बेटियों का ये दुलार शहर से मेरे गाँव कब पहुंचेगा?
नए दौर में पढ़े-लिखे लोगों के बीच सोच बदली है, बेटियों का क्रेज तेजी से बढ़ा है. लोग बेटियों के लिए अच्छी से अच्छी शिक्षा, अच्छा से अच्छा माहौल, ढेर सारा प्यार मुहैया करवा रहे हैं.
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कुछ साल पहले की बात है. मेरे साथ दफ्तर में काम करने वाली एक लड़की जब एक लड़के की मां बनी तो ससुराल में खुशियां मनाई गईं, लेकिन वो लड़की उदास थी, क्योंकि वो बेटी चाहती थी, और हुआ बेटा. ये सिर्फ उस लड़की की ही चाहत नहीं थी, नए दौर में पढ़े-लिखे लोगों के बीच सोच बदली है, बेटियों का क्रेज तेजी से बढ़ा है.
अपने दफ्तर में मैंने तमाम लड़कियों को बेटी की मां बनने का सपना देखते हुए पाया है. हमारी सहकर्मी और मित्र किरन झा शादी के एक दशक के बाद मां बनीं थीं, लेकिन उनकी और उनके पति दोनों की तमन्ना थी कि बेटी हो. खैर उनके घर बेटा हुआ, जो भी ईश्वर के आदेश के अनुरूप आया, खुशियों का भंडार लिए आया.
आज की माताएं बेटियां चाहती हैं |
हमारे चैनल में साथ काम करने वाली श्वेता, श्रुति और सुगंधा समेत कई लड़कियां बेटियों वाली गौरवान्वित माताएं हैं, बेटियां इनकी चाहत थीं और बेटियां अब इनकी जिंदगी हैं. सिर्फ एक बेटी वाले इतने सारे दंपतियों को मैं जानता हूं, जिन्होंने दूसरी संतान की न तो कोशिश की और न ही कल्पना. मेरे एक मित्र पहली संतान बेटी चाहते थे, उनकी इच्छा पूरी हो गई. इसके बाद भी मियां बीवी अगली संतान के रूप में बेटी ही चाहते थे, संयोग से उनके घर दूसरी बेटी ने जन्म लिया. दोनों मियां-बीवी बेहद खुश हैं, अलबत्ता घर का चिराग न मिल पाने के नाते हमारे मित्र की मां उनसे नाराज हैं. तीसरे बच्चे की फरमाइश कर रही हैं, जो पूरी होने वाली नहीं है.
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लोग बेटियों को बेटे से कम नहीं मानते |
गांवों और कस्बों में जहां घर के चिराग के रूप में बेटे की चाहत की परंपरा चरमराई नहीं है, वहीं महानगरीय जीवन में बेटियों के प्रति आग्रह एक खुशनुमा सच बनकर आया है. लोग बेटियों के लिए अच्छी से अच्छी शिक्षा, अच्छा से अच्छा माहौल, ढेर सारा प्यार मुहैया करवा रहे हैं. ये सोच अगर यहां तक पहुंची है, तो इसके पीछे पढ़ी-लिखी बेटियों की सबसे बड़ी भूमिका है.
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बेटे-बेटियों का भेद तो इस समाज का सबसे बड़ा सच रहा है. जहां बेटे को घी, मलाई, खीर, पूआ, वहीं लड़की के लिए बेटे से बची जूठी थाली. बेटे को बिस्तर पर पानी का गिलास मिलेगा, बेटी को घर में झाड़ू मारना पड़ेगा. बेटा हर जतन करने के बाद भी पढ़ाई से जी चुराएगा और उसी उमर में बेटी को सिलाई कढ़ाई, खाना बनाना, झाड़ू पोंछा करना, अपने भाई का बैग लगाना सिखाया जाएगा. बेटी पढ़ेगी तो चोरी छिपे. इसके बावजूद तमाम घरों के चिराग फेल हो जाते रहे, लड़कियां फर्स्ट क्लास में पास होती रहीं. किसी भी परीक्षा के रिजल्ट वाले दिन अखबारों की अनिवार्य हेडिंग बरसों से नहीं बदली-'इम्तिहान में लड़कियों ने फिर बाजी मारी'.
पढ़ाई में लड़कों से अव्वल रहती हैं लड़कियां |
लड़कियां बाजी मारती रहीं, लेकिन चूल्हे चौके में झोंकी जाती रहीं. पति का हुक्म बजाने के लिए मजबूर होती रहीं. 'सकल ताड़ना की अधिकारी' बनकर भी चुप रहीं. उन्हीं बेटियों में से कुछ आगे बढ़ीं तो बेटियों की चाहत करके बेटी को वैसे पाला, जैसा पालन-पोषण खुद उनका नहीं हुआ.
बेटियों के प्रति समाज की धारणा पुरुषवादी मानसिकता का परिणाम नहीं है. अपने आसपास नजरें दौड़ाइये, पुरानी बातें याद कीजिए. घर में बेटी पैदा होने पर सबसे ज्यादा मुंह सूजा होता था, जन्म देने वाली मां की सास, बुआ, चाची का. नौकर चाकर भी नाराज, क्योंकि बेटी हुई है तो नेग-न्योछावर (उपहार) मिलना नहीं है. ज्यादातर मामलों में बहू को बेटा न जनने का ताना उसके ससुर ने नहीं, उसकी सास ने दिया है, देवरों ने नहीं, ननदों ने दिया है.
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खैर....बेटियों को लेकर महानगरीय इलाकों में जो धारणा बदली है, उसके पीछे सबसे बड़ी वजह है शिक्षा. शिक्षा ने बेटे-बेटी का भेद न सिर्फ मिटाया है, बल्कि बेटियों को वरदान बनाया है. एक मां के भीतर हमेशा बेटी की चाहत होती है, ये मैंने बड़े करीब से देखा है. जिसका इकलौता बेटा हो, उस मां को कई बार मैंने अपने बेटे को फ्रॉक, पहनाते, होठों पर लिपिस्टिक और माथे पर बिंदी लगाते देखा है. थोड़ी ही देर के लिए वो अपने बेटे में बेटी का अक्स देखकर खुश हो लेती हैं. कई महिलाएं प्यार में अपने बेटे को बेटी बुला लेती हैं, तो बेटी को बेटा बुलाने का प्रचलन भी तेजी से बढ़ा है. मेरी पत्नी खुद ऐसा करती है.
बेटियों के प्रति समाज की सोच बदल रही है |
शादी के बरसों पहले से ही मुझे सिर्फ एक बेटी का पिता बनने का क्रेज था. इलाहाबाद में जिसके साथ शादी का सपना देख रहा था, एक दिन उसी से बहस हो गई, वो चाहती थी बेटा और मैं चाहता था बेटी. बहस झगड़े में बदल गई. दोनों तरफ मुंह सूज गया, मैंने उससे कहा-हम लोग गलत विषय पर लड़ रहे हैं, इस बात पर तुम्हारा ध्यान नहीं गया कि अभी हमारी शादी नहीं हुई है. खैर वहां शादी भी नहीं हुई, लेकिन बेटी का पिता बनने की तमन्ना बरकरार रही. शादी से पहले ही बेटी का नाम भी सोच लिया था- समन्वया. दरअसल आईआईएमसी में हमारे साथ अंग्रेजी पत्रकारिता में एक लड़की पढ़ती थी समन्वया राउतराय. उसका नाम मुझे बहुत अच्छा लगता था. बहरहाल मेरे यहां बेटे का जन्म हुआ, ये भी तय था कि एक ही संतान रहेगी. फिर क्या नाम रख दिया-समन्वय.
बेटियों के प्रति समाज की इस बदलती सोच को मैं सलाम करता हूं. शहर से गांवों में ढेर सारी गंदगियां गई हैं, लेकिन मैं चाहता हूं कि बेटियों से जुड़ी ये अच्छाई शहरों से गांवों की तरफ जाए, तेजी से जाए. बेटों का वर्चस्व टूटे. शादी के लिए सिर्फ लड़के ही लड़कियों को रिजेक्ट और सेलेक्ट न करें, बल्कि लड़कियों को भी सेलेक्ट और रिजेक्ट करने का अधिकार मिले.
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