मानस ज्यादा जरूरी तो अखिलेश-तेजस्वी संसद में प्रस्ताव क्यों नहीं लाते, बाकी अब PAK बचेगा नहीं
आरजेडी और समाजवादी पार्टी को लगता है कि दुनिया में जिस तरह की उथल-पुथल मची है उसमें राम चरित मानस ज्यादा जरूरी मसाला है तो उन्हें विषय पर संसद में बहस के लिए रखना चाहिए और इसे पार्टी के घोषणापत्र में जगह देनी चाहिए. वर्ना तो माना जाएगा कि वह जाने अनजाने किसी के हाथों खेल रहे हैं और मकसद वोटबैंक की राजनीति ही है.
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विपक्ष के पास राजनीतिक मुद्दों की बहुत कमी है. वह जिस तरह राजनीतिक रास्ते पर आगे बढ़ता दिख रहा है- उससे तो यही स्पष्ट होता है. वर्ना तो रामचरित मानस पर समाज और राजनीति अपने दायरे में ना जाने कितनी मर्तबा और ना जाने कब से बहस कर रहे हैं. फिलहाल आरजेडी और सपा जैसे दलों की तरफ से मानस की निंदा और उसकी प्रतियां जलाई जा रही हैं. हालांकि पार्टियां इसे कुछ नेताओं का निजी मसला बताकर पल्ला झाड़ रही हैं. मगर उनके तरीके बता रहे कि यह उनकी योजना का हिस्सा ही है. अगर उन्हें लगता है कि मानस राजनीति का ही विषय है तो उसके लिए सही जगह सड़क नहीं, देश की संसद है. बड़ा मसला है तो अखिलेश यादव, लालू यादव और उनके सुपुत्र तेजस्वी यादव मानस या हिंदुओं पर तमाम तरह के प्रतिबंध वाले सवालों को संसद में क्यों नहीं रखते.
अगर भारत सरकार के जरिए ही मानस को लेकर चीजें तय हो सकती हैं तो सैकड़ों साल की बहस पर पूर्ण विराम लगाने का वक्त आ चुका है. दुनिया में जो भारी उथल पुथल मची है. बावाजूद उसे किनारे रखते हुए भारत को सबसे पहले मानस पर बहस कर लेनी चाहिए. इसके लिए ओवैसी से ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी निश्चित ही अखिलेश यादव और लालू यादव ही अपने कंधे पर उठा सकते हैं. उन्हें आगे आना चाहिए. बावजूद कि अगर वे मानस को लेकर संसद में नहीं आ रहे हैं तो साफ़ है कि दुनिया में जिस तरह की वैश्विक उथल पुथल है- जाने अनजाने दोनों विदेशी ताकतों के हाथों खेल रहे हैं. और वह खुली आंखों देखा जा सकता है. पाकिस्तान में खाड़ी देशों में और यूरोपीय क्षेत्रों में जिस तरह का राजनीतिक वातावरण तैयार है- उसमें चीजों को समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं है.
अखिलेश और लालू- दोनों यादव नेताओं को संसद में बहस के लिए खड़ा होना चाहिए. वर्ना यह माना जाएगा कि किसी के हाथ की कठपुतली भर हैं. रामचरित मानस हिंदुओं की आस्था का प्रमुख ग्रंथ है जो साहित्यिक भी है और अपनी विशिष्टता में लोकजीवन के लिए धार्मिक है. तुलसीदास अवधी के प्रमुख साहित्यकारों में से एक हैं जिनका रचना का समय मध्यकालीन है. तुलसीदास ने बाल्मिकी रामायण के रामचरित को उठाकर सरलीकरण करते हुए व्यापक स्तर पर राम को जनमानस से जोड़ा.
तेजस्वी और अखिलेश यादव.
रामचरित मानस से पूर्व भी राम का जिक्र संत व कवियों द्वारा दार्शनिकों द्वारा और महापुरुषों द्वारा अपने अपने ईश्वर के रूप में होता रहा हैं. जैसे बुद्ध ने भी दसरथ जातक में अपने आप को राम का पुनर्जन्म ही बताया. वही सिख पंथ में गुरुनानक ने भी राम का खेत राम की चिड़िया कहकर राम में खुद को समाहित किया. कबीर ने भी राम को निर्गुण निराकार से जोड़ते हुए कहा- दसरथ सुत तिहुं लोक बखाना, राम नाम का मरम है आना. वहीं गुरु गोविंद सिंह ने भी राम के सगुण रूप का वर्णन किया. इस तरह से एक स्वस्थ परंपरा के रूप में राम, भारत के खून में सदियों से विद्यमान थे. तुलसीदास ने भी परंपरा को आधार बनाते हुए राम के चरित्र को तत्कालीन समय के अनुरूप लोकमंगल से युक्त बनाया. उनके राम आदर्श पुत्र, भाई, पिता, पति के रूप में व शासक के रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में ही सामने आते हैं.
तुलसी के राम शबरी का झूठा बैर भी खाते हैं और केवट को गले लगाते हैं तथा अपनी पत्नी को मुक्त कराने के लिए वनवासियों की मदद से सेना बनाते हैं. महाभारत में यही केवट जाति भारत के महान योद्धाओं और महान ऋषियों के जन्म की वजह भी बनते हैं. तुलसीदास तो एक प्रगतिशील दृष्टिकोण को व्यक्त करते हैं. साथ ही तुलसी ने सजातीय रावण के बुराइयों को अत्यंत ही उत्कृष्टता के साथ दर्शाया है, बिना किसी भेदभाव के. वर्तमान में रामचरित मानस पर छिड़े विवाद में मानस को समग्रता के बरक्स उसकी कुछेक चौपाइयों की सुविधाजनक जाति व्याख्या में आंका जा रहा है.
जिन्होंने बीआर अंबेडकर की 'शूद्र कौन थे' या फिर महाभारत नहीं पढ़ी, बावजूद भारत में जातियों का अता-पता निकालने पहुंचे हैं असल में नेहरू के निष्कर्षों में 'मूलनिवासी' बहस ही खोजते हैं. जबकि समूचे भारत का डीएनए एक है- और आर्य यहीं के भूमिपुत्र थे. वैज्ञानिक अनुसंधानों के जरिए सिद्ध हो चुका है. डॉ. भीमराव अंबेडकर ने तो वैज्ञानिक अनुसंधानों से भी सालों पहले अब्राहमिक धर्मों और वेदों का मूल्यांकन करते हुए उसकी धज्जियां उड़ा दी थी और सिद्ध किया था कि आर्य बाहरी नहीं हैं. दयानंद सरस्वती ने भी डॉ. अंबेडकर से पहले वेदों को छोड़ हिंदुओं के पुराणों और अब्राहमिक धर्मों की धज्जियां उड़ा दी हैं. कहने का मतलब यह कि सनातन की आलोचना उसके अपने दायरे में जिस तरह हुई है वैसी आलोचना और कहीं नजर नहीं आती. अब्राहमिक धर्मों पर बाहर बहस करने की गुंजाइश तो कभी नहीं रही, मगर अंदर भी बहस करने की बजाए परदे डाल दिए गए. सनातन तो बहस की वजह से ही पैदा हुआ है.
बावजूद कि शूद्र शब्द सामाजिक नहीं अब राजनीतिक ज्यादा हो गया है- यहां विवाद शूद्र शब्द से है क्योंकि आज के तथाकथित सामाजिक न्याय के पुरोधाओं में जिनकी जमीन खिसक चुकी है, वो अपने दर्द को कम करने के लिए शूद्र शब्द की पेनकिलर का प्रयोग करते हैं. सवाल यह भी है कि स्वामी प्रसाद मौर्य और अखिलेश यादव आखिर कौन हैं? क्या ये वही शूद्र हैं जिसका जिक्र कर रहे हैं. या बस शूद्रों के वेश में राजनीति का सबसे बड़ा लाभार्थी वर्ग हैं. उन्हें यह भी बताना चाहिए कि आखिर वह कौन सी वजह रही कि चार वर्णों के सैकड़ों उपवर्ण, जातियां सामने आ गईं. सभी वर्णों में गोत्र सात ही थे फिर वह कैसे 100 से ज्यादा हो गई.
अभी तक कोई भी प्रमाणिक ग्रंथ या किसी शासकीय अभिलेख में शूद्र में कौन-कौन सी जातियां शामिल थीं, यह स्पष्ट नहीं हुआ है. लेकिन यह स्पष्ट है कि भारत के चारों वर्ण की वंश परंपरा क्या है. आज शूद्र राजनीति के अगुआ में सबसे आगे खड़ी जातियों में से कुछ जातियों का भारतीय राज और ज्ञान परंपरा में महत्वपूर्ण स्थान रहा है. जैसे यादव जाति के ही कृष्ण महाभारत में सबसे बड़े उपदेशक व सबसे सम्मानित व्यक्तित्व के रूप में सामने आते हैं. तमाम राजे महाराजे उन्हीं की वंश परंपरा में दिखते हैं और महाभारत के आगे आज तक वह वंश परंपरा बढ़ती नजर आ रही है. यादवों की कीर्ति का पताका 1299 में खिलजी के अभियान तक देवगिरी में और उसके बहुत बाद यानी आज तक नेपाल में साफ़ साफ़ नजर आता है. खिलजी का वह अभियान इतना क्रूर था कि देवगिरी के राजा ने बिना लड़े विवश होकर अपनी बेटी को खिलजियों के हरम में भेजा था. लचित के साथ भी यही हुआ था मगर उन्होंने इतिहास में गजब का पलटवार किया था. ब्राह्मण राजपूत और तमाम राजाओं (इसमें जिन्हें आज शूद्र कहा जाता है वह भी हैं) उन्हें भी हरम में अपनी बहन बेटियों और पत्नियों तक को भेजना पड़ा. यह तकलीफ साझी थी.
खिलजियों के दौर में ही ऐसे सबूत आते हैं जहां हिंदू रानियों को मजबूरी में अपनी बेटियों को बहू तक बनाने पड़े. प्राचीन कालीन साम्राज्यों में नंद वंश, हैहैय वंश, पाल वंश, होलकर, गोंड आदि न जाने कितने राजवंश यह सिद्ध करते हैं कि भारत में ये जातियां शूद्र के रूप कम से कम नहीं थीं. साथ ही यह भी प्रतीत होता है कम से कम शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय वर्ण में कोई निश्चितता नहीं थी. और कोई जाति असम्मानित नहीं हैं. यहां तक कि अलग-अलग धर्म के भारतवंशी लोगों का डीएनए एक है. खिलजी के अभियान के बाद तमाम ताकतवर जातियां आखिर इतिहास में कर क्या रही थीं, कम से कम यह भी अखिलेश यादव को बता देना चाहिए था. अगर वे नहीं बता रहे तो जाने अनजाने किसी बड़े जातीय नरसंहार की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं.
ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि रामचरित मानस पर विवाद उत्तर प्रदेश व बिहार के दो दलों से ही उभरकर सामने आया है जो वहां कि राजनीति के प्रमुख दलों में से एक है. इस तरह से अगर हम देखें तो मानस को लेकर विवाद के पीछे राजनीतिक प्रेरणा ज्यादा प्रतीत होती हैं बजाय कि सामाजिक चेतना के. क्योंकि विरोध करने वाले यह भी स्पष्ट नहीं कर पा रहे हैं कि विरोध चौपाई से है कि मानस से है या फिर तुलसी की जाति है. ध्यान से देखा जाय तो बस उन्हें विरोध अपनी दरकती जमीन के 'गुनहगारों' से है जिसमें पिछड़ा जमात के वही लोग हैं जो असल में सामाजिक न्याय में वोट बैंक बनकर इस्तेमाल होते रहे. मगर जब लालू गद्दी से हटे तो उन्होंने मुकुट अपनी ही पत्नी को पहनाया. फिर मौका मिला तो बेटे को आगे कर दिया. सामाजिक न्याय के सिपाही नीतीश कुमार लालू से अलग क्यों हुए- उन्हें यह भी बताना चाहिए? स्वर्गीय मुलायम सिंह यादव ने क्यों अखिलेश को सत्ता दी. सत्ता पर नियंत्रण बनाए रखकर एक तरह से यूपी और बिहार के दो सबसे बड़े वंशवादी राजनीतिक घराने ने भी तो जो स्वाभाविक पिछड़े थे उनके नेतृत्व उनकी राजनीति को ख़त्म किया. और वो साफ़ दिख रहा है कि मानस की प्रतियां अल्पसंख्यकों के वोटबैंक पाने के लिएजलाई जा रही है.
क्योंकि अगर तुलसीदास की चौपाई को आधार बनाए तो भी- ना तो उस समय तुलसीदास और ना ही उनका समाज किसी को ताड़ने के लायक था. वो सब जजिया से परेशान थे. शासन मुगलों का था. तुलसीदास या उनका समाज लंबे समय से शासक तो नहीं दिखता. भला उनका समाज कैसे किसी को "ताड़" सकता है. आज जिसको विरोध है वह चाहे तो मानस पढ़े न पढ़े- लेकिन इस तरह से मानस की प्रतियों में आग लगाना, समाज में आग लगाने जैसा ही है. मानस की प्रतियों में आग लगाने वाला खुद को किस मुंह से संविधान का अनुयायी और मानवतावादी साबित कर रहे हैं.
बावजूद कि हर रचनाकार अपने परिवेश से तथ्य ग्रहण करता है. तुलसीदास भी सामान्य मानव ही थे, जो इससे मुक्त नहीं हो सकते. तुलसीदास के दिमाग में जो था यह वही बता सकते हैं और उसका पता लगाना बहुत मुश्किल है. लेकिन मानस का सार तो मनुष्यता और मर्यादा विरोधी नहीं है. बावजूद कि जो शूद्र शब्द की जगह क्षुद्र लिख रहे हैं वो भी गलत ही कर रहे हैं. बल्कि इस आग को हवा दे रहे हैं और विवाद को गहरा कर रहे हैं, बावजूद कि जो आग लगाई गई है उसकी जद में कई घर आएंगे.
समझ में आ रहा कि मानस तो बहाना भर है. तीन राजकुमारों की सत्ता में किसी तरह वापसी नहीं हो पा रही है. आना भी नहीं है. वोटबैंक कभी ताकतवर रहा होगा. पाकिस्तान ख़त्म हो चुका है. कुछ लोग जितना जल्दी हो समझ लें, बेहतर है.
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