मदरसों के मामले में सार्थक बहस जरूरी है
मदरसों को स्कूल के रूप में मान्यता नहीं देने के महाराष्ट्र सरकार के फैसले ने नया सियासी बवाल खड़ा कर दिया है. साथ ही हमें एक सार्थक बहस का मौका भी दिया है.
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मदरसों को स्कूल के रूप में मान्यता नहीं देने के महाराष्ट्र सरकार के फैसले ने नया सियासी बवाल खड़ा कर दिया है. साथ ही हमें एक सार्थक बहस का मौका भी दिया है. सवाल है कि प्राथमिक शिक्षा और धर्म को इसमें अपनी भूमिका निभानी चहिए या नही. क्या सरकार अब स्कूलों में धार्मिक विचारों पर पूरी तरह से रोक लगा देगी? क्या यह फैसला मदरसों से भी आगे जाएगा. मुझे संदेह है कि दो हिंदू पार्टियों की महाराष्ट्र सरकार कभी ऐसा करेगी. सरकार ने केवल उन गैर-स्कूलों को मान्यता देने पर रोक लगाई है जहां गणित, विज्ञान और समाज शास्त्र की पढ़ाई नहीं होती. अगर ऐसा है तो, उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि सभी मदरसे एक जैसे नहीं होते. ऐसे मदरसे भी हैं जो धार्मिक शिक्षा देने के साथ-साथ सभी विषयों की पढ़ाई भी कराते हैं. ऐसी संस्थाओं को मान्याता नहीं देना बेशक अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थाओं की आजादी का हनन होगा.
राष्ट्रीय स्तर के आधारभूत पाठ्यक्रम का अनुसरण नहीं करने वाली संस्थाओं को स्कूल नहीं कहा जा सकता. सभी बच्चों को शिक्षा का अधिकार है. धार्मिक शिक्षा भी मौलिक अधिकार है लेकिन यह शिक्षा नहीं. महाराष्ट्र में 2000 ऐसे संस्थानों में करीब 1.5 लाख बच्चे पढ़ते हैं. महाराष्ट्र सरकार एक सर्वे करा रही है जिससे उन मदरसों की पहचान हो सके जहां जरूरी विषयों को नहीं पढ़ाया जाता. जहां सभी विषयों की पढ़ाई होती है, वे मदरसे सरकारी अनुदान के योग्य होंगे.
यह बेहद संवेदनशील मुद्दा है. इसलिए राज्य सरकार को ज्यादा चौकस रहना होगा. सरकार की मंशा पहले ही सवालों के घेरे में है. ऐसे में सरकार का जबरन आधुनिक शिक्षा खराब संदेश होगी और उसकी आलोचना की जानी चाहिए. अब जरूरत इस बात की भी है कि शिक्षा के रूप में धार्मिक विचारों के स्वांग को खत्म किया जाए. सभी धार्मिक ग्रंथों को एक साथ रख देने से भी वे गणित या विज्ञान की जगह नहीं ले सकते. वैज्ञानिक सोच की कमी हमारे आर्थिक और सामाजिक विकास में बड़ी बाधा है. बुनियादी शिक्षा के बाद चाहे तो कोई भी धार्मिक शिक्षा या पौराणिक चीजों में अपना करिअर आगे बढ़ा सकता है.
राजनीति
ऑल इंडिया मज्लिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमन (AIMIM's) के असदुद्दीन ओवैसी ने पहले ही इस कदम को अल्पसंख्यकों की आजादी का हनन करार दे दिया है. वह यह भूल जाते हैं शिक्षा हासिल नहीं करना, अधिकार नहीं है. ओवैसी ने खुद हैदराबाद पब्लिक स्कूल से शिक्षा ली और फिर आगे की पढ़ाई के लिए वह यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन चले गए. उनके भाई ने भी ऐसा ही किया. उनके बच्चे मदरसे इसलिए नहीं जाते क्योंकि वे उनका भविष्य उज्जवल बनाना चाहते हैं. हर बच्चे को इसका अधिकार है. बड़े होने पर वह बच्चा खुद यह फैसला कर सकता है उसे किस क्षेत्र में आगे बढ़ना है. मदरसा या किसी भी धर्म से जुड़े इस प्रकार के संस्थान इस लिहाज से उसके करियर में खास मदद नहीं कर सकते.
पाकिस्तान के सूचना मंत्री परवेज राशिद ने एक बार अपनी संसद में मदरसों को 'अज्ञानता और निरक्षरता' का केंद्र बताया था. यह बात उन्होंने उस देश के संसद में कही, जो विश्व का पहला ऐसा देश है, जिसका निर्माण इस्लाम के नाम पर हुआ. पाकिस्तान में मदरसे एक बड़ी समस्या बन चुके हैं. कुछ लोग पढ़ाने के अलावा और भी कामों में संलिप्त रहते हैं. भारत में कम से कम वैसे मदरसे नहीं हैं जैसे की हमारे पड़ोस में हैं. हमारे मदरसे मुख्य रूप से धार्मिक शिक्षा ही दे रहे हैं. इनके कई छात्र समाज के कमजोर वर्गों से आते हैं. लेकिन दिक्कत यह है कि जब ये बच्चे इस तरह के संस्थानों से बाहर आते हैं तो अन्य स्कूली छात्रों से काफी पिछड़ जाते हैं. सभी मदरसों के लिए ऐसा कहना सही नहीं होगा लेकिन ज्यादातर में हालात ऐसे ही हैं.
साहस
क्या सरकार सभी धर्मों से जुड़े ऐसे स्कूलों की व्यवस्था खत्म कर सकती है. क्योंकि ऐसे ज्यादातर संस्थानों में धर्म के आदर की बात तो होती है लेकिन मान्य पाठ्यक्रम नहीं होता. इसे खत्म किया जाना चाहिए. बच्चे घर पर अपने दादा-दादी से धार्मिक शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं. सरकारी स्कूलों में होने वाली पूजा और आरती वगैरह को भी खत्म किया जाना चाहिए. मदरसों जैसी अन्य संस्थाएं भी अतिरिक्त विषय के रूप में धार्मिक शिक्षा दे सकती हैं. साथ ही इस शिक्षा को ज्यादा धर्मनिरपेक्ष तरीके से दिया जाना चाहिए. अगर हम चाहते हैं कि हमारा देश वैज्ञानिक सोच के साथ आगे बढ़े तो धर्म को स्कूलों से दूर रखना होगा. लेकिन इसके लिए संविधान में संशोधन की जरूरत है.
शिक्षा
धर्म स्कूल को धर्मनिरपेक्ष नहीं बल्कि सांप्रदायिक बनाता है. लेकिन हमने इसी के साथ जीना सीख लिया है. हमने रोजमर्रा की जिंदगी में धर्म के दखल को स्वीकार कर लिया है. बच्चे स्कूलों में कई परी कथाएं सुनते हैं. लेकिन जैसे ही बातों की शुरुआत 'एक बार की बात है' से होती है, उन्हें लगता है कि यह तो बस कहानियां हैं. धर्म के साथ ऐसा नहीं कहा जा सकता. धर्म की बातें उनके दिमाग में इतने शुरुआती दौर में ही भरी जाने लगती हैं कि वे सवाल करना भूल जाते हैं. जैसा किसी धर्म में बताया गया है, वे उसी आधार पर अच्छे और बुरे का फर्क करने लगते हैं. मानवता से ज्यादा महत्वपूर्ण अब धर्म हो गया है. इसलिए इसे बचाने की जद्दोजहद ज्यादा होने लगी है. यह विचार की कोई विचार ऐसा भी है, जिसके बारे में प्रश्न नहीं पूछे जा सकते, खतरनाक है. ऐसे में राजनैतिक हितों के लिए इसका इस्तेमाल ज्यादा आसान हो जाता है. और हम अब इस बात से हैरान हैं कि हमारे समाज का तानाबाना क्यूं दिन-प्रतिदिन टूटता जा रहा है.
जब आप अपने बच्चे की सोच को किसी एक अवधारणा की ओर मोड़ते हैं, तो सोचिएगा आप अपने बच्चे को बड़े होने के बाद कैसा बनते हुए देखना चाहते हैं? इस राष्ट्र को अब और परिपक्व होने की जरूरत है.
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