Kalbe Sadiq Death : भारत ने खो दिया अपना दूसरा अब्दुल कलाम!
हिंदू-मुस्लिम एकता (Hindu Muslim Unity) के प्रतीक डॅा कल्बे सादिक का निधन (Dr Maulana Kalbe Sadiq Death) हो गया है. उनके व्यक्तित्व का अंदाज़ा यूं लगाया जा सकता है कि उनके आखिरी दीदार को कोरोना वायरस के खतरे के बावजूद एक भीड़ उमड़ पड़ी है. इस भीड़ में हर मज़हब हर जाति के लोग शामिल हैं, आखिर ये क्यों शामिल हैं इसकी वजह क्या है इसको भी आपको ज़रूर जानना चाहिए.
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'जहां रहेगा वहीं रौशनी लुटाएगा, किसी चिराग का अपना मकां नहीं होता'... प्रोफेसर वसीम बरेलवी का ये शेर हर उस शख्सियत के लिए है जिनका इंसानियत के ऊपर एहसान है. उत्तर प्रदेश के लखनऊ (Lucknow) शहर से आज एक ऐसी ही शख्सियत ने दुनिया को अलविदा कहा है जो अपने आप में एक बहुत बड़ी शख्सियत है. हम बात कर रहे हैं मुस्लिम पर्सनल लॅा बोर्ड के उपाध्यक्ष और शिया धर्मगुरू मौलाना कल्बे सादिक (Dr Maulana Kalbe Sadiq) की. मौलाना साहब दुनिया से कूच कर गए हैं उनके निधन पर केवल मुस्लिम समाज ही आंसू नहीं बहा रहा है बल्कि उनके निधन से हिंदू, सिख, ईसाई, पारसी सभी धर्म के लोग गमगीन हैं. और ऐसा इसलिए है कि डॉक्टर सादिक ने हर मज़हब के लोगों का दिल जीता है. आमतौर पर राज्य का राज्यपाल बनने या राज्यसभा सांसद बनने के लिए लोग खूब दांवपेंच आजमाते हैं, खूब रस्साकसी करते हैं लेकिन डॉक्टर सादिक ने इन दोनों ही प्रस्तावों को ठुकरा दिया था और कहा था कि अगर वह संवैधानिक पद पर आ गए तो आम लोगों से मिलना थोड़ा मुश्किल हो जाएगा और ऐसे में उनकी सेवा करने में भी परेशानी आएगी. मैं बिना किसी पद के लोगों की सेवा करते रहना चाहता हूं.
डॉ. सादिक अपने इस संकल्प पर पूरी तरह से अडिग रहे और अपनी पूरी ज़िंदगी को तीन प्रमुख उद्देश्य तक सीमित कर दिया. डॅा सादिक की ज़िंदगी के तीन प्रमुख उद्देश्यों में से पहला उद्देश्य था शिक्षा. डॉक्टर सादिक चाहते थे कि देश का हर बच्चा शिक्षित हो जाए अगर देश के बच्चे शिक्षित होंगे तो देश की तरक्की को कोई भी ताकत रोक नहीं सकती है. उनका दूसरा संकल्प था एकता की ओर कदम बढ़ाना, वह हिंदू मुस्लिम की एकता हो या फिर शिया-सुन्नी की एकता.
डॉक्टर मौलाना कल्बे सादिक की मौत से क्या हिंदू क्या मुस्लिम सभी दुखी हैं
डॉक्टर मौलाना कल्बे सादिक मुस्लिम धर्मगुरू ज़रूर थे लेकिन वह हिंदू धर्म के कई कार्यक्रमों में बराबर जाया करते थे और हिंदू धर्म की संस्कृति के बारे में वहां उपस्थित लोगों को बताया करते थे. उस कार्यक्रम में मौजूद लोग भी चौंक पड़ते थे कि एक मु्स्लिम धर्मगुरू गीता के श्लोक को कितना समझ रहा है और उसकी शिक्षा दे रहा है. कई बड़े बड़े साधू संत और पोप तक मौलाना कल्बे सादिक के मुरीद रहे हैं.
वह हिंदू मुस्लिम झगड़े के साथ साथ मुस्लिम धर्म में शिया-सुन्नी के झगड़े को भी खत्म करने के लिए लगातार कोशिश करते रहे औऱ उनको इसमें कुछ हद तक कामयाबी भी मिली. लखनऊ में शिया-सुन्नी कई जगहों पर ईद की नमाज़ साथ ही पढ़ते हैं. ये मौलाना की ही कोशिश थी जिसके चलते आज शिया-सुन्नी के झगड़ों में कमी आयी है.
डॉक्टर सादिक की ज़िंदगी का तीसरा संकल्प था अच्छी स्वास्थ्य व्यवस्था. मौलाना चाहते थे कि लोग पूरी तरह से फिट रहें और हर हाल में उनका बेहतर से बेहतर इलाज हो सके. ये तीन संकल्प डॉक्टर सादिक की ज़िंदगी में हर घड़ी उनके साथ रहे. आज उनके आखिरी सफर पर कोरोना वायरस के खतरे के बावजूद भी लोगों का हुजूम उमड़ा हुआ है ये लोग सिर्फ औऱ सिर्फ डॉक्टर कल्बे सादिक से मोहब्बत के चलते इतनी बड़ी संख्या में आए थे.
मौलाना कल्बे सादिक की यूं तो पूरी ज़िदंगी ही एक प्रेरणादायक सबक है लेकिन उनकी कुछ खास बातें जो उनको डॉक्टर सादिक बनाती हैं वो आपको ज़रूर जानना चाहिए. भारत में नफरती भीड़ के रेले और मेले के बीच एक कोहिनूर का हीरा जो अपने बयानों और अपने कार्यों से मोहब्बत का पैगाम दिए जा रहा था वह अब इस दुनिया को छोड़कर जा चुका है.
डॉक्टर कल्बे सादिक कोहिनूर की शक्ल में एक ऐसी ही शख्सियत थे जो इतिहास के पन्नों में हमेशा के लिए दर्ज हो चुके हैं उसे भुला पाना लगभग नामुमकिन है. डॅा0 सादिक के ज़िंदगी के तीन प्रमुख सकंल्प थे. शिक्षा, स्वास्थ्य व एकता डॉक्टर सादिक ने न सिर्फ इसके लिए लोगों को जागरुक किया बल्कि आगे बढ़कर इस संकल्प पर काम भी किया. उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में एक स्कूल की स्थापना की जिसका नाम यूनिटी मीशन स्कूल रखा.
यूनिटी उनका मीशन ही तो था वह सभी को एक साथ देखना चाहते थे. इस स्कूल में उन्होंने बच्चों की शिक्षा के लिए हर तरह के प्रयास किए और आज ये स्कूल कई शहरों में फैला हुआ है जिसमें सभी धर्म के बच्चे मामूली फीस पर शिक्षा हासिल कर रहे हैं. स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी वो आगे बढ़े और खुद मेडिकल कालेज की बुनियाद रखी. आज उनके बनवाए गए अस्पताल भी सबका इलाज करके उनके संकल्प को पूरा कर रहे हैं.
डॉक्टर सादिक हर विवाद को बातचीत के ज़रिए ही हल करने के पक्ष में रहा करते थे. भारत का सबसे विवादित मुद्दा राममंदिर और बाबरी मस्जिद का था लेकिन कल्बे सादिक ने हाईकोर्ट के फैसले से बहुत पहले सन् 1995 के आसपास ही मुसलमानों से अपील की थी कि वह मोहब्बत की राह में आगे बढ़ें और हिंदू भाईयों को विवादित ज़मीन सौंप दें.
उनका मानना था कि अयोध्या हिंदू मज़हब के लिए पवित्र जगह है और उनकी आस्था का केन्द्र है. मुसलमानों को चाहिए कि वह मंदिर के लिए ज़मीन खुशी खुशी सौंप दें और हिंदुस्तान की गंगी-जमुनी तहज़ीब का परिचय दें. डॉक्टर सादिक ही वह पहले मुस्लिम थे जिन्होंने राममंदिर को अपना समर्थन खुलेतौर पर दिया था. वह किसी भी विवाद के पक्ष में नहीं रहा करते थे. डॉक्टर सादिक हिंदू-मुस्लिम एकता और शिया-सुन्नी एकता के मसीहा के तौर पर जाने जाते थे.
पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय डॉ अब्दुल कलाम और डॉ कल्बे सादिक को अगर एक तराज़ू पर तौला जाए तो तराज़ू के दोनों पहलू बराबर ही रहेंगे. दोनों का ही मकसद पूरी ज़िन्दगी में रहा है शिक्षा को बढ़ावा देना. दोनों ही जाहिलियत और अनपढ़ता के खिलाफ रहे. डॉक्टर कलाम और डॉक्टर सादिक दोनों की जायदाद में किताब और इल्म के सिवा कुछ भी नहीं है. जबकि दोनों ही पूरी दुनिया में पहचाने जाते थे.
बस फर्क़ सिर्फ़ इतना है कि एक ने विज्ञान की दुनिया में नाम कमाया और राष्ट्रपति बनके पूरी दुनिया में छा गए और दूसरे ने हिंदुस्तान के सभी धर्मों को एक धागे से बांधने का भरसक प्रयास किया और दुनिया में धर्मगुरु के नाम से पहचाने गए. डॉक्टर सादिक ऐसी शख्सियत थी कि जब सन 2002 में गुजरात दंगा हुआ तो ये वहीं फंस गए थे.
वहां हिन्दू मुसलमान के खून का प्यासा था. मुसलमान हिन्दू के खून का. उस वक्त भी इनको वहां से सुरक्षित निकालकर एयरपोर्ट तक पहुंचाने वाला एक हिन्दू ही था. जोकि गुजरात सरकार में मंत्री भी था और डॉक्टर सादिक का मुरीद भी. जिस तरह डॉ कलाम की बुराई करने वाला कोई नज़र नहीं आता है उसी तरह डॉक्टर सादिक की बुराई करने वाला भी ढूंढ़े नहीं मिलता है.
एक धर्मगुरु की क्या पहचान होती है, वह अपने धर्म तक ही सीमित रह जाता है. लेकिन डॉ सादिक दुनिया के दर्जनों धर्म को न सिर्फ़ जानते थे बल्कि उसके तौर-तरीकों और पूरे उस धर्म के पूरे इतिहास के बारे में जानकारी रखते थे. जिस वक्त लखनऊ में शिया सुन्नी झगड़े होते थे, गोलियां चलती थी उस वक्त भी कल्बे सादिक साहब को सुन्नी समुदाय अदब से सलामी दागा करता था.
उनके व्यक्तित्व को चंद शब्दों में कह पाना मुश्किल है. डॅा सादिक के निधन से एशिया, अफ्रीका, यूरोप और अमेरिका के कई देशों मे शोक मनाया जा रहा है. और लखनऊ में उनके अंतिम संस्कार में भी बड़ी बड़ी हस्तियों के साथ साथ हर मज़हब के लोगों ने शिरकत करके साबित कर दिया है कि उन्होंने हर मज़हब में अपनी गहरी छाप छोड़ी थी.
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