बस सोच में ही तो हैं शौचालय..
पूरी दुनिया में खुले में शौच करने वाली आधी आबादी भारत में है. नतीजा ये कि देश के पांच साल से कम उम्र के 140,000 से भी ज्यादा बच्चे हर साल डायरिया की भेंट चढ़ जाते हैं.
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टीवी ऐड में शौचालय को लेकर विद्या बालन की चाहे जो भी सोच हो, सच यही है कि देश में सिर्फ सोच में ही शौचालय हैं, हकीकत में नहीं. आंकड़े बताते हैं कि पूरी दुनिया में खुले में शौच करने वाली आधी आबादी भारत में है.
वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन (WHO) के अनुसार दुनिया भर में खुले में शौच करने वालों की तादाद करीब एक अरब है जिनमें भारत 59.7 करोड़ लोग शुमार हैं. यही नहीं, Water Aid रिपोर्ट के अनुसार भारत के हर एक वर्ग किलोमीटर में करीब 173 लोग खुले में शौच करते हैं. इस मामले में भी भारत पहले स्थान पर आता है.
प्रॉब्लम ही प्रॉब्लम
इससे होने वाली स्वास्थ्य समस्याएं भी काफी गंभीर हैं. हमारे देश के पांच साल से कम उम्र के 140,000 से भी ज्यादा बच्चे हर साल डायरिया की भेंट चढ़ जाते हैं. बच्चे जीवाणु संक्रमण और परजीवियों के संपर्क में आते हैं जिससे उनकी छोटी आंत को नुकसान पहुंचता है. वृद्धि और विकास के लिए जरूरी पोषक तत्वों को अवशोषित करने की क्षमता रुक जाती है. फिर बच्चे चाहे जितना भी खाना खाएं, उन्हें पोषण नहीं मिलता. इसका नतीजा ये है कि देश के 6.1 करोड़ बच्चे अविकसित हैं, जो पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा भारत में ही हैं.
खुले में शौच करना स्वास्थ्य के लिए जितना हानिकारक है उतना ही महिलाओं की गरिमा और सुरक्षा के लिए भी खतरा है. महिलाएं खुले में शौच करती हैं. अकेले जाने से डरती हैं, समूह में जाती हैं क्योंकि अकेले जाने से उनपर यौन हिंसा होने का डर हमेशा बना रहता है. गांवों और झुग्गियों में महिलाओं से बलात्कार की अधिकतर घटनाएं शौच को जाते समय ही होती हैं. लड़कियों के बड़े होते ही वो स्कूल जाना कम कर देती हैं क्योंकि स्कूलों में शौचालय नहीं हैं, अगर हैं भी तो वो सुरक्षा और स्वच्छता की दृष्टि से जाने लायक नहीं हैं. गांवों की लड़कियां स्कूल जाने से वंचित रह जाती हैं इसका सबसे बड़ा कारण शौचालय ही हैं.
सरकारी लेखा-जोखा
कहते हैं इस दिशा में सरकार काम कर रही है. ये काम कई दशकों से चल रहा है. लेकिन मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के कई इलाकों में सर पर मैला उठाने की प्रथा आज भी चल रही है. भारत सरकार ने अपनी दूसरी पंचवर्षीय योजना में इस अमानवीय प्रथा को समाप्त करने के उद्देश्य से राज्यों और नगरीय निकाय संस्थाओं को शुष्क शौचालय बनाने के लिए योजनाएं बनाई थीं, तब से अब तक कई अभियान चलाए गए यहां तक कि कानून भी बनाया, पर ये देश की बदकिस्मती है कि इस दिशा में काम किए जाने के बावजूद भी मैला ढोने की ये कुप्रथा आज भी बाकायदा चल रही है.
पर प्रधानमंत्री के स्वच्छ भारत अभियान से उम्मीद लगाने के सिवा अब कोई चारा भी नहीं है. इसे 2 अक्टूबर 2014 को शुरू किए गया था और इस अभियान का मिशन 2 अक्टूबर 2019 तक खुले में शौच करने से भारत को मुक्त करना है. बहरहाल सरकारी आंकड़े कहते हैं कि इस अभियान के तहत पिछले साल करीब 89 लाख शौचालय बनवाए गए, 3.17 लाख शौचालय स्कूलों में बनवाए गए.
इतना तो करे सरकार
सरकार को न सिर्फ शौचालयों की संख्या बढ़ानी होंगी बल्कि इनकी स्वच्छता और रखरखाव पर भी ध्यान देना होगा. क्योंकि सरकारी शौचालयों का हाल क्या होता है ये हमारे बस अड्डे या सुलभ शौचालय खुद बयां करते हैं. मैला प्रथा भी सरकारी अभियानों की वास्तविकता का एक उदाहरण है. लोगों के घरों में शौचालय नहीं हैं लेकिन मोबाइल ज़रूर हैं. लोगों को सूचना और संपर्क की ज़रूरत महसूस होती है लेकिन टॉयलेट की नहीं. स्वच्छ भारत मिशन तभी सफल होगा जब स्वच्छता को भी भोजन, शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य की तरह ही बुनियादी मानवाधिकार के रूप में देखा जाएगा.
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