'महसूस करिए जिंदगी के ताप को, मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको'
आदम गोंडवी की इन पंक्तियों को मेरे शहर के झुग्गी वाले इलाके में हर पल और हर चप्पे पर महसूस किया जा सकता है. ये इलाका अराजक तत्वों वाले हिस्से के नाम से जाना जाता है.
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जिस मोहल्ले में मैं रहता हूँ वह शहर की सबसे निचली बस्ती कही जाती है. जहाँ एक ऐसा तबका रहता है जिसके पास करने को कोई काम नहीं. शहर की भीड़ में उनका इलाका अराजक तत्वों वाले हिस्से के नाम से जाना जाता है. इस मुहल्ले का नौजवान सुबह उठकर सबसे पहले गोलबन्दी करके जुंआ खेलकर दिन की सार्थक शुरुआत करता है जिससे कुछ आमदनी के साथ बोहनी-बट्टा हो. फिर चार लोग इकट्ठा होकर एक-दूसरे की माँ-बहन का ऊँची आवाज़ में जनाज़ा निकालते हैं और शाम एक बोतल शराब के साथ ढलती है. फिर पूरी रात नशे में झगड़े जैसा वातावरण.
इस तरह की बस्तियों में अक्सर बारात बिना दुल्हन के ही लौट आती है.
इस मुहल्ले में मुझे रहते लगभग तीन साल हो गए. शुरू में आया तो बड़ा अजीब सा लगता ये माहौल. हर घर से भयानक शोर की आवाज और लगभग हर घर की खिड़की के पास एक बड़ा सा साउंड बॉक्स रखा होता था, जिसका मुँह सड़क की ओर होता था. इन साउंड बॉक्सों से सभी घर से अपने-अपने पसंदीदा गानों की झड़ी लगा देते और गाने की टक्कर के बाद साउंड की आवाज़ को लेकर भीषण प्रतिस्पर्धा होती थी. जिसमें वह घर अपने को सामर्थ्यहीन समझता जिसके घर साउण्ड बॉक्स नहीं होता था.
इसी मोहल्ले में आज सुबह ही एक बारात वापस आई जिसमें साथ में दुल्हन भी थी. दुल्हन भी साथ में थी, ये बात इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि इसी मुहल्ले से कई और बारातें गयी थी जो किसी तरीके से लौटी तो पर बिना दुल्हन के. छोर्रिया इस मुहल्ले का बड़ा सौभाग्यशाली दूल्हा माना गया क्योंकि बाइज्जत वापस आया था अन्यथा दूल्हे इज्जत वहीं उतरवा के वापस आते थे.
उस मुहल्ले के घरों की दशा ये थी कि मुश्किल से दो कमरे और जुगाड़ू शौचालय की ही व्यवस्था हो पाती थी क्योंकि उससे ज्यादा की न उनकी हैसियत थी और न ही उससे ज्यादा बनाने के लिए ज़मीन. उनके यहां जमीन की ही ज्यादा समस्या और वर्तमान सबसे ज्यादा जरूरत भी है. पूरे मोहल्ले के घरों की यही बनावट और क्षेत्रफल आप पाएंगे. रहने की इतनी किल्लत है इनके घरों में कि तीन-तीन पीढ़ियों के इंसान एक साथ रहने को मजबूर हैं. जिसका नतीजा है कि पर्याप्त स्पेस न बना पाने के कारण इनके बीच आये दिन बात-बात पर झगड़े होते रहते हैं. हर पीढ़ी के लोग अपने अनुकूल घर का माहौल और व्यवस्था चाहते हैं जिसके चलते व्यवस्था तो कुछ नहीं बन पाती, बल्कि पूरा घर और कमरे अस्त-व्यस्त बना रहता है.
मैं दोपहर की धूप से बचने के लिए दोपहर भर सोया और शाम को नींद खुली तो बाहर झाँककर मुहल्ले की तरफ देखा तो कई सारी औरतें मिलकर दुल्हन का स्वागत गीत गा रही थीं. छोर्रिया नज़र दौड़ा-दौड़ाकर चारों ओर देख रहा था कि सब देख रहे हैं कि नहीं मेरी दुल्हन जो आई है और सीना फुलाये बिना किसी काम के औरतों से हाल-चाल पूछता- "ओये चाची.......होये चाची." मुहल्ले की सारी पुरानी औरतें....(पुरानी इसलिए कि नइयों का अभी कोई आगमन सम्भव ही नहीं हो पाता था).... छोर्रिया की फीलिंग को समझ रही थीं. इसलिए जरा सा मुस्कुरा देती थीं. शाम को ही मैंने देखा कि छोर्रिया मुहल्ले के लड़को को एक-एक पैक पिलाने का वादा कर रहा था. शायद आज जीवन का जरूरी लक्ष्य पूरा हो गया था. बहुत खुश होकर छोर्रिया चारों ओर शादी वाला रंगीन जूता पहनकर, बारात जाने के पहले बुआ द्वारा लगाया गया काजल आज तक लपेटे घूम रहा था.
ऐसी बस्ती में अक्सर जगह की वजह से समस्या होती है.छोर्रिया की इतनी ख़ुशी के बाद उसके दिमाग में एक समस्या भी चल रही थी कि घर में गुजर कैसे होगी. घर में बड़ा भाई, भाभी, उनके बच्चे और अम्मा बाबू हैं. कमरे दो ही हैं. एक में भैया-भाभी और बच्चे हो जाएंगे....चलो ये ठीक है. फिर एक में मैं और मेरी दुल्हन. उसने ये तो सोच लिया कि किसी तरह हो जाएगा. पर अम्मा-बाबू कहाँ जाएंगे. आज छोर्रिया को गाँव की याद आई कि अगर यही गाँव में होते तो अम्मा-बाबू बाहर किसी मड़ैया में रह लेते लेकिन यहां तो दो कमरे के बाद बाहर सड़क है और उस पार मुहल्ले के दूसरे आदमी का घर. बाहर जाएँ तो लेकिन रहेंगे कहाँ....? आज उसने गाँव की बेची गयी जमीनों को भी याद किया होगा जो शहर में रहने के लालच में बेच दी गई थीं. आज उसे अपनी जड़ कटी हुई लगी.
शहर में बसने वाले धनिकों और बाहरी बाशिंदों ने शहर की सारी जमीन खरीद ली और सबसे पहले इलाहाबाद के अल्लापुर में बसने वाले छोर्रिया के पूर्वजों की बस्ती सिकुड़ती गई. नतीजा ये है कि आज इस वर्ग के लोग न जमीनें पा रहे हैं और न गाँव वापस ही लौट पा रहे हैं. शायद छोर्रिया के बाद उनके बच्चे शहर से बाहर न कर दिए जाएं क्योंकि इतनी घुटन शायद अगली पीढ़ी को तोड़ दे और वे बहचड़िया कहे जाने वाले घुमक्कड़ प्रजातियों में शामिल हो जाएं क्योंकि आने वाले दिनों में जमीन खरीदना इस वर्ग के लोगों के लिए बड़ा ही दुष्कर हो. तमाम विकास की बातों के बावजूद भी इनका अपना कुछ नही होगा क्योंकि जिसके पास जमीन नहीं उसके सर पर अपना छत कभी नहीं हो पाएगी.
फिर इतनी समस्याओं के बाद होना क्या था रात को एक बजे के लगभग छोर्रिया को दस्त की आमद लगी शायद सासू माँ और सालियों ने मिलकर कुछ ज्यादा ही प्यार से खिला दिया था. घर के शौचालय का रास्ता भाभी के कमरे से होकर जाता था. भाभी को ये अच्छा न लगा क्योंकि आज ही तो उनकी सौत या दुश्मन, जो भी कह लें, देवरानी घर आई थी और उन्होंने छोर्रिया को न पेट हल्का करने न जाने दिया. छोर्रिया को दस्त सड़क की नाली के पास करना पड़ा. बस फिर क्या था......हल्का होने के बाद छोर्रिया ने अपनी नई दुल्हन के आते ही अपनी बेज्जती का बदला भाभी से तुरन्त ले लिया. भाभी लेटी रही और वो डंडे से पीटने लगा. मामला मर्दों की सीमा रेखा पार कर गया. फिर क्या था.......भीषण ताडंव, नींद हराम, पुलिस, छोर्रिया का पीटा जाना और हमारी नींद हराम.
इस तरह के कई परिवार इन तंग मोहल्लों में अपना जीवन घुटता हुआ खत्म करने को मजबूर हैं. हमारे भारतीय समाज का यह तबका शान्ति की तलाश में हिंसा को अपना रहा है. यह किसी त्रासदी से कम नहीं. साथ ही गांवों की दुनिया से अलगाव ने इन्हें और तोड़ कर रख दिया है. शहर में रहने की लालसा ने उनका जीवन तंग कर दिया. उन्हें इस भंवर से निकालने की जरूरत है. ये इन निम्न वर्गों के आवास समस्या का एक उदाहरण है. ऐसे तमाम उदाहरण इनके जीवन में भरे पड़े हैं जो केवल उदाहरण नहीं बल्कि उनके दर्द की मूक दास्तान है.
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