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 |  एक अलग नज़रिया बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 09 जुलाई, 2021 10:10 PM
ज्योति गुप्ता
ज्योति गुप्ता
  @jyoti.gupta.01
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जोड़ियां तो भगवान के घर से बनकर आती हैं. परिवार या रिश्तेदार इसी बात की आड़ लेकर घर के लड़के की शादी तय करते चले आए. शादी का इश्तेहार देना खराब माना जाता था. समझा जाता था कि शादी नहीं हो रही है शायद. लेकिन, जब लड़के और उनके परिवारों की अपनी पसंद को लेकर महत्वाकांक्षा बढ़ी तो अखबारों में वैवाहिकी के पन्ने बढ़ते चले गए. लेकिन, इन विज्ञापनों की भाषा भी हमेशा उसी सामाजिक सोच का दर्शाती रही, जिसमें संकीर्ण रूढीवादिता हावी थी. दौर बदला, तो इन विज्ञापनों की भाषा भी.

शादी के लिए पहले लोग अखबार में इश्तेहार देते थे. वहीं अब सोशल मीडिया के जमाने में कई सारी ऐसी शादी की मेट्रोमोनियल साइट मौजूद हैं. जहां पर लोग यह बताते हैं कि उन्हें किस तरह की वधू या वर चाहिए. 70 के दशक में पहले जब लोग शादी कराने वाले बिचौलिए के पास जाते थे तब भी उसे बता देते थे कि किन-किन गुणों वाली वधू चाहिए. वर कैसा चाहिए, ये कहां लड़कियों से पूछा जाता था. उस समय कहां लड़कियों को अपना जीवनसाथी चुनने का अधिकार था. कई घरों में आज भी जीवनसाथी चुनने का अधिकार लड़कियों को नहीं है. समय के साथ लोग थोड़ा बहुत बदले, जिनमें दहेज मांगने का तरीका बदला. कई लोग सिंपल शादी करने लगे, गे दूल्हे की भी तलाश की गई लेकिन दुल्हन आज भी आदर्श चाहिए.

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इस समय आदर्श बहू का पैमाना क्या है

सबसे पहली बात कि लड़की गोरी होनी चाहिए, बच्चे पालने में माहिर होनी चाहिए, अच्छी बढ़िया कुक होनी चाहिए, अमीर होनी चाहिए. असल में कुछ महीनों पहले एक शादी का इश्तेहार वायरल हुआ था, जिसमें इन गुणों को बिहार का एक व्यक्ति अपनी होने वाली पत्नी में तलाश रहा था. एक पुरानी फिल्म का एक दृश्य है जब हीरो अपनी प्रेमिका को अपनी घर ले जाता है तो उस घऱ की महिला पूछती है, मैं इसकी डिग्री नहीं जानना चाहती मैं यह जानना चाहती हूं कि ये घर के काम जानती है या नहीं...कहने को तो यह छोटा सा दृश्य है लेकिन लोग बहू के बारे में क्या सोच रखते हैं.

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लोगों को अपनी ही जाति में शादी करनी होती है लेकिन होने वाली दुल्हन में सारी खूबियां होनी चाहिए. अब आप बताइए किसी इंसान में कोई कमी ना हो, यह कैसे हो सकता है. 2018 में हुए एक अध्ययन में पता चला कि दुल्हन बनने की चाह रखने वाली 31 प्रतिशत लड़कियों और सेहरा पहनने की चाह रखने वाले 41 प्रतिशत लड़कों ने अपनी जाति में विवाह करने की शर्त रखी थी.

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वहीं शादी करने वाले 90 प्रतिशत लड़के यह चाहते थे कि उनकी होने वाली संगिनी गोरी हो. इसलिए तो भारत में फेयरनेस क्रीम का व्यवसाय दुनिया के बाजारों में से एक है. नए दौर के फिल्म टशन का गाना “ वाइट वाइट फेस ढेके दिल वह बीटिंग फस्ट ससुरा जान से मारे रे’ हो फिर पुराने दौर का “गोरे-गोरे मुखड़े पर काला-काला चश्मा”...लोग अपनी प्रेमिका को गोरे रूप में ही देखना चाहते हैं.

पॉप संस्कृति में भी ये सांस्कृतिक जूनून देखने को मिलता है. टीवी सीरियल हो या फिल्म दोनों ही उसी आदर्श बहू के रूढ़िवादी सोच को बढावा देते हैं...जिसका विज्ञापन बिहार के उस लड़के ने अपनी मेट्रोमोनियल ऐड में दिया था. आपको नहीं लगता कि शादी के नाम पर कोई अभी भी फिरकी ले रहा है.

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भारत में कई अरेंज मैरिज की शुरुआत अक्सर एक मेट्रोमोनियल ऐड के साथ होती है जिसमें संभावित होने वाले जीवन साथी में होने वाले गुण के बारे में एक-एक करके बताया गया होता है. समय के साथ क्या इन इश्तेहारों में क्या-क्या बदला है, आज हम इस बारे में आपको बताते हैं. जिनमें लड़की के वर्जिन होने से लेकर, घर के बाहर जींस ना पहनने और नारीवादी ना होने की बात कही गई है.

70 के दशक कैसे होते थे शादी के इश्तेहार

क्या आपने कभी किसी अखबार में वैवाहिक विज्ञापन के कॉलम देखे हैं? इन्हें देखने के बाद यही लगेगा कि अरेंज्ड मैरिज कहने के लिए आत्माओं का मिलन होता है, जो दो लोगों को प्यार के बंधन में बांधती लेकिन असल में ऐसा होता नहीं है. 70 के दशक में शादी के विज्ञापनों में जातिवाद, पितृसत्ता, लिंगवाद सबकुछ पाएंगे. जिनका जिक्र बडे ही साफ शब्दों में किया जाता था.

इस जमाने में महिलाओं की शिक्षा कोई खास महत्व नहीं रखती थीं लेकिन शादी करने के लिए घर संभालना अच्छी तरह जरूरी था. साथ ही बच्चे संभालना आना चाहिए क्योंकि महिलाएं ही खानदान की पीढ़ी को आगे बढ़ती हैं.

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70 के दशक में अगर दुल्हन घर के काम करने में सक्षम है, तो परिवार उसे हरी झंडी दिखा देता था. अगर वह तर्क करने में सक्षम है तो फिर उसकी शादी में दिक्कतें आती थीं.

इस बात का अंदाजा आप ऐसे लगा सकते हैं कि 1970 के दशक में वैवाहिक विज्ञापनों ने दिल्ली विश्वविद्यालय के तहत संस्थानों से आने वाली लड़कियों के बारे में एक धारणा बना ली थीं कि उन्हें अपने विवाह के लिए आवेदन नहीं करना चाहिए. अपने मूल अधिकार की बात करने वाली छात्राओं को नारीवादी और राष्ट्रविरोधी कहा गया.

समाज को इन लड़कियों से खतरा महसूस होता था. लोगों को ना करने वाली लड़की हमेशा ही समाज के लिए बुरी होती है. जो उनके दायरे में फिट नहीं बैठती है. 70 के दशक में लड़की पतली और गोरी होनी चाहिए, लेकिन करियर के हिसाब से बहुत सफल या बहुत अधिक क्षमता वाली नहीं होनी चाहिए.

90 के दशक में क्या बदला

90 दशक के वैवाहिक विज्ञापनों के अनुसार कोई ब्राह्मण सुंदर लड़की की बात करता है तो कोई शाकाहारी लड़की की. यानी बढ़ते समय के साथ लोगों की महत्वाकांक्षा और बढ़ गई. लड़का बैंक में अधिकारी है तो होने वाली पत्नी भी बैंकर हो, लड़का डॉक्टर है तो लड़की भी डॉक्टर हो. किसी को कॉन्वेंट की पढ़ी शिक्षित लड़की चाहिए, लेकिन शर्त यह है कि वह शादी के बाद नौकरी ना करे.

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किसी को 25 साल से कम उम्र की लड़की चाहिए तो किसी को गेंहुए रंग की. एक बात सबमें एक तिहाई कॉमन थी कि लड़की "पत्नी कला" में माहिर होनी चाहिए. 70 के बाद 90 के दशक में एक चीज बदली मिली वह यह थी कि शादियों के विज्ञापनों में तलाकशुदा महिलाओं का आगमन होने लगा, वो भी इस पंक्ति के साथ कि तलाक में वह बेकसूर थी. शादी टूटने के पीछे इसकी कोई गलती नहीं थी. वहीं 90 के दशक में घर संभालने के साथ पार्टटाइम जॉब करने का भी ऑफर दिया जाने लगा था. जो शायद उनकी डिग्री से मैच भी नहीं करती थी.

एक विज्ञापन से इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं, जिसमें इस बात का जिक्र किया गया था कि एक संयुक्त परिवार में उच्च वर्ग के ब्राह्मण और उदार लड़के के लिए लड़की की जरूरत है. जिसे कम क्षमता और असफल करियर वाली पतली और गोरी लड़की चाहिए. उसके बाल बाल लंबे होने चाहिए. वह खाना पकाने और सभी पारिवारिक समारोहों में भी डांस भी कर सके. मिश्रा परिवार से जुड़ने के लिए अपनी प्रोफाइल भेजें. कई लोगों ने विज्ञापन में विदेश का लालच भी दिया. जिसमें भले लड़की जाति की हो लेकिन योग्य होनी चाहिए थी.

मद्रास में सैन फ्रांसिस्को में रहने वाला एक पंजाबी इंजीनियर ने "संगीत और नृत्य जानने वाली सुंदर और पतली दुल्हन” के लिए इश्तेहार दिया था. उसके पास एक अमेरिकी परमिट था, इसलिए उसने केवल अमीर और अच्छे घर की लड़कियों को ही आवेदन करने की बात कही थी."

तीनों दशक के शादी के इश्तेहार से यह तो समझ आ गया है कि घर की बहू ऐसी चाहिए जो खुद का दिमाग ना रखती हो. जो समाज, राजनीति, शिक्षा के किसी भी पहलू पर अपनी राय व्यक्त नहीं करती हो. आप यह सोच कर दुखी हो सकते हैं कि यह बात 21वीं सदी में भी लागू है, जहां लोग नारीवाद और महिलाओं की मुक्ति के बारे में आज भी अपने स्कूल के दिनों की बात करते हैं.

लोग भले ही सोशल मीडिया पर लड़कियों के अधिकारों के प्रति समर्थन दिखाते हैं लेकिन जब बात अपने बेटे की शादी की आती है तो वे इसी 'आदर्श बहू' के रूप में एक 'सुरक्षित' विकल्प चाहते हैं. समाज के हिसाब से महिलाओं को ससुराल के हर साचे में ढलने के लिए लचीला होना चाहिए.

लड़कियों से उम्मीदें यहीं तक नहीं रूकती बल्कि शादी के विज्ञापन में तो यह छपा था कि, भावी दुल्हन को भी "अत्यंत देशभक्त" होना चाहिए. जो भारत की "सैन्य और खेल क्षमताओं" को बढ़ाने के लिए "उत्सुक" रहे. इसके अलावा वह "दयालु और साथ ही साथ" बच्चे पालने में निपुण हो. लोगों को गर्लफ्रेंड तो मॉडर्न और आत्मनिर्भर चाहिए लेकिन शादी के लिए वो आदर्श लड़की चाहिए जो जिसका जिक्र इन विज्ञापनों में किया गया है. इतना तो समझ आ गया है कि एक आदर्श दुल्हन की तलाश सदियों से एक जैसी ही रही है.

लेखक

ज्योति गुप्ता ज्योति गुप्ता @jyoti.gupta.01

लेखक इंडिया टुडे डि़जिटल में पत्रकार हैं. जिन्हें महिला और सामाजिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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