हम जिन्हें महामानव और देवता मानते हैं, वे पहले मानव थे!
Jaipur Literature Festival 2023: बिना मनुष्य रूप धरे तो कोई भगवान भी नहीं कहलाया. भगवान बुद्ध ना होते यदि सिद्धार्थ न जन्मा होता. वर्धमान भगवान महावीर कहलाए थे. भगवान श्रीराम भी राजा दशरथ के पुत्र राम ही थे. महात्मा पहले मोहनदास थे. उनका कर्म और आचार विचार मानवीय था.
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ऐसा बताने की हिम्मत रचनाकार ही बखूबी कर सकते हैं. वे मान्यता पर सवाल नहीं उठाते लेकिन संकीर्ण विचारधारा ऐसा ही मानेगी और कहेगी कि मान्यता पर सवाल उठाये गए हैं. इसलिए जब दो नामचीन महिला लेखिकाओं ने अपनी आगामी रचनाओं का लेखा जोखा प्रस्तुत किया जिसमें गांधी और श्री राम सरीखे महामानव और देवता के मानवीय पक्ष को नारी के दृष्टिकोण से उकेरा गया है, अविश्वसनीय अविश्वसनीय सरीखा नहीं लगा बल्कि एक सुखद एहसास ही हुआ.
प्लेटफार्म था जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का, सेशन था कथा संधि। बोल रही थी कोलकाता की साहित्य अकादमी अवार्ड विनर सुप्रसिद्ध लेखिका अलका सरावगी अपने आगामी पुस्तक "गांधी और सरला देवी चौधरानी- बारह अध्याय" के बारे में. मारवाड़ी परिवार में जन्मी राजस्थानी पृष्ठभूमि की अलका कोलकाता में पली बढ़ी जिस वजह से उनकी रचनाओं में अक्सर बंगाली एक्सप्रेशन आ ही जाते हैं. वे बंगाल और खासकर एक महिला होने के नाते बंगाली नारी को खूब अच्छी तरह समझती हैं और शायद इसीलिए रवींद्रनाथ टैगोर की भांजी सरला देवी की सरला देवी के नजरिये से लगभग अनकही सी प्रेम कहानी को उनसे बेहतर कौन बयां कर सकता था? जिस मानव का नाम इतिहास में महामानव के रूप में दर्ज हो, उनके जीवन के कुछ कमतर और अनछुए पहलुओं का खुलासा होना ही उनका मानवीकरण है. गांधी महापुरुष हैं, महामानव हैं, निर्विवाद हैं परंतु निःसंदेह वे मानव पहले थे.
सरला देवी अपने युवाकाल से ही सक्रिय थीं, वह देश की आजादी में योगदान देना चाहती थी और इसीलिए 33 साल की उम्र तक उन्होंने शादी नहीं की थी. विवाह के बाद भी वे सक्रिय रहीं, पति के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेती रही थीं. गाँधी जी से उनकी मुलाक़ात तो शादी के तक़रीबन 14 साल बाद 1919 में हुई थी जब सरला देवी के पति की असहयोग आंदोलन में भागीदारी की वजह से गिरफ्तारी हुई थी और वे उनके लाहौर स्थित घर पर रुके भी थे. कालांतर में नजदीकियां बढ़ीं लेकिन दोनों के मध्य निश्छल प्रेम था. गांधी अपने भाषणों में और यंग इंडिया और अन्य पत्रिकाओं में सरला देवी की कविताओं और लेखों को उद्धृत किया करते थे.
दोनों ने साथ साथ पूरे भारत की यात्रा की थी. जब साथ नहीं होते थे, वे अक्सर पत्रों का आदान-प्रदान करते थे. वे बंगाल की विदुषी थी, मामा रवीन्द्रनाथ जी के साथ मिलकर वनडे मातरम की धुन रची थी, बंकिम चंद चटर्जी भी चाहते थे कि वे उनकी और कविताओं को भी धुन दें. विवेकानंद अपने साथ उन्हें विदेश ले जाना चाहते थे. शायद बहुतों को मालुम भी नहीं होगा सरला देवी के इकलौते बेटे दीपक ने गांधी जी की पोती राधा से शादी की थी. परंतु वो कहते हैं ना स्त्री पुरुष के पवित्र और निश्छल प्रेम को दुनिया ने कब समझा है? अपनी पुस्तक पर चर्चा के दौरान अलका सरावगी ने कहा कि गांधी, सरला देवी की हंसी पर मुग्ध थे. वह खुद कहते थे कि सरला के साथ मेरा प्रेम का पहला व्यक्तिगत अनुभव है. लेकिन गांधी की ब्रह्मचर्य संत की छवि को बनाये रखने के कारण उन्हें इतिहास के पन्नों में वह जगह नहीं मिली, जिसकी वे हकदार थीं.
वजह थी उनकी वजह से गांधी की विपरीत छवि जो तैयार हो रही थी. सो दोषी सरला देवी को मान लिया गया. कस्तूरबा की तल्खी इस कदर थी कि उन्होंने सरला देवी चौधरानी के सारे पत्र जला दिए थे क्योंकि उनका कहना था कि सरला देवी मेनका और रंभा की तरह गांधी जी के ब्रह्मचर्य की तपस्या को भंग करने आयी है. इसी प्रकार से राजगोपालाचारी ने भी सरला देवी को निंदा भरा पत्र लिखा था और उन्हें गाँधी जी से दूर रहने को कहा था. दरअसल तमाम फॉलोवर्स भी भी नहीं चाहते थे कि सरला देवी की वजह से गांधी जी की छवि ख़राब हो. उनके पति का देहांत जल्दी 1923 में ही हो गया था और फिर गांधी का विरह उन्हें सहन नहीं हुआ. नतीजन वे लाहौर से कोलकाता लौट आईं और स्वतंत्रता संग्राम से एक दूरी सी बना ली.
उन्होंने पब्लिक लाइफ छोड़ ही दी और धर्मोन्मुख हो गयी. कुल मिलाकर सरला सरावगी की किताब गांधी की उदार प्रेमी की छवि सामने रखते हुए सरला देवी को इतिहास के पन्नों में उचित स्थान दिलाने की ही कोशिश है. दूसरी ओर साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त एक अन्य कवियित्री अनामिका ने मानों औरतों के संघर्ष को ही बयां किया इन पंक्तियों के माध्यम से कि 'मैं एक दरवाजा थी, मुझे जितना पीटा गया, मैं उतना खुलती गई". उन्होंने अपनी आगामी रचना में तृण धरी ओट से श्रीराम के सीता के त्याग के बाद उन दोनों के बीच हुए पत्राचार की कल्पना की है जिसके जरिये उनके प्रेम को नया आयाम देने की कोशिश हैं. पत्रों का यह आदान प्रदान हनुमान के जरिये होता है.
राम भी सीता के साथ वन में जाने को तत्पर हैं तब सीता उन्हें रोकती है, याद दिलाती है कि उनकी जरुरत अयोध्या और बाकी परिवार को ज्यादा है. वह तो आदिवासियों के बीच, वाल्मीकि से चर्चा करते हुए अपना वक्त काट लेगी. अनामिका कहती है कि जैसे फल जरुरत से ज्यादा पकने पर डंठल से दूर हो जाता है. इसी तरह प्रेम से भरा हुआ मन प्रेमी की छोटी छोटी बातों को नजरअंदाज कर देता है. प्रेम में लगी चोट भी मुक्ति मार्ग प्रदान करती है. प्रेम चोट लगने पर कांटे निकालना सिखाता है. हालांकि आज के दौर में कुछ आपराधिक तत्व के लोग भी होते हैं, लेकिन जहां असल प्रेम है, वहां समय और ऊर्जा दोनों लगानी चाहिए. इसीलिए सीता तो शूर्पणखा की तरफदारी करते हुए लक्ष्मण से कहती है कि वह तो बच्ची है, तुम्हारे प्रेम में है, तुम्हें उसकी नाक नहीं काटनी चाहिए थी.
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