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Updated: 26 मार्च, 2015 10:24 AM
दमयंती दत्ता
दमयंती दत्ता
 
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बाघ की दहाड़ फिर से सुनाई दे रही है. हाल के टाइगर सेंसस के मुताबिक पिछले चार साल में भारत में बाघों की संख्या 30 फीसदी बढ़ी है. देश भर के 3,78,118 वर्ग किलोमीटर जंगलों में काम कर रहे 44, 000 वन कर्मियों को 2,226 बाघों के होने के सबूत मिले हैं. लुप्तप्राय होने के कगार पर पहुंच चुके बाघ ने वन्यप्राणी संरक्षण के इतिहास में बेहद उल्लेखनीय वापसी की है. लेकिन आबादी बढ़ने के साथ ही उनके रहने के ठिकाने भी सिकुड़ रहे हैं.

एक घातक कामयाबी!

सदी में पहली बार बाघों की संख्या में इजाफा हुआ है लेकिन उनके रहने के ठिकाने कम हो रहे हैं. इलाके की यह लड़ाई इंसान और बाघ - दोनों पक्षों के लिए जानलेवा हो रहा है. पिछले एक साल में इंसान और बाघ के बीच टकराव की 50 से ज्यादा घटनाएं हो चुकी हैं. इनमें पहली घटना बिजनौर में हुई जब एक नरभक्षी बाघ सात हफ्तों के भीतर दस जानें लीलकर फरवरी 2014 में लापता हो गया. सबसे ताजा घटना जनवरी 2015 में कर्नाटक के बेलागावी की है जहां स्थानीय लोगों ने एक बाघ को मार गिराया. वाइल्ड लाइफ कंजर्वेशन सोसाइटी ऑफ इंडिया के प्रमुख उल्हास कारंत कहते हैं, ''यह संरक्षण की कामयाबी की कीमत है. ऐसी घटनाएं उन्हीं इलाके में बढ़ रही हैं जहां बाघों की आबादी में इजाफा हुआ है.” जंगल कम होने से बाघ क्षमता से ज्यादा भर चुके अभयारण्यों से बाहर आ जा रहे हैं. वाइल्डलाइफ एसओएस के सह-संस्थापक कार्तिक सत्यनारायण कहते हैं, ''शहरी विस्तार की तेज आवाज, रोशनी, शोर-शराबे से डरे और भ्रमित बाघ हमला कर देते हैं. खतरे से घिरा कोई भी जानवर ऐसा ही करेगा.”  यह ऐसी जंग है, जिसमें हर कोई हार रहा है. लोग खुद जान गंवाते हैं या बाघों को मार डालते हैं, जख्मी करते हैं या शिकंजे में फंसा लेते हैं. नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी के सदस्य पीके सेन कहते हैं, ''दोनों का अस्तित्व तभी बच सकता है, जब दोनों को अलग रखा जाए.” क्या भारत अपने बाघों और लोगों को एक-दूसरे से बचा सकता है?

बाघों से डरता कौन है?

''आप यहां क्या कर रहे हैं? आपको पता नहीं यहां बाघ है?” राइफलों से लैस दो फॉरेस्ट गार्डों ने बड़ी तेजी से अपनी बाइक पर जगह बनाते हुए जंगल में लकड़ी बटोरने अकेले पहुंचे एक व्यक्ति को बीच में बैठाया. लंबे साल और जारुल के पेड़ों से घिरी, छोटी-छोटी धाराओं, खाइयों से युक्त उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड सीमा पर 33,399 हेक्टेयर की यह वनपट्टी बाघों के लिए बेहद मुफीद जगह है. फिर भी वन अधिकारियों को इस खतरनाक जंगल से लोगों को दूर रखने में खासी मुश्किल होती है. शॉर्टकट की तलाश में एक युवक बड़ी तेजी से एक पगडंडी पर चला जा रहा था. उससे पूछा, ''तुम्हें बाघों से डर नहीं लगता?” उसने मुस्कराते हुए जवाब दिया, ''मैं सेना की गोरखा राइफल्स में हूं. मुझे कुछ नहीं होगा.” ऐसी ही किसी पगडंडी पर नारंगी रंग की कमीज पहने एक शख्स चला गया और उस नरभक्षी बाघिन का दसवां शिकार बना, जिसने दिसंबर 2013 से बिजनौर इलाके में आतंक फैला रखा था. यह जानते हुए भी कि इलाके में नरभक्षी घूम रहा है, अगर वह 10 फरवरी 2014 को मवेशियों को चराने के लिए बाघ के इलाके में न गए होते तो जान बच सकती थी. उसी सुबह 63 वर्षीय लाल सिंह ने अपने साथियों से पूछा भी था, ''अगर बाघ ने मुझे पकड़ लिया तो?” फिर भी उसने अपने मवेशियों को इतना भीतर जाने दिया. या हो सकता है, उसे नींद आ गई हो. अगले दिन उसकी लाश मिली, जिसके पास भांग मिली तंबाकू की एक पुडिय़ा भी थी.

जंगल आखिर है कहां?

कारंत कहते हैं, ''जहां भी बाघों की आबादी बढ़ रही होती है, वहां हर साल बाघ 20 फीसदी ज्यादा हो जाते हैं. इनमें से बूढ़े, जख्मी या उत्साही जवान बाघ इलाके से बाहर आकर इंसानों से भिड़ जाते हैं.” इसकी वजह है जंगलों का कम होना. नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी और वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया की ओर से 2013 में जारी की गई एक रिपोर्ट में कहा गया था कि 2006 से 2010 के बीच बाघों के इलाके में 12,000 वर्ग किलोमीटर की कमी आई है—यानी गोवा के आकार का तीन गुना इलाका घट गया है. भारतीय वन सर्वे के अनुसार, उत्तर प्रदेश ने पिछले दो साल में लगभग 2 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र खो दिया है. इसमें भी बिजनौर ने सबसे ज्यादा खोया है—2003 में वहां 12 फीसदी वन क्षेत्र था जो अब घट कर नौ फीसदी से भी कम हो गया है.हैरत की बात नहीं कि बिजनौर के जंगल सबसे ज्यादा दबाव में हैं. लोग लगातार जंगल में जाते हैं—जलाने के लिए लकड़ी लाने, पेड़, फल, शहद, मवेशियों के लिए चारा, मिट्टी आदि लेने या केवल उस पार जाने के लिए रास्ते के तौर पर ही. फिर गन्ने के खेत हैं जो जंगल के किनारे तक फैले हुए हैं. जंगल और खेतों के बीच कमजोर-सी बाड़ें हैं. रेंजर कमलेश कुमार कहते हैं, ''लोग यह नहीं समझ पाते कि गन्ने के खेत बाघ के लिए जंगल की घास से कोई खास अलग नहीं हैं.” जंगलों को एक दूसरे से जोड़ने वाले टाइगर कॉरिडोर की अहमियत यहीं बढ़ जाती है जो बाघों के इधर-उधर आने-जाने, प्रजनन करने, जीन प्रवाह बनाए रखना सुनिश्चित करते हैं. भारतीय बाघों के डीएनए सैंपल का अध्ययन करने वाली अमेरिका के स्मिथसोनियन कंजर्वेशन बायोलॉजी इंस्टीट्यूट की टीम के प्राणीविज्ञानी संदीप शर्मा कहते हैं, ''सड़कें और रेल लाइनें इन कॉरिडोर से होकर गुजर रही हैं, वहां खनन, शहरीकरण और अन्य तरह का ढांचागत विकास हो रहा है, जिसकी वजह से अभयारण्यों के बीच बाघों का आवागमन बाधित होता है.” इस तरह आबादी बढ़ने के साथ ही उनके रहने का संकट भी बढ़ रहा है.

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लेखक

दमयंती दत्ता दमयंती दत्ता

लेखिका इंडिया टुडे मैगजीन की कार्यकारी संपादक हैं.

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