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Updated: 02 दिसम्बर, 2015 06:33 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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ड्रेस कोड को लेकर महिलाएं अक्सर निशाना बनती रही हैं. बलात्कार की घटनाओं के बाद कई नेता और अफसर महिलाओं के ड्रेस को ही जिम्मेदार बताते रहे हैं. मंदिरों को लेकर भी ड्रेस कोड की बात आई तो पहला शिकार महिलाएं ही बनीं. हवाओं का असर ही सही, अब तो पुरुषों के लिए भी ड्रेस कोड की बात चल पड़ी है.

ऐसा लगता है जैसे ड्रेस कोड नये दौर में छुआछूत की ही नई पैकेजिंग हो. ऐसे में जबकि छुआछूत की छिटपुट घटनाएं जहां तहां होती रहती हों.

छुआछूत

हाल ही में संसद में कांग्रेस नेता कुमारी शैलजा ने खुद से जुड़े छुआछूत के एक वाकये का जिक्र किया - वो भी तब जब वो केंद्र सरकार में मंत्री थीं. शैलजा ने बताया कि जब वो गुजरात के द्वारका मंदिर में गईं तो उनसे उनकी जाति पूछी गई. इससे पहले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने बताया था कि एक मंदिर में दर्शन करके उनके चले जाने के बाद शुद्धिकरण के लिए उसे धोया गया.

ये घटनाएं मंदिरों में प्रचलित एक खास फिल्टर की ओर ध्यान दिलाती हैं. अब तक ये फिल्टर जाति के रूप में हुआ करता था. कई जगह धर्म और संप्रदाय के रूप में भी काम करता है. ऐसा लगता है ड्रेस कोड इसी का नया रूप है.

ड्रेस कोड

12 ज्योतिर्लिंगों में से एक काशी विश्वनाथ मंदिर को लेकर पिछले दिनों एक फरमान आया. ये फरमान मंदिर के अपर मुख्य कार्यपालक अधिकारी ने सुनाया.

इसके तहत पुरुषों के लिए धोती और महिलाओं के लिए साड़ी पहनने का नियम बनाया गया. ये कपड़े मंदिर परिसर में बने काउंटर पर उपलब्ध कराए गए. चेंजिंग रूम के इंतजाम की भी बात हुई. दिलचस्प बात ये रही कि ये नियम पहले सिर्फ विदेशियों सैलानियों पर लागू किया गया.

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बोल, हर हर गंगे... [फोटो, साभार: संजय गुप्ता]

अभी शुरुआत ही हुई थी कि टकराव शुरू हो गया. विश्वनाथ मंदिर परिषद के अध्यक्ष अशोक द्विवेदी ने कह दिया कि मंदिर कोई स्कूल थोड़े ही है कि ड्रेस कोड लागू होगा. विरोध का तेवर और वाजिब तर्क देख प्रशासन नरम पड़ा और पांव जमाने से पहले ही नियम वापस भी हो गया.

बनारस की बयार लखनऊ भी पहुंची है. मनकामेश्वर मंदिर में भी ड्रेस कोड की बात चल पड़ी है. हालांकि, यहां जोर पुरुषों को लेकर है. मंदिर प्रशासन का मानना है कि अक्सर पुरुष सिर्फ धोती या कमर के नीचे कोई वस्त्र पहन कर आ जाते हैं. इससे महिलाओं को दिक्कत होती है. लिहाजा मंदिर प्रशासन चाहता है कि पुरुषों को पूरे कपड़े में ही मंदिर में दाखिल होने की इजाजत दी जाए. वैसे ये नियम अभी लागू नहीं किया गया है.

जिस पहनावे पर लखनऊ के मंदिर प्रशासन को आपत्ति है वैसा तो बनारस में गली मोहल्लों से लेकर हर घाट पर देखा जा सकता है. अस्सी से लेकर सिंधिया घाट तक टॉपलेस पुरुषों को देखा जा सकता है. कमर तक सिर्फ गमछा लपेटे. कुछ घाटों पर महिलाओं के लिए चेंजिंग रूम जरूर बनाए गए हैं लेकिन पुरुष तो सरेआम लंगोट की आड़ में ही लंगोट बदल लेते हैं. केदार घाट, चौकी घाट, मानसरोवर घाट, अहिल्याबाई घाट पर हरदम ये नजारा देखा जा सकता है.

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बेमिसाल है बनारसी मस्ती का अंदाज [फोटो, साभार: संजय गुप्ता]

न तो कभी किसी ने इस पर आपत्ति जताई न कभी किसी ने इसे आपत्तिजनक माना. न महिलाओं ने कभी इस पर ध्यान दिया न कभी पुरुषों ने इस ओर सोचा.

सब अपनी अपनी दुनिया में खोए रहते हैं. ये शायद बनारसी मस्ती की खासियत है. ऐसे शहर में तो ड्रेस कोड लागू करना डॉन को पकड़ने जैसा ही है.

बनारस के मंदिर न्यास ने ड्रेस कोड की बात को एक सरकारी अफसर का आइडिया बताकर खारिज कर दिया तो लखनऊ में मंदिर प्रशासन किसी जल्दबाजी के मूड में नहीं है.

दक्षिण भारत में भी ड्रेस कोड चर्चा में है. खास बात ये है कि निर्देश अदालत की तरफ से आए हैं. मद्रास हाई कोर्ट ने कहा है कि हमें सार्वजनिक पूजा के लिए ऐसी ड्रेस पहननी चाहिए जो आम तौर पर उचित समझी जाती हो. कोर्ट ने पुरुषों, महिलाओं, यहां तक कि बच्चों के लिए भी ड्रेस सुझाए हैं. कोर्ट ने आध्यात्मिक माहौल को बढ़ाने के मकसद से तमिलनाडु सरकार को खास निर्देश दिए हैं.

धार्मिक चरित्रों को लेकर नई कहानियां गढ़ी जा रही हैं. किरदारों को नए कलेवर में पेश किया जा रहा है. लगता है मंदिरों की लाइफ स्टाइल में भी ऐसे ही किसी हिट फॉर्मूले की तलाश हो.

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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