सिगरेट-शराब से तो बचा भी लेंगे पर आपके बच्चे इसकी लत से कैसे बचेंगे?
इसमें तो कोई दो राय नहीं कि टेक्नोलॉजी ने हमारे जीवन को बहुत तक बदल दिया है. ये वरदान के साथ-साथ अभिशाप भी साबित हुआ है. फर्क बस इतना है कि किसके लिए ये वरदान होगा और किसके लिए अभिशाप ये खुद वो ही तय करेगा.
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आज स्मार्टफोन का जमाना है. हर हाथ में स्मार्टफोन. क्या बच्चे, क्या बड़े. आलम ये है कि अब लगभग हर युवा के हाथ में एक स्मार्टफोन देखने को मिल ही जाता है. एक स्टडी के मुताबिक साल 2018 के अंत तक देश में स्मार्टफोन यूजर की संख्या 340 करोड़ तक पहुंच जाएगी. हर हाथ में मोबाइल और अपने मोबाइल में ही डूबे लोग चारों तरफ दिख जाएंगे.
हद तो ये है कि अब स्मार्टफोन के बगैर लोग खुद को पंगु समझने लगे हैं. जैस फोन में उनकी जान बसती हो. सांस फोन की बैटरी के चार्ज के साथ ही ऊपर नीचे होती हैं. लेकिन इस टेक्नोलॉजी ने हम अपना असर दिखाना शुरु कर दिया है. टेक्नोलॉजी की खोज जीवन को आसान बनाने के लिए की गई थी, लेकिन अब ठीक उसका उल्टा हो रहा है.
टेक्नोलॉजी को लोग नहीं बल्कि लोगों को अब टेक्नोलॉजी चला रही है. अब तक तो सिर्फ सिगरेट, शराब की लत से लोग परेशान रहते थे. इसमें एक नाम स्मार्टफोन का भी जुड़ गया है. हर दो मिनट में फोन चेक करना. सोशल मीडिया देखना. गाने सुनना. फोटो खींचना. कुछ भी करना पर फोन हाथ में होना. इसने भयानक रुप अख्तियार कर लिया है. युवाओं के साथ साथ अब छोटे बच्चे भी इसकी जद में आ गए हैं. और इससे माता-पिता की सिरदर्दी बढ़ गई है.
यही कारण है कि एप्पल के दो बड़े शेयर होल्डर कंपनियों ने कंपनी को चिट्ठी लिख स्मार्टफोन एडिक्शन के खतरों से बच्चों को बचाने के उपाय खोजने की गुहार लगाई है. शनिवार को मिली इस चिट्ठी में कैलिफॉर्निया स्टेट टीचर रिटायरमेंट सिस्टम के प्रतिनिधि और इंवेस्टमेंट फर्म जाना पार्टनर एलएलसी ने कंपनी को बच्चों और किशोरों में टेक्नोलॉजी के बढ़ते नकारात्मक प्रभाव पर चिंता जताई.
स्मार्टफोन से बचपन बचाओ
इन दोनों इंवेस्टरों का कंपनी में कुल 200 करोड़ डॉलर का निवेश है. दोनों ने ही कई विश्वविद्यालयों, मेडिकल सेंटर और समाजसेवी संस्था द्वारा किए स्टडी का हवाला दिया है. इन सबकी स्टडी में पाया गया है कि जो बच्चे स्मार्टफोन या किसी भी और तरीके के डिजिटल डिवाइस का इस्तेमाल करते हैं उनमें डिप्रशन, नींद न आने की बीमारी होने की संभावना बढ़ जाती है. साथ ही वो बच्चे स्कूल में भी ध्यान नहीं लगा पाते.
चिट्ठी में लिखा गया है- 'ये कहना बेमानी है कि जिन बच्चों के दिमाग का अभी विकास ही हो रहा है उसमें स्मार्टफोन के इस्तेमाल से किसी तरह का फर्क नहीं पड़ेगा. या फिर ये कहना भी गलत है कि अभिभावक बच्चों को इसके इस्तेमाल से कैसे रोकें इसपर ऐसे प्रोडक्ट बनाने वालों का कोई बस नहीं है.' वहीं हार्वर्ड यूनीवर्सिटी के सेंटर ऑन मीडिया एंड चाइल्ड हेल्थ के संस्थापक और डायरेक्टर डा. माइकल रिच का कहना है- स्मार्टफोन और अन्य डिजिटल डिवाइस हमारे जीवन पर बहुत असर कर रहे हैं. हम कैसे व्यवहार करें. दूसरों के साथ संबंध कैसे रखेंगे. और हमारा समाज कैसे काम करेगा. हर चीज बदल रही है.
चिट्ठी में एप्पल को कुछ स्टेप भी बताए हैं जिन्हें वो अपने प्रोडक्ट में डाल सकती है.
- नया पैरेंटन कंट्रोल डेवेलप करना जो बच्चों पर निगरानी रखने में मददगार साबित हो. इससे बच्चों के फोन इस्तेमाल करने की टाइमिंग को तय करने का अधिकार अभिभावक के पास हो.
- एक बचपन विकास स्पेशलिस्ट के एक्सपर्ट लोगों की एक कमिटि बनाई जाए जो इस मुद्दे पर नजर बनाए रखे और मदद करे.
इसमें तो कोई दो राय नहीं कि टेक्नोलॉजी ने हमारे जीवन को बहुत तक बदल दिया है. ये वरदान के साथ-साथ अभिशाप भी साबित हुआ है. फर्क बस इतना है कि किसके लिए ये वरदान होगा और किसके लिए अभिशाप ये खुद वो ही तय करेगा. विडम्बना ये है कि आज हम इतने निरीह हो गए हैं कि टेक्नोलॉजी से पीछा छुड़ाने के लिए टेक्नोलॉजी से ही सहारा मांग रहे हैं. खुद पर हमारा कंट्रोल इतना खो गया है. हम इतने ज्यादा टेक्नोलॉजी पर आश्रित हो गए हैं.
अब भी संभलने का वक्त है. वरना कहीं देर न हो जाए.
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