोश से पता चलता है कि इन दो शब्दों में, एक दूसरे के पर्यायवाची शब्द नहीं हैं. यह प्रणाली साफ तौर पर तथ्यों पर आधारित पढ़ाई और अंक हासिल करने के बजाय विकासशील विश्लेषणात्मक क्षमता और एक गहरी समझ पर जोर देती है.
यह प्रणाली रटने वाली पढ़ाई को प्रोत्साहित करती है. यह छात्रों के उन स्किल के इस्तेमाल को सीमित कर देती है, जो उन्होंने सीखे. इसके बजाय यह प्रणाली छात्रों को शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की पाठ्य पुस्तक के मुताबिक ही जवाब लिखने के लिए मजबूर करती है. मैंने अच्छे नंबर हासिल करने के लिए पिछले कुछ महिनों में अपनी पाठ्यपुस्तकों के साथ घंटों समय बिताया है. खासतौर पर बोर्ड परीक्षा होने से कुछ माह पहले से.
मुझे उस वक्त एक झटका लगा था, जब मुझे पहली बार मालूम हुआ कि अंग्रेजी जैसी भाषा सीखने के लिए वाक्यांश और उत्तर याद करने होंगे. नतीजा ये निकला कि किसी लेख को लेकर व्यक्तिगत समझ, जिससे किसी की क्षमताओं को बेहतर ढंग से पता चलता है, लेकिन मेरे लिए यह एक दुर्घटना बन गया. विषय ने अपने अर्थ का मतलब ही खो दिया, जिसे हर छात्र को कविताओं, लेख या पाठ का मतलब निकालने अनुमति देनी चाहिए. उसे उन्होंने जिस तरह समझा है.
यह रटने वाली शिक्षा प्रणाली केवल इस वजह से अतार्किक नहीं है क्योंकि यह शिक्षा का सार नष्ट कर देती है, बल्कि इसलिए भी कि यह हर छात्र की उम्मीद है, केवल अपनी किताबों के पन्नों को याद करने के लिए. उनकी व्यक्तिगत क्षमताओं को छोड़कर. और ऐसे में कम अंक वालों के लिए विफलता गरीबी की निशानी है.
जब एक शिक्षा प्रणाली हर छात्र की जरूरतों और क्षमताओं के अनुकूल नहीं हो सकती है, तो यह कम से कम शिक्षण और परीक्षण के ज्यादा सही और जिम्मेदार तरीके अपना सकती है.
यह केवल पढ़ाई का वह तरीका नहीं, जहां हम गलत हैं. लेकिन यह रटे रटाए जवाबों को ठीक करने का तरीका भी है, जो सही जवाब तलाशने में मददगार है, यह अब उस तरीके में बदल गया है जिसके सहारे पढ़ाई करके परीक्षा में अंक किसी रॉकेट की तरह ऊंचाई पर जा सकते हैं.
बढ़-चढ़कर मिले अंकों से उनकी महत्ता में तो कमी होती ही है, साथ ही यह छात्रों पर अनावश्यक दबाव भी बढ़ा देता है. उनके आत्मसम्मान को भी प्रभावित करता है. असाधारण रूप से अच्छा प्रदर्शन करने के बावजूद दिल्ली जैसे शहरों में छात्रों को शहर के बेहतर समझे जाने वाले कॉलेजों में एडमिशन नहीं मिलता है.
यह तब है जबकि हम इन समस्याओं का उपाय तलाश रहे हैं कि भारत में शिक्षा को एक घरेलू काम के बजाय अधिक समृद्ध अनुभव वाला कैसे बनाया जा सकता है? मुझ पर भरोसा न करें? अल्बर्ट आइंस्टीन पर भरोसा करें जिन्होंने कहा था कि "शिक्षा केवल तथ्यों को पढ़ना नहीं है, बल्कि यह सोचने के लिए दिमाग की ट्रेनिंग है."
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