गर जो चॉइस है तो हिजाब में निकली सैकड़ों लड़कियां कॉलेज पहुंचते जीन्स-टॉप में नहीं आतीं!
हिजाब अगर चॉइस होती तो घर से हिजाब में निकली सैकड़ों लड़कियां कॉलेज पहुंचते-पहुंचते सलवार-कुर्ता या जीन्स-टॉप में नहीं आ जातीं. हिजाब अगर चॉइस होती तो माहसा अमीनी को सिर न ढंकने के लिये डिटेन नहीं किया जाता. लड़कियां हिजाब पहनना इतना ही पसंद करतीं तो आज उसे आग नहीं लगा रही होतीं.
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एक अफ़ग़ानी महिला अपने देश में लड़कियों की शिक्षा के अधिकार की बात कर रही है. वह कह रही है कि एक वर्ष हो गया तालिबानी हुक़ूमत को और लड़कियां घरों में क़ैद हैं. वे लड़कियां जो सपने देखती थीं, कुछ करना चाहती थीं, अपनी पहचान गढ़ना चाहती थीं, आज हिजाब के पीछे ग़ुमनाम हैं और स्कूल व कॉलेज जो रुटीन हुआ करता था, आज उनके लिये सपना है.
एक वर्ष पूरा हो गया लेकिन विश्व का कोई भी संगठन उन बच्चियों के लिये कुछ नहीं कर सका है. उसी उम्र के लड़के पढ़ने जा रहे हैं, लड़कियां नहीं जा रहीं. लड़की होने के कारण शिक्षा जैसे मूलभूत अधिकार से उन मासूमों को वंचित रहना पड़ रहा है उस सदी में जहां अफगानिस्तान के अतिरिक्त अन्य कोई देश नहीं है जहां शिक्षा पर पाबंदी हो.
ईरान में महिलाओं को हिजाब के खिलाफ प्रदर्शन करते देखना कई मायनों में सुखद है
ईरान में 22 वर्षीय माहसा अमीनी को सिर्फ़ इसलिए मरना पड़ा क्योंकि उसने अपना सिर नहीं ढंक रखा था और वह ईरान, जहां दशकों से महिलाएं यूं ही कंडीशनिंग के नाम पर हिजाब पहनती रहीं, आज अलग कहानी लिख रहा है. दर्जनों ईरानी शहरों की लड़कियों ने हिजाब फूंक डाले कि करो डिटेन जितनों को कर सको, हिजाब अनिवार्य है इस्लाम ऐसा नहीं कहता. और तुम कहते हो तो बहुत चली तुम्हारी हुक़ूमत, अब नहीं.
मैं वर्षों से कह रही हूं, आज फिर सही - हिजाब, घूंघट, पर्दा... ये सब मज़हब नहीं सिखाता. और अगर सिखाता है तो उसे दुरुस्त करने की ज़रूरत है, अंधा होकर अनुसरण करने की नहीं. हिजाब किसी लड़की की चॉइस नहीं होती है. यह या तो मजबूरी है या कंडीशनिंग. उन्हें ढाला इस तरह गया है कि वे भली बनी रहने के लिये सब मानती जाती हैं. कुछ तो इसलिए भी मानती हैं क्योंकि इसी शर्त पर उन्हें पढ़ने-लिखने, घूमने-फिरने की सहूलियत मिलती है.
जब भी हिजाब की बात होती है तो प्रिविलेज्ड लोग आकर उसके समर्थन में वक़ालत करने लगते हैं. वे, जिन्होंने कभी जाना ही नहीं कि पर्दा क्या होता है. वे जो बॉक्सर्स या बमचम्स में पूरी कॉलोनी नाप आते हैं. वे बताते हैं कि बहुत ज़रूरी है. एक समूह महिलाओं का भी होता है जो पुरुषों की नज़र में महान बनी रहने को अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी, रोलर सब चला डालता है.
आप हिजाब में लिपटी महज़ चार वर्षीय लड़की के लिये कह डालते हैं कि वह उसकी पसंद है? वो जिसे खिलौने या चॉकलेट्स पसंद करने थे, हिजाब अपनी चॉइस से पहनती है? नहीं, आप उसे ढालते हैं कि ऐसे ही पहना जाता है, देखो तो कितनी प्यारी लग रही हो! उसकी तारीफ़ के पुल बांधते हैं. फिर वह चार वर्षीय लड़की नौ वर्ष की होते-होते प्यारी दिखने के लिये, अच्छी बनी रहने के लिये और नियम का पालन करने के लिये हिजाब पहनती है.
हिजाब अगर चॉइस होती तो घर से हिजाब में निकली सैकड़ों लड़कियां कॉलेज पहुंचते-पहुंचते सलवार-कुर्ता या जीन्स-टॉप में नहीं आ जातीं. हिजाब अगर चॉइस होती तो माहसा अमीनी को सिर न ढंकने के लिये डिटेन नहीं किया जाता. लड़कियां हिजाब पहनना इतना ही पसंद करतीं तो आज उसे आग नहीं लगा रही होतीं.
ईरान की लड़कियां आग लगा रही हैं, न सिर्फ़ हिजाब को बल्कि पितृसत्ता को, सोशल कंडीशनिंग को, हर तरह की ज़बरदस्ती को जिसे नियम बनाकर थोपा गया. विश्व देख रहा है कि हिजाब चॉइस नहीं है, प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती. मुझे नहीं पता कितने लोग फिर से इस विषय पर मेरा विरोध करेंगे लेकिन समूचे भारतवर्ष से अगर मुझे अकेला भी उन लड़कियों के साथ खड़ा होना पड़े तो मैं निःसंदेह होऊंगी.
सभी तरह के विरोध झेलकर भी होऊंगी. In solidarity with the girls of Iran and Afghanistan, and all those women who speak for themselves breaking the ceiling. I'm there with you all even if I've to stand alone. Love from India.
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