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Updated: 26 मार्च, 2015 09:17 AM
दिव्या गुहा
दिव्या गुहा
  @divya.guha.10
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'इंडियाज़ डॉटर' से देश की मीडिया, सामाजिक कार्यकर्ताओं और सरकार को एक इशारा मिला है नई ताकत का. इससे यह भी पता चलता है कि देश के सख्त शासकों ने खुद की प्रशंसा पाने के लिए क्या कुछ किया. हालांकि, बीबीसी ने इसे यूट्यूब पर जारी करवा कर दिमाग का काम किया. प्रसारण के समय में मामूली बदलाव और कुछ सॉफ्ट चेतावनियों के साथ. .इस बात की चिंता किए बिना कि देर शाम तक इस फिर प्रतिबंध लगा दिया जाएगा. देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह शायद गुस्से और शर्मिंदगी का शिकार थे जैसे देश के सारे पुरुष. और हकीकत में, हम इस शर्मनाक घटना के गुणगान से अपनी महान प्राचीन संस्कृति का मजाक उड़ते हुए कैसे देखते. सड़क पर जा रही महिला को देखने के लिए आतुर रहने वाले पुरुषों को उनके व्यवहार के बारे में बताना चाहिए. जबकि उन्हें लगता है कि वे कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हैं.

भाजपा "सभ्यता" बेच रही है, भले ही लोगों का मिजाज कुछ भी हो. कोई मनोरोगी कहता है हम महिलाएं फूल हैं, कोई कहता है कि उसे अपने बेटी के पुरुष साथी से खतरा है. हर तरफ माहौल में हमारे दुश्मन हवा की तरह हैं जो दिखाई नहीं देते. हमारे चारों तरफ बुराई फैल रही है.

भारत में सभी स्थानों पर महिलाओं की सुरक्षा के लिए एक आपातकाल जैसे हालात हैं. उस फिल्म में एक पुलिस अधिकारी शहर को सुरक्षित कह रहा था. हाँ सही है, लेकिन केवल पुरुषों के लिए. महिलाएं तो घरों में भी सुरक्षित नहीं हैं. हम ईमानदारी से कहें तो गर्भ में भी हम सुरक्षित नहीं हैं. बॉम्बे के एक अस्पताल में जांच के दौरान पाया गया कि गर्भपात का शिकार हुए एक हजार भ्रूणों में 999 मादा थे. इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है.

बीबीसी एक परिपक्व मीडिया कम्पनी है जो वैश्विक स्तर पर विकसित हो रही दर्शकों की मांग को बेहतर तरीके से जवाब देती है. वहां की जनता अपनों घरों में टीवी देखने के लिए सरकार को लाइसेंस शुल्क का भुगतान करती है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता स्वतंत्र प्रेस का अधिकार है. लोकतंत्र में इसका कोई विकल्प नहीं है. भारत में भी ऐसा ही प्रावधान है और संविधान पर इसकी रक्षा की जिम्मेदारी है. बीबीसी पर इसी स्वतंत्रता के दुरुपयोग का इल्जाम लग रहा है.

भारतीय नौकरशाही ने यहां अंतरराष्ट्रीय समाचार संगठनों के लिए काम करना मुश्किल बना दिया है. इसी का उदहारण है कि मीडियाकर्मी इस तरह के विचाराधीन अपराधियों के साक्षात्कार करके केवल अपना वक्त जाया करते हैं. उन्हें इसके लिए केवल निंदा ही मिलती है. निर्भया के मामले में रेपिस्ट मुकेश सिंह की आवाज़ दुनियाभर की मीडिया से कहीं गुम थी. सही कहें तो ये एक नया एंगल था स्टोरी का और इसमें स्कूप भी था. ऐसा काम केवल अच्छे पत्रकार ही कर सकते हैं.

अगर आप मुसीबत मोल लेने के लिए तैयार हैं और आपके पास संसाधन उपलब्ध हैं तो आप मधुमक्खी के छत्ते पर लात मार सकते हैं. लेकिन इसके लिए आपको निशाने की ज़रूरत है. पत्रकार जुझारू होते हैं और उन्हें अच्छा लगता है जब कोई उनके पीछे हो.

अगर एक नियोक्ता किसी स्टोरी के लिए पत्रकार के साथ खड़ा हो तो यह पत्रकार के लिए बहुत महत्वपूर्ण बात होती है. यहाँ प्रेस स्वतंत्र तो है लेकिन हैरान करने वाली बात है कि हर जगह पत्रकार जंजीरों में जकड़े हैं. भारतीय पत्रकारों से पूछिए कैसे, बिना किसी चेतावनी और वजह के स्टोरी बंद या गायब हो जाती हैं.

एक विचाराधीन बलात्कारी का साक्षात्कार गैरकानूनी है भले ही बलात्कार की शिकार मर गई हो. अगर कोई स्टिंग किया जाता है तो उसे राष्ट्रीय हित में पर्याप्त होने की बात कही जाती है. एक पत्रकार की राय के रूप में तो ये ठीक हो सकता है लेकिन लेकिन सबूत की कमी इसे मानहानि या परिवाद में बदल देती है, अगर पीड़ित, पत्रकार का समर्थन नहीं करता.

सामान्य काम करने वाले पत्रकारों को अपना काम आराम से करने की इजाजत है, लेकिन चुनौतीपूर्ण स्टोरी करने वालों को अक्सर खुद जोखिम उठाना पड़ता है. आमतौर पर पत्रकारों को काम से इसलिए नहीं निकाला जाता कि वे बेकार हैं बल्कि इसलिए हटाया जाता है कि वे अच्छा काम करते हैं.

लेकिन बीबीसी का दामन साफ है इसीलिए उसने साम्राज्यवाद का परिचय दिया. बीबीसी ने कई दशकों में गजब की विश्वसनियता हासिल की है. उनकी नरेन्द्र मोदी को चुनौती शानदार जनसम्पर्क की वजह से आक्रामक हो सकती है, लेकिन यह कहना गलत होगा कि लेस्ली या बीबीसी नस्लवादी हो रहे हैं.

बीबीसी को विश्वास है कि निर्भया केस को मंदी की मार झेल रहे ब्रिटेन से व्यापक समर्थन मिलने की संभावना है, और कठोर आर्थिक हालात किसी की बेटी की देखभाल के लिए ज्यादातर लोगों को प्रेरित करेंगे.

भारत अपनी बेटियों से नफरत करता है. भारत की बेटियों को कई तरह से बदनाम किया जाता है चाहे वो वे माताएं हों, पत्नियां हों या फिर बहनें. बलात्कार के एक आरोपी की जीवित युवा पत्नी पूछती है कि उसके पति को फांसी पर लटकाए जाने के बाद क्या होगा?

शायद भारतीय महिलाएं कभी बड़ी नहीं होती, वे सदा बेटियां रहती हैं. उदाहरण के लिए निर्माण स्थलों पर काम करने वाली, त्रासदियों का दंश झेलने वाली, कुपोषण का शिकार होने वाली, असंतुलित लिंग अनुपात और अनियंत्रित गर्भपात का बोझ सहने वाली बेटियां ही तो हैं. उस मां की तरह जिसका बलात्कारी बेटा तीन साल से उसकी नजरों से दूर है और उसे कुछ नहीं चाहिए सिवाए भरपेट खाने के, जो उसे 11 सालों से नहीं मिला है.

, भारत में बेटियां, नफरत, हिंसा

लेखक

दिव्या गुहा दिव्या गुहा @divya.guha.10

लेखिका दिल्ली में रहने वाली एक पत्रकार और कवि हैं.

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