सिर्फ जीने के लिए नहीं जीना है तो सोच को प्रशस्त बनाएं
मन हमारा नौकर है. लेकिन कभी कभी नौकर मालिक को परेशान भी कर देता है. और जरूरत इसी बात की है कि मन रूपी नौकर वश में रहे, संयत रहे. तो मन को संस्कारी कैसे बनाया जाए ? उसे कैसे अच्छी सोच में नियोजित किया जाए ?
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'सोच' मायने 'विचार' जो एक सतत प्रक्रिया है. मनुष्य एक क्रियाशील प्राणी है. निष्क्रिय हुआ नहीं समझो मृत्यु को प्राप्त हुआ. यदि वह निष्क्रिय बैठा भी है तो सोच रहा है और सोचना, विचार करना भी एक क्रिया है. और फिर सोचना एक ऐसी क्रिया है जो किसी भी अन्य क्रिया के साथ साथ चलती रह सकती है. व्यक्ति चलते समय सोचता है, खाते समय विचारों के भंवर में है और नींद में भी चिंतन मुक्त नहीं रहता. कहीं एक प्रसंग पढ़ा था. एक जिज्ञासु ने किसी दार्शनिक से चार सवाल पूछे. उसका पहला प्रश्न था जगत में सबसे बड़ा कौन है ? तत्काल उत्तर मिला - आकाश. दूसरी जिज्ञासा थी संसार में सबसे आसान काम क्या है और दार्शनिक ने संयत रहते हुए कहा - बिना मांगे सलाह देना. तीसरी समस्या उठाई गई कि विश्व में सबसे कठिन काम क्या है तो उत्तर मिला - अपनी पहचान. अंतिम प्रश्न था दुनिया में सबसे अधिक गतिशील क्या है ? दार्शनिक ने कहा - विचार .
माना जाता है कि यदि हम अच्छा सोचेंगे तो हमारी जिंदगी भी अच्छी गुजरेगी
वस्तुतः विचार सबसे अधिक गतिशील होता है. आजकल बात होती है पास्ट ट्रेवल की, फ्यूचर ट्रेवल की. दरअसल मन का कार्य है स्मृति (पास्ट), चिंतन (प्रेजेंट) और कल्पना (फ्यूचर). इस सोचने की , सतत चिंतन की प्रक्रिया में मन एक क्षण में ही कहीं का कहीं पहुंच जाता है. फिर सामान्य आदमी का मन किसी एक आलम्बन पर स्थिर नहीं रहता, वह चंचल है, व्यग्र है, विचरणशील है.
श्रीमद्भागवत गीता में अर्जुन और श्रीकृष्ण के संवाद की बानगी देखिये -
चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्.
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्. .
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्.
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्येते..
हे श्रीकृष्ण! यह मन बड़ा चंचल, प्रमथन स्वभाव वाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है. इसलिए उसको वश में करना मैं वायु को रोकने की भांति अत्यन्त दुष्कर मानता हूं . श्रीभगवान् बोले -- हे महाबाहो ! यह मन बड़ा चंचल है और इसका निग्रह करना भी बड़ा कठिन है... यह तुम्हारा कहना बिलकुल ठीक है. परन्तु हे कुंती नंदन. अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इसका निग्रह किया जाता है. बहुधा देखा जाता है कि आदमी मन की बैसाखी के सहारे ही चलता है और यही आलम्बन कभी कभी उसके लिए खतरे की घंटी भी बन जाता है. सही मायने में मन की चंचलता से मनुष्य व्यथित है. कबीर का दोहा स्मरण हो आता है -
माया मरी ना मन मरा, मर मर गया शरीर .
आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर ॥
माया हैं दो भान्त की, देखो हो कर बजाई .
एक मिलावे राम सों, एक नरक लेई जाए ॥
कहीं पढ़ा जिसमें मन को निकृष्ट और हेय बताया गया है लेकिन ऐसी सोच एकपक्षीय है. दूसरी द्द्ष्टि से विचार करें तो मन अच्छा भी है आखिर मन से ही भगवान् का स्मरण किया जाता है. मन ही तो है जिसमें किसी के हित का भी विचार आता है. मन ही तो है जिसके द्वारा समस्याओं का समाधान सूझता है. कुल मिलाकर मन हमारा नौकर है लेकिन कभी कभी नौकर मालिक को परेशान भी कर देता है. और जरूरत इसी बात की है कि मन रूपी नौकर वश में रहे, संयत रहे. तो मन को संस्कारी कैसे बनाया जाए? उसे कैसे अच्छी सोच में नियोजित किया जाए?
प्रशस्त सोच के लिए आवश्यक है चिंतन सीमा में बंधे. मनुष्य निष्प्रयोजन ही सोचता रहता है. लक्ष्य प्रतिबद्ध होकर आदमी सोचे तो बात समझ में आती है पर बिना ही प्रयोजन दिमाग में विचारों की उधेड़बुन चलती रहती है. आदमी सोता है विश्राम के लिए पर सोते समय दिमाग को खाली करके नहीं सोता. टीवी सीरियल की तरह विचारों के प्रतिबिंब उभरते रहते हैं. आदमी पूरी और गहरी नींद नहीं ले पाता और वह अनिद्रा का शिकार हो जाता है.
खाना खाते समय भी मन स्मृति और कल्पना दोनों के साथ उड़ान भरता रहता है. फलतः क्या खाया ? कितना खाया अथवा खाया या नहीं ? कभी कभी यह भी भान नहीं रहता. आदमी चलता है. चलते समय भी विचारों का परवाह नहीं रुकता. कभी कभी तो आदमी विचारों में इतना खो जाता है कि उसका गंतव्य ही छूट जाता है और वह दूसरे मार्ग पर चल पड़ता है.
यह सत्य है कि सामान्य व्यक्ति सर्वथा चिंतनमुक्त नहीं हो सकता पर वह एक सीमा रेखा तो खींच ही सकता है. हालांकि समस्या के समाधान के लिए और नए सृजन के लिए चिंतन करना अपेक्षित भी है पर चिंतन कब करना. कितना करना. कैसे करना ? यह विवेक भी आवश्यक है. मस्तिष्कीय ज्ञान तंतुओं को क्रियाशील और सक्षम बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि आदमी उतना ही सोचे जितना आवश्यक है. जिस समय जो क्रिया करे मन उसी में लीन रहे.
दूसरा स्टेप है निज के हित का चिंतन! ऐसा चिंतन हो कि स्वयं का भला तो हो, दूसरों का भी भला हो! दूसरों के बारे में गलत चिंतन करने से सामने वाले का नुक़सान हो या ना हो , स्वयं का तो अहित होता ही है.
तेरा मंगल मेरा मंगल सब का मंगल होये रे,
अंतर मन की गांठ ये टूटे अंतर निर्मल होये रे,
शुद्ध धर्म धरती पर जागे पाप पराजित होये रे,
इस धरती के तर दिन में कण कण में धर्म समाये रे,
तेरा मंगल मेरा मंगल सबका मंगल होये रे !
इसी संदर्भ में एक लोक कथा याद आती है जिसकी मोरल ऑफ़ स्टोरी बात करें तो जब भी हम दूसरों का बुरा चाहते है उसका दुगुना हमारे साथ बुरा होता है. इसलिए हमे सब के लिए अच्छा ही सोचना चाहिए ताकि हमारे साथ भी सब अच्छा हो. लेकिन स्वभाववाश एक ही स्थिति में दो लोग अलग-अलग तरह से काम करते हैं. यह किस तरह स्थितियों का सामना करते हैं उसी से हमारी पहचान बनती है. जब हम दूसरे की सफलता का जश्न नहीं मना पाते हैं तो हमारे भीतर ईर्ष्या पैदा होती ही है.
जब किसी से हमारी गैरवाजिब तुलना की जाती है तो भी जलन होती है. एक व्यक्ति प्रार्थना करता है, 'हे भगवान, मेरी कामनाओं को पूरा कर; मैं हमेशा तेरे आगे सर झुकाऊंगा.' भगवान कहते हैं, 'मैं जितना तेरी इच्छाओं को पूरा करूंगा उतना ही तू नाराज होता जाएगा. अपने आपको बदलने की तरफ ध्यान दो बजाय कि अपनी कामनाओं को पूरा करने के.'
लेकिन वह आदमी बार-बार आग्रह करता है और तब भगवान कहते हैं, 'मैं तुम्हारी इच्छाएं पूरी कर दूंगा लेकिन एक शर्त है कि तुम्हें जो कुछ भी मिलेगा उसका दुगुना पूरे शहर को मिलेगा.' वह व्यक्ति राजी हो जाता है. वह व्यक्ति एक बड़े मकान की ख्वाहिश करता है और अगले ही क्षण उसका यह मकान पूरा हो जाता है. लेकिन यह प्रसन्नाता गायब हो जाती है जब वह देखता है कि उसके पड़ोसी के पास उस तरह के दो मकान हैं. इससे उसके भीतर गुस्सा और जलन पैदा होती है.
उसे लगता है कि उसने भगवान को प्रसन्न किया और जो वरदान मिला उसका फायदा सभी ले रहे हैं. वह सभी को सबक सिखाने का निर्णय लेता है. वह फिर से प्रार्थना करता है और भगवान से कहता है, 'हे, भगवान मेरी एक आंख छीन ले." तभी उसने पाया कि उसके पड़ोसी की दोनों आंखें चली गई हैं. इसके अगले दिन उसने पाया कि पूरे शहर के साथ ऐसा ही हुआ है. अब वह अकेला रह गया. पूरे शहर की आंखों की रोशनी छीन लेने का उसका उत्साह उसी पर भारी पड़ा.
फिर भारतीय संस्कृति का तो महत्वपूर्ण संदेश है -
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः. सर्वे सन्तु निरामयाः.
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु. मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत..
जीवन में अनेक समस्याएं आ सकती है. समस्याओं से घबड़ाकर भागना पलायन है. समस्याओं की स्थिति में निराश हो जाना कायरता है. व्यक्ति सोचे समस्याएं सबक सिखाने के लिए आती है, इसलिए उन्हें प्रकृति का उपहार समझकर चिंतन को अवसर देना चाहिए. 'जो होता है वह अच्छे के लिए होता है' ऐसी सोच ही व्यक्ति को सफलता दिलाती है. उदाहरण के लिए एक व्यापारी को लें . वह व्यापार करता है.
व्यापार करने से पूर्व वह सोचता है कि मैं व्यवसाय कहां करूं? किस वस्तु का करूं ? किसके साथ करूं? यह योजना बनाना उसका कर्तव्य है. यह 'करना' हुआ. चिन्तनपूर्वक व्यापार आरंभ कर दिया. व्यापार शुरू करने के बाद घाटा - मुनाफा जो भी होता है , वह 'होना' है, करना नहीं है. जो हुआ है वह अच्छे के लिए ही हुआ है. यह विचार व्यक्ति को जीवन की नई दिशा देता हुआ उसके वर्तमान पथ को आलोकित करता है.
और अंत में महत्वपूर्ण है यथार्थ चिंतन ! कुछ लोग कल्पनाप्रिय होते हैं. गगनचुंबी योजना बनाते हैं पर क्रियान्वन के लिए उनके पास कोई ठोस जमीन नहीं होती. ऐसे व्यक्ति प्रथम तो किसी कार्य को शुरू करते ही नहीं. यदि कर भी देते हैं तो उसे पूर्णता नहीं प्रदान कर सकते. आजकल प्रबंधन की चर्चा है, समयबद्ध कार्य करने की महत्ता है. आप कोई भी योजना बनाएं, निर्धारित समय सीमा के भीतर उसे पूर्ण करने का लक्ष्य होना चाहिए. अन्यथा कार्य में होने वाला विलंब असंतुष्टि का कारण बनता है.
एक बात और, मनुष्य विचार करता है जिनके अच्छे और बुरे होने का दारोमदार स्थूल मन के भावों पर होता है. भाव अशुद्ध है तो मन कैसे शुद्ध होगा ? और मन शुद्ध नहीं होगा तो विचार शुद्ध कहां से आएगा ? अतः अपेक्षा है भाव शुद्धि की! प्रशस्त सोच या कहें ब्रॉड थिंकिंग से भाव शुद्ध बनते हैं और भावशुद्धि से प्रशस्त सोच का निर्माण होता है. दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. कह सकते हैं एक दूसरे पर आश्रित हैं.
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