बस यहीं ममता का बाजारीकरण जीत जाता है...
मातृ-दिवस को भी हम एक उत्सव ही मान सेलिब्रेट करें. खुशियां मनाने के लिए एक हजार एक कारण भी कम हैं.
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विदेशों से होती हुई एक बहुत सुंदर परंपरा हमारे देश की संस्कृति से घुलमिल कर एक बेहतरीन रूप में मनाई जाने लगी है, ‘मदर्स-डे’ या देसी बोली में मातृ दिवस. छोटे-छोटे बच्चे भी अपनी मां के गले लग ‘हैप्पी मदर्स-डे’ बोलते हैं. नौजवान और कमाने वाली पीढ़ी भी दिवस विशेष की खुशी किसी न किसी रूप में प्रकट करने का प्रयास करती है. कोई मां को उपहार देता है तो कोई कार्ड और फूल. और तो और वो बुढ़ाती हुई पीढ़ी जिन्होंने अपने बचपन में इस स्पेशल डे का जिक्र भी नहीं सुना था वो भी पीछे नहीं रहती है इस दिन को एक त्यौहार का रंग देने में. मां को विभिन्न तरीके से धन्यवाद बोलते, जाने कितने सारे विडियो अभी दिखने लगते हैं. सोशल मिडिया पट जाती है लव यू मां के पोस्ट्स से. अच्छा लगता है, एक नारी को उसके मातृत्व को सम्मान देना वह भी उसके बच्चों के द्वारा.
मदर्स डे ग्राफटन वेस्ट वर्जिनिया में एना जॉर्विस द्वारा समस्त माताओं और उनके गौरवमयी मातृत्व के लिए तथा विशेष रूप से पारिवारिक और उनके परस्पर संबंधों को सम्मान देने के लिए 1908 में आरंभ किया गया था. 1905 में अपनी मां की मृत्यु के पश्चात् उसे महसूस हुआ कि एक दिन उस व्यक्ति के नाम से उसे इज्जत देने के लिए मनाया जाना चाहिए जिसने उन्हें जन्म दिया है और पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा उनका ही उपकार है उनपर. 1920 आते आते हॉलमार्क सहित कार्ड बेचने वाली दूसरी कंपनियां मदर डे के कार्ड बेचने लगीं.
मदर्स डे की शुरुआत करने वाली एना जॉर्विस
जोर्विस ने इस स्नेहिल और संवेदनशील दिवस को व्यावसायिक बनाने का पुरजोर विरोध किया. उसका कहना था कि इसके बाजारीकरण से इसको शुरू करने का मकसद गलत दिशा में चला जायेगा. जो खुशबु और स्नेह हाथ के लिखे कार्ड में होगी वह खरीदे हुई कार्ड्स में नदारद होगी. खरीदे हुए गिफ्ट्स देने की जगह अपनी जन्मदात्री को एक दिन अपना सम्पूर्ण वक्त और स्नेह दिया जाना ही इस दिवस का मंतव्य है. पर ‘मदर्स-डे’ की जन्मदात्री ऐना जार्विस को ही गलत ठहराया गया और इस दिवस को बाजार ने खूब भूनाया.
एक से एक संवेदनशील शब्दों से सजे कार्ड्स बाजार में बिकते रहे. ये इसके कुशल व्यवसायीकरण का ही नतीजा है कि आज सौ वर्षों से अधिक वक्त गुजरने के बाद भी सम्पूर्ण विश्व में इस दिवस की प्रासंगिगता बनी हुई है. उस देश में भी जहां धरती, देश, पशु, भगवान, नदी सभी को मां ही कहा जाता है.
एक से एक मर्मस्पर्शी विडियो और ऐड से टीवी, पत्रिकाएं और इन्टरनेट भरे पड़ें हैं जो बताते हैं कि अपनी मां को कैसे प्यार किया जाये. कभी कोई फर्नीचर बेचने वाली कंपनी सिखाती है तो कभी कोई घडी बेचने वाली. बार बार इन्हें देखते देखते बन्दा अपना जेब टटोलने ही लगता है कि कितनी औकात है उसकी मां के प्रति स्नेह प्रदर्शित करने की. कहीं ऐसा ना हो जाये कि बड़ा भाई उससे महंगी वाली गिफ्ट मां को दे जीत न जाए. और बस यहीं ममता का बाजारीकरण जीत जाता है.
'मां' क्या कोई दूसरी धरती से आई प्राणी है जो इसी दिन धरती पर अवतरित होती है या मां को इस खास दिन को ही बच्चों की जरुरत होती है? मां तो एक शाश्वत सत्य है. भगवान का एहसास दिलाती हुई हमारी सृष्टिकर्ता है. हमारी हर सांस हर दिन मां का ही दिया उपहार है. त्यौहार मनाना तो हमारी परंपरा है. कभी धान काटने की खुशी में तो कभी राम के अयोध्या लौटने की खुशी में. मातृ-दिवस को भी हम एक उत्सव ही मान सेलिब्रेट करें. खुशियां मनाने के लिए एक हजार एक कारण भी कम हैं. न हम कभी अपने जन्मदात्री का एहसान चुका सकते हैं और न कभी हम उसके ऋण से उऋण हो सकते हैं. कर सकते हैं तो एक वादा कि मां तुम्हारी देखभाल मेरी जिम्मेदारी और इस वादे को निभाने की भरपूर नीयत रखना ही इस दिन की सार्थकता होगी.
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