पत्नी को प्रेग्नेंट करने के लिए पैरोल देकर कोर्ट ने कैदी पर नहीं मानवता पर एहसान किया है!
जोधपुर उच्च न्यायालय ने एक व्यक्ति को अपनी पत्नी को गर्भवती करने के लिए 15 दिन की पैरोल दी है. मामले में दिलचस्प ये है कि पत्नी ने 'संतान के अधिकार' का दावा करते हुए अपने पति की रिहाई के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया था.
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भारत की आबादी 140 करोड़ से ऊपर है. लेकिन आम आदमी को इससे कोई मतलब नहीं है. लोग बदस्तूर शादी कर रहे हैं. उनका उद्देश्य वंश बढ़ाना है. इतिहास गवाह है वंश तो तभी बढ़ेगा जब बच्चे होंगे. बच्चे सभी पैदा करते हैं. मतलब चाहे वो राजा और वजीर हों या फिर सिपाही और चोर सभी को अधिकार है कि वो बच्चे पैदा करे. अपना वंश बढ़ाए. कोई माई का लाल नहीं रोक सकता और जो किसी ने रोका तो फिर कोर्ट का दरवाजा तो है ही खटखटाने के लिए और पूरी गारंटी है निराश दंपत्ति वहां से खाली हाथ नहीं लौटेंगे. इतना कुछ सुनकर कन्फ्यूज तो होना ही नहीं है और हमें जोधपुर हाई कोर्ट के उस आर्डर को देखना है जिसमें जेल में बंद एक अपराधी को 15 दिन के पैरोल पर रिहा किया गया है कोर्ट चाहती है कि उसकी पत्नी मां बने. मामले में दिलचस्प ये कि जेल में बंद व्यक्ति की पत्नी ने अपने पति की रिहाई के लिए 'संतान के अधिकार' का हवाला दिया था और उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था.
महिला का मुद्दा गंभीर था और उससे भी गंभीर इस पूरे मामले पर जोधपुर हाई कोर्ट दिखा. जोधपुर उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति संदीप मेहता और न्यायमूर्ति फरजंद अली की खंडपीठ ने कहा कि कैदी की पत्नी की यौन और भावनात्मक जरूरतें उसके कारावास के कारण प्रभावित हुई हैं.
अदालत ने ऋग्वेद सहित अन्य हिंदू धर्मग्रंथों का हवाला दिया है साथ ही अदालत ने यहूदी, ईसाई और इस्लाम के सिद्धांतों का हवाला देते हुए जेल में बंद नंदलाल नाम के कैदी को 15 दिन की पैरोल देने के लिए कहा है, कोर्ट चाहती है कि नंदलाल की रिहाई के बाद उसकी पत्नी गर्भ धारण कर सके.
पैरोल को लेकर जोधपुर हाई कोर्ट का एक आदेश लोगों के बीच चर्चा का विषय है
मामले में कोर्ट थोड़ी आध्यात्मिक भी नजर आई. अदालत ने इस बात पर बल दिया कि विवाह के 16 संस्कारों में, गर्भ धारण करना महिला का पहला और सबसे महत्वपूर्ण अधिकार है.
चूंकि मामला गर्भ धारण की प्रक्रिया और एक महिला के मूल अधिकारों से जुड़ा था अदालत ने कहा, 'वंश के संरक्षण के उद्देश्य से संतान होने को धार्मिक दर्शन, भारतीय संस्कृति और विभिन्न न्यायिक घोषणाओं के माध्यम से मान्यता दी गई है.' मामले पर अपना पक्ष रखते हुए कोर्ट ने ये भी कहा कि,'संतान के अधिकार को दाम्पत्य संघ द्वारा निष्पादित किया जा सकता है. इसका अपराधी पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और ऐसा करके कैदी/ अपराधी के व्यवहार को परिवर्तित किया जा सकता है.
कोर्ट का मानना है कि. 'पैरोल का उद्देश्य अपराधी को उसकी रिहाई के बाद शांति से समाज की मुख्यधारा में फिर से प्रवेश करने देना है.' आदेश पर संशय की कोई गुंजाइश न रहे इसलिए कोर्ट की तरफ से तमाम तरह के दिलचस्प तर्क दिए गए हैं. अपराधी की पत्नी के प्रति सॉफ्ट कार्नर दिखाते और उसकी जरूरतों का ख्याल रखते हुए कोर्ट ने ये भी कहा है कि. 'कैदी की पत्नी को उसके संतान के अधिकार से वंचित कर दिया गया है, जबकि उसने कोई अपराध नहीं किया है और वह किसी सजा के अधीन नहीं है.
वहीं कोर्ट ने ये भी कहा है कि यदि वो पत्नी की मांगों को ख़ारिज करती है तो इसका प्रतिकूल प्रभाव पत्नी के अधिकारों पर पड़ेगा. बताते चलें कि राजस्थान की भीलवाड़ा अदालत द्वारा उम्रकैद की सजा काट रहे नंदलाल अजमेर जेल में बंद हैं. उसे 2021 में 20 दिन की पैरोल दी गई थी. अदालत ने कहा कि उसने पैरोल अवधि के दौरान अच्छा व्यवहार किया और जब उसकी पेरौल की अवधि समाप्त हुई उसने बिना किसी न नुकुर के आत्मसमर्पण कर दिया.
जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं पेरौल देते हुए कोर्ट आध्यात्मिक नजर आई इसलिए उसने ऐसे तमाम तर्क दिए हैं जो धर्म से जुड़े हैं जहां विवाह उपरांत बच्चा पैदा करने या उस प्रक्रिया को खासा जरूरी बताया गया है. वहीं बात पति के पेरौल के लिए अदालत पहुंची पत्नी की हो तो मांग तो उसकी भी जायज है. जब देश में हर मिनट लगभग 50 बच्चे पैदा हो रहे हों तो आखिर ये महिला क्यों अपने मूल अधिकार से वंचित रहे?
कुल मिलाकर जोधपुर हाई कोर्ट ने एक तारीखी फैसला दिया है. और ये कहना हमारे लिए अतिश्योक्ति नहीं है कि महिला की फरियाद सुन जोधपुर हाई कोर्ट सिर्फ कैदी पर नहीं सम्पूर्ण मानवता पर एहसान किया है. भले ही महिला के पति ने अपराध किया हो और वो उम्र कैद की सजा काट रहा हो लेकिन बात फिर वही है कि मानवाधिकार उसके भी है जिनकी कद्र देश, संविधान, नागरिकों, व्यवस्था और कोर्ट सभी को करनी चाहिए.
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