Kaali Movie poster: भावना भड़की, प्रतिक्रियां दे दीं...इससे अधिक हिन्दू समाज के वश में क्या है?
कई कम्युनिस्ट इंटेलेक्चुअल साफ कहते हैं कि हिन्दू प्रतीकों (Kaali Movie poster) को इतना अपमानित कर दो कि उसे भारतीय समाज अपनाते हुए डरने लगे. तिलक और यज्ञोपवीत पवित्रता के पर्याय हैं तो हर चोर को, अपराधी को, व्यभिचारी व अत्याचारी को यह पहनाकर गलियों में घुमाया जाए ताकी इन प्रतीकों का पर्याय बदल जाए.
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भारतीय मूल की लीना मनिमेकलाई (Leena Manimekalai) टोरंटो में एक डाक्यूमेंट्री प्रदर्शित करने वाली हैं. डाक्यूमेंट्री का शीर्षक है काली (Kaali). डाक्यूमेंट्री का पोस्टर उन्होंने स्वयं ही सोशल मीडिया पर शेयर किया, उसके बाद विश्वभर में उस पर आपत्ति दर्ज कराई गई. जारी किये पोस्टर में मां काली के वेश में एक स्त्री को दिखाया गया है, जिसके एक हाथ में त्रिशूल है और दूसरे हाथ में समलैंगिक समूहों का सतरंगी झंडा है. काली के वेश वाली वह स्त्री तीसरे हाथ से सिगरेट पी रही है. इस आपत्तिजनक पोस्टर (Kaali Movie) पर विश्वभर में तीखी प्रतिक्रिया हुई और फ़िल्मकार के दुराग्रह व पवित्र प्रतीकों के अपमान करने को लेकर उनकी आलोचना शुरू हुई. हालांकि, जब लीना मनिमेकलाई ने पोस्टर जारी किया था तब उसे दहाई के भी दर्शक व समर्थक नहीं मिले थे, लेकिन हिन्दू समाज की प्रतिक्रियाओं ने उसे सर्व सुलभ बना दिया. दो दिनों तक प्रतिक्रियाओं का दौर चला और इन प्रतिक्रियाओं से लीना मनिमेकलाई की दुर्भावना का ही पोषण हुआ.
भारत में कई स्थानों पर शिकायतें भी दर्ज कराई गईं लेकिन उनका कोई अर्थ नहीं निकलने वाला क्योंकि फ़िल्मकार एनआरआई हैं. हिन्दू समाज के साथ विडंबना यही है कि उसके हाथ बस प्रतिक्रियाएं हैं. वह प्रतिक्रियाएं भी इस तरह के दुराग्रहियों के लिए खाद पानी का ही काम करती हैं. अपमान से छटपटा कर हिन्दू समाज कुछ समय बाद चुप हो जाता है और विस्मृति उस अपमान पर भारी पड़ जाती है. जबकि ऐसे षड्यन्त्र करने वाले लोग अपने एजेंडे पर जुटे रहते हैं और सफल होते जाते हैं. हिन्दू समाज न ही उन्हें सजा दिलवा पाता है, न ही ग्लानि महसूस करा पाता है. इससे हमारे समाज में हीन भावना और गहरी होती जाती है. यह डाक्यूमेंट्री आपत्तिजनक तो है लेकिन इसका विरोध हिन्दुओं के अपमान का जख्म भरने में सफल हो सकेगा, यह संदेहास्पद है. क्योंकि हमने इससे बड़े अपमान सहे हैं और कालान्तर में दोषियों का मंडन भी सहा है. जबकि वह मामले भारत में घटे थे व कानूनी कार्रवाई में कोई समस्या नहीं थी. एक बड़ा उदाहण इग्नू से जुड़ा है, जिसकी आज शायद ही कहीं चर्चा होती हो.
पवित्र प्रतीकों का अपमान समाज में हीन भावना भरने के लिए ही होता है.
बात वर्ष 2005 की है. इंदिरा गाँधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी (इग्नू) ने इतिहास विषय के तहत एक पाठ्यक्रम तैयार कराया, शीर्षक था ‘भारत में धार्मिक चिन्तन व आस्था’. उस पाठ्यक्रम में भगवान शिव, देवी दुर्गा और मां काली के लिए अभद्र शब्दों का प्रयोग किया गया. काली का चित्रण करने के लिए पौराणिक साहित्य के बजाय किसी बंगाली कवि की कविता का सहारा लिया. उसमें शिव व दुर्गा के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया था जिसका उल्लेख करना भाषाई मर्यादा के अनुरूप नहीं होगा.
जब पाठ्यक्रम तैयार हुआ तब उसकी विषयवस्तु पर कहीं कोई चर्चा नहीं हुई और विश्वविद्यालय की विशेषज्ञ समिति ने उसे मान्यता दे दी. हजारों विद्यार्थियों ने वह पाठ्यक्रम पढ़ा व उसके आधार पर परीक्षा भी दी. उसके बाद एक विद्यार्थी ने इग्नू को लिखित शिकायत भेजी और कार्रवाई न होने पर विश्वविद्यालय के क्षेत्रीय केंद्र पर उग्र प्रदर्शन हुआ. आज के राष्ट्रवादी व वामपंथी दोनों तरह के बुद्धिजीवियों के लिये हैरानी की बात हो सकती है लेकिन उस मामले को सरकार के समक्ष वामपंथी नेता बृंदा करात ने उठाया था. सरकारी हस्तक्षेप के बाद वर्ष 2006 में विश्वविद्यालय ने पाठ्यक्रम वापस ले लिया और सार्वजनिक रूप से माफ़ी भी मांगी.
अर्जुन सिंह शिक्षा मंत्री थे, और डॉ. कलाम राष्ट्रपति होने के नाते विश्वविद्यालय के विजिटर. सरकार के आदेश पर मामले की विजिटोरियल इन्क्वायरी कराई गई लेकिन वह रिपोर्ट कभी सार्वजानिक नहीं हुई. बाद में इस विषय को भाजपा सांसद नीता पटेरिया ने संसद में भी उठाया लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हो सकी. दोषी प्रोफेसर न सिर्फ बचा लिए गये बल्कि उन्हें प्रोन्नति भी मिली. इस पाठ्यक्रम को तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले एक प्रोफेसर को पिछले वर्ष इग्नू का प्रति कुलपति बनाया गया है और उस समय सम्बंधित स्कूल के निदेशक रहे प्रोफेसर इस समय राष्ट्रवादी गोष्ठियों की शान हैं. उक्त दोनों प्रोफेसरों की सफलता व सम्मान इस मामले में कार्रवाई के लिए संघर्ष करने वालों पर वज्रपात से कम नहीं थी. और, जैसा कि इस तरह की हर घटना के बाद होता है, हिन्दू समाज हारा हुआ व हीन महसूस करके रह जाता है.
वहीं, दूसरी ओर से पवित्र प्रतीकों का अपमान समाज में हीन भावना भरने के लिए ही होता है. यह एक नियोजित षडयंत्र है. कई कम्युनिस्ट इंटेलेक्चुअल साफ कहते हैं कि हिन्दू प्रतीकों को इतना अपमानित कर दो कि उसे भारतीय समाज अपनाते हुए डरने लगे. उनमें से कई तो यहां तक कहते हैं कि जैसे तिलक और यज्ञोपवीत पवित्रता के पर्याय हैं तो हर चोर को, अपराधी को, व्यभिचारी व अत्याचारी को यह पहनाकर गलियों में घुमाया जाए ताकी इन प्रतीकों का पर्याय बदल जाए. कोई इन्हें अपनाने से पहले डरे व ग्लानि महसूस करे. वह अपने एजेंडे पर हर कदम एडवांस हो रहे हैं। हम आपत्ति व प्रतिक्रिया में ही उलझे हैं.
भारतीय समाज को अपना मनोबल बनाये रखते हुए पवित्र प्रतीकों का अपमान करने वाले इकोसिस्टम पर प्रहार करना ही होगा. उसे सरकार पर ऐसे मामलों में अनिवार्य कानूनी कार्रवाई करने का दबाव बनाना होगा. उसे ऐसे मामलों पर सस्टेन तरीके से विरोध दर्ज कराने व क़ानूनी कार्रवाई सुनिश्चित करवाने की जरूरत है, जिससे ऐसी घटनाओं का दोहराव रोका जा सके. अन्यथा क्षणिक प्रतिक्रिया फिर विस्मृति से हिन्दू प्रतीकों व परम्परा को अपमानित करने वाले पोषित ही होंगे.
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