भारत के कई शहर पीने के पानी के लिए तरसने वाले हैं!
भारत में 63 मीलियन लोगों को साफ पानी नसीब नहीं होता. और बढ़ते प्रदुषण, सालों से प्रयोग किए जा रहे पानी जमा करने के गलत तरीकों ने अब पानी की किल्लत को इस स्थिति में ला छोड़ा है जिसे भविष्य में मैनेज करना असंभव हो जाएगा.
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मासूम शारदा पढ़ाई के साथ साथ अपने घर का सारा काम तो करती ही है, हर बुधवार और शनिवार को उसके कंधों पर एक अतिरिक्त जिम्मेदारी और होती है. हर बुधवार और शनिवार को वो सुबह जगकर पानी के लिए लंबी कतार में लग जाती है. दिल्ली जल बोर्ड का टैंकर हर तीन दिन में एक बार सुबह 7 बजे आता है. अगर शारदा चूक गई तो उसके परिवार को अगले दो दिन का गुजारा चलाने के लिए लोकल पानी माफिया से महंगे दामों पर पानी खरीदना होगा.
महरौली इलाके में रहने वाले लोगों के लिए हर बुधवार और शनिवार को डार्विन की थियोरी 'Survival of the fittest' चरितार्थ होता है. लेकिन फिर भी यहां के बाशिंदे खुद को भाग्यशाली समझते हैं. एक बताते हैं- "मैंने तो सुना है कि पानी की कमी के कारण दंगे हो जाते हैं." हर बार गर्मियों में यहां के निवासियों के लिए नई लड़ाई शुरु हो जाती है. चुनावों में राजनीतिक पार्टियां पानी की सुविधा के वादे के नाम पर चुनाव तो जीत जाते हैं लेकिन सच्चाई फिर भी वही है.
पानी की मारामारी से बचना है तो जाग जाइए
तो क्या सच में दिल्ली में पानी की इतनी किल्लत है? आंकड़े तो कुछ और ही बताते हैं-
दिल्ली में एम्सटर्डम और हैमबर्ग से ज्यादा पानी उपलब्ध है. लेकिन दिल्ली का पानी सप्लाई सिस्टम टूट रहा है. समस्या जितनी दिख रही है उससे कहीं ज्यादा गहरी है. अब बात करते हैं मुंबई की. मुंबई जो भारी वर्षा और बाढ़ के लिए प्रसिद्ध है उसके सामने भी पानी की भारी किल्लत है. 32 मेट्रो शहरों में से 22 पानी की भयानक किल्लत से जूझ रहे हैं जिसमें बंगलुरु, चेन्नई, हैदराबाद, पुणे सहित कई बड़े शहर शामिल हैं.
पीने के पानी की ये किल्लत देश में शहरी विकास और नियोजन के क्षेत्र में हुई गलतियों को बताती है. 1950 तक दिल्ली के शहरों में पानी सप्लाई सर्विस एशिया में बेस्ट मानी जाती थी. यहां तक की 1970 के दशक में दिल्ली में पानी सप्लाई की व्यवस्था एशिया के बड़े शहरों और व्यावसायिक क्षेत्रों के बराबर थी. लेकिन उसके बाद से व्यवस्था पूरी तरह से गड़बड़ा गई. आज आलम ये है कि 50 प्रतिशत से ज्यादा पानी, पाइप में रिसाव और पानी सप्लाई के पुराने तरीकों के कारण बर्बाद हो जाता है. कमोबेश यही हाल देश के हर मेट्रो शहर में है.
एक ओर जहां दिल्ली सरकार पानी के मुद्दे पर पड़ोसी राज्यों से टकराव कर रही है वहीं दूसरी ओर चेन्नई विलवणीकरण संयंत्र बनाने की कोशिश कर रहा है और बैंगलुरू प्रशासन शहर में जल संकट का प्रबंधन करने के लिए एक मिनी डैम बनाने की चर्चा कर रहा है. लेकिन फिर भी दुख की बात ये है कि इतनी प्लानिंग के बाद भी देश के बड़े शहरों में औसतन हर घर को चार घंटे कम पानी सप्लाई होती है. स्थिति ये हो गई है कि लगभग हर शहर के हर घर अब मिनी जल बोर्ड में बदल गए हैं. हर घर में टंकियों, बालटियों और बर्तनों में पानी जमा कर रखे जा रहे हैं.
लेकिन इस चैलेंज पर कठोर उठाना तो दूर की बात है सरकार पानी सप्लाई में आ रही दिक्कतों और पानी की खराब क्वालिटी तक पर काम करती नहीं दिख रही. विडम्बना ये है कि जब एक तरफ देश विकास और तरक्की के मॉडल डिस्कस करता है तो दूसरी तरफ देश में आ रही पानी की किल्लत पर उसका ध्यान रत्ती भर भी नहीं है.
भारत में 63 मीलियन लोगों को साफ पानी नसीब नहीं होता. और बढ़ते प्रदुषण, सालों से प्रयोग किए जा रहे पानी जमा करने के गलत तरीकों ने अब पानी की किल्लत को इस स्थिति में ला छोड़ा है जिसे भविष्य में मैनेज करना असंभव हो जाएगा. 2016 में जारी किए गए WaterAid report जिसमें लोगों को साफ पानी मुहैया कराने वाले देशों की लिस्ट थी, भारत को सबसे खराब देशों की श्रेणी में रखा गया था.
एशियन डेवेलपमेंट बैंक ने भविष्यवाणी की है कि 2030 तक भारत में पानी की 50 प्रतिशत कमी हो जाएगी. केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने अनुमान लगाया है कि देश में पानी वर्तमान आवश्यकता प्रति वर्ष लगभग 1100 अरब घन मीटर है, जो 2025 तक लगभग 1200 अरब घन मीटर तक बढ़ने का अनुमान है. ये आंकड़े डराने वाले हैं.
दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन में पानी संकट अपने चरम पर पहुंच चुका है. यहां अब बस पानी सप्लाई के सारे स्रोतों का सूखना भर रह गया है. यूएन का अनुमान है कि 2030 तक पानी की वैश्विक मांग, सप्लाई से ज्यादा हो जाएगी. इसका मतलब ये है कि फिर देश दुनिया के कई बड़े शहर केपटाउन के बराबर पहुंच जाएंगे, जहां आज के समय में पानी की एक बूंद भी कीमती हो गई है. केपटाउन की घटना ने पूरे विश्व के लिए खतरे की घंटी बजा दी है.
भारत में बेंगलुरु इस वाटर क्राइसिस का पहला शिकार हो सकता है. खतरे की घंटी बीबीसी की एक रिपोर्ट के बाद बजी जिसमें दिखाया गया कि ब्राजील के साओ पोलो शहर के बाद बेंगलुरु दूसरा शहर हो सकता है जहां पीने का पानी खत्म हो जाएगा. लेकिन दोनों में फर्क ये है कि जहां साओ पोलो में ये किल्लत लगातार पड़ रहे सूखे की वजह से आएगी तो वहीं बेंगलुरु की क्राइसिस हमारे द्वारा बनाई गई है और प्रशासन द्वारा बारिश के पानी को जमा करने और समुचित प्रयोग न कर पाने की कमी की वजह से पैदा हुई है. हालांकि राज्य सरकार का दावा है कि 2023 तक वो 5,500 करोड़ रुपए खर्च करके लोगों को 2,175 लीटर पानी रोजाना उपलब्ध कराएगी. यहां के लोगों को अभी 1,391 लीटर पानी प्रति दिन मिलता है. लेकिन ये दावा भी दूर की कौड़ी ही नजर आ रहा है.
पानी की बढ़ती किल्लत हमें फिर से उन्हीं पुराने और 'घिसे पिटे' तरीकों की तरफ वापस जाने के लिए कह रही है. संसाधनों का इस्तेमाल संभल कर करें, इंफ्रास्टर्कचर में निमित कमियों को सुधारे और पानी से संबंधित संसाधनों का इस्तेमाल ढंग से करें. अब समय आ गया है जब हम पानी की किल्लत की तरफ गंभीरता से ध्यान दें और पानी बचाने के तरीकों पर अमल करें.
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