कोबरा कमांडो राकेश्वर सिंह की रिहाई कराने वाले 'बस्तर के गांधी' की कहानी
नक्सलियों की वजह से सरकार जब भी मुसीबत में होती है, तो उसको गांधी याद आते हैं. लेकिन महात्मा गांधी नहीं, 'बस्तर के गांधी' धर्मपाल सैनी, जिनको लोग 'ताऊजी' कहकर भी संबोधित करते हैं. कोबरा कमांडो राकेश्वर सिंह मनहास की रिहाई के बाद से ही Dharampal Saini सुर्खियों में बने हुए हैं.
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छत्तीसगढ़ के बीजापुर में बंधक बनाए गए कोबरा कमांडो राकेश्वर सिंह मनहास को गुरुवार को नक्सलियों ने रिहा कर दिया. 3 अप्रैल को जवानों और नक्सलियों के बीच हुई मुठभेड़ के बाद इस कमांडो को बंधक बना लिया गया था. इसके बाद नक्सलियों ने बंधक जवान की तस्वीर जारी कर बताया कि वे उनके कब्जे में सुरक्षित हैं. कोबरा जवान को छुड़ाने के लिए सरकार ने एक मध्यस्थता टीम गठित की थी. इसमें पद्मश्री धर्मपाल सैनी, रिटायर्ड शिक्षक रुद्र करे, पूर्व सरपंच सुखमती हपका और आदिवासी समाज के नेता तेलम बैरैय्या शामिल थे. मध्यस्थता टीम के 92 वर्षीय धर्मपाल सैनी ने कोबरा कमांडो राकेश्वर सिंह की रिहाई में अहम भूमिका निभाई है.
धर्मपाल सैनी को 'बस्तर का गांधी' भी कहा जाता है. इलाके के लोग उनको 'ताऊजी' कहकर संबोधित करते हैं. बताया जाता है कि ग्रामीण आदिवासी इलाकों और नक्सलियों के बीच धर्मपाल सैनी की बहुत इज्जत है. वह अक्सर सरकार और नक्सलियों के बीच संवाद सेतु बनते हैं. इस बार भी जिस दिन जवान के अपहरण की सूचना सामने आई, पुलिस प्रशासन ने धर्मपाल सैनी को फोन किया. उनसे मध्यस्थता के लिए कहा गया. पुलिस प्रशासन और मध्यस्थों ने इस बात की भनक किसी को नहीं लगने दी और बेहद खामोशी से सारा काम किया गया. धर्मपाल सैनी ने अपने खास सिपहसलारों को भी बिना बताए बुधवार की रात को ही आश्रम छोड़ दिया था.
धर्मपाल सैनी को 'बस्तर का गांधी' भी कहा जाता है. लोग उनको 'ताऊजी' कहकर संबोधित करते हैं.
'बस्तर के गांधी' धर्मपाल सैनी की कहानी
मध्य प्रदेश के धार जिले के रहने वाले धर्मपाल सैनी का जन्म साल 1930 में हुआ था. वो मशहूर समाज सेवी विनोबा भावे के शिष्य हैं. बालिका शिक्षा में बेहतर योगदान के लिए साल 1992 में उनको पद्मश्री सम्मान दिया गया. साल 2012 में 'द वीक' मैगजीन ने मैन ऑफ द इयर चुना था. उनके धार से बस्तर जाकर बसने की कहानी बहुत दिलचस्प है. बताया जाता है कि एक दिन उन्होंने अखबार में बस्तर की लड़कियों की एक खबर पढ़ी. उसमें लिखा गया था कि दशहरा के मेले से लौटते वक्त कुछ लड़कियों के साथ लड़कों ने छेड़छाड़ करनी शुरू कर दी. लड़कियों ने पहले शोहदों का विरोध किया और बाद में उनके हाथ-पैर काटकर हत्या कर दी.
यह खबर तो थी अपराध की, लेकिन अपनी दूरदृष्टि की वजह से धर्मपाल सैनी ने इसका असर समझ लिया. उन्होंने बस्तर जाकर वहां की लड़कियों की ऊर्जा को उनके विकास में लगाने का फैसला किया. 70 के दशक में वो बस्तर चले आए. यहां आदिवासियों और गांववालों के साथ मिलकर शिक्षा के क्षेत्र में काम करने लगे. लोग उन्हें प्यार से ताऊजी कहकर बुलाते हैं. आगरा यूनिवर्सिटी से कॉमर्स ग्रेजुएट सैनी खुद भी एथलीट रहे हैं. उन्होंने देखा कि यहां छोटे बच्चे भी 15 से 20 किलोमीटर आसानी से चल लेते हैं. इसलिए उन्होंने बस्तर के बच्चों की शारीरिक क्षमता का कुशलता से इस्तेमाल करने का व्यापक प्लान बनाया. उनको शारीरिक शिक्षा देनी शुरू कर दी.
साल 1985 में पहली बार धर्मपाल सैनी ने अपने आश्रम की छात्राओं ने खेल प्रतियोगिताओं में उतारा. साल 2000 तक करीब हर साल 60 बालिकाओं को अलग-अलग खेल में अनगिनत अवार्ड मिले. अब सालाना 100 छात्राएं अलग-अलग इवेंट में अपना परचम लहराती हैं. आश्रम की 2300 छात्राएं अलग-अलग स्पोर्ट्स इवेंट में हिस्सा ले चुकी हैं. 30 लाख से ज्यादा की राशि ईनाम के रूप जीत चुकी हैं. धर्मपाल सैनी के डिमरापाल स्थित आश्रम में हजारों की संख्या में मेडल्स और ट्रॉफियां रखी हुई हैं. वो खुद खिलाड़ियों की ट्रेनिंग, उनकी डाइट और अन्य जरूरतों का ख्याल रखते हैं. उनके आश्राम की छात्राएं आज कई बड़े प्रशासनिक पदों पर काम करती हैं.
वीडियो में देखिए, बस्तर के गांधी की दास्तान...
सैनी का सम्मान क्यों करते हैं नक्सली
बस्तर आने से पहले धर्मपाल सैनी गांधीवादी समाजसेवी संत विनोबा भावे के साथ उनके आश्रम में रहते थे. उनके द्वारा आदिवासियों के लिए संचालित एक संस्था भील सेवा संघ के लिए काम करते थे. बताया जाता है कि सैनी अपने माता-पिता की दूसरी संतान थे. उनके पिता धार जिले में कृषि अधिकारी थे. वह पढ़ाई के मामले में एक साधारण छात्र थे. उनके एक वाणिज्य शिक्षक विद्यासागर पांडे ने उन्हें महात्मा गांधी की शिक्षाओं से परिचित कराया था. इसके कुछ दिन बाद ही वह विनेबा भावे के संपर्क में आए और उनके मार्गदर्शन में कई गांधीवादी संस्थाओं के साथ काम करना शुरू किया. इसी क्रम में वह भावे की अनुमति के बाद बस्तर चले आए.
बस्तर पहुंचने के बाद उनका सबसे बड़ा काम अपने आश्रम के लिए जगह तलाशना था. स्थानीय लोगों के सहयोग से उन्होंने जगदलपुर में जिला मुख्यालय से लगभग 11 किलोमीटर दूर एक डिमरापाल गांव में अपना आश्रम बनाया. यहां अपना पहला स्कूल, माता रुक्मिणी देवी आश्रम (जिसका नाम विनोबा भावे की मां के नाम पर रखा गया है) दो महिला शिक्षकों और दो सहायक कर्मचारियों के साथ 13 दिसंबर, 1976 को शुरू किया. शुरुआती दिनों में उनको कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा. यह स्कूल ग्रामीणों के लिए एक संस्कृति सदमे की तरह था. इस वजह से ज्यादातर लोग सैनी के लिए शत्रुता का भाव रखने लगे. लेकिन उन्होंने अपनी कोशिश नहीं छोड़ी.
धर्मपाल सैनी व्यक्तिगत रूप से हर घर का दौरा करने लगे. माता-पिता को समझाया. काफी कोशिशों और तीन महीने तक उपहास का सामना करने के बाद, चार परिवारों ने अपनी बेटियों को स्कूल भेजने की इजाजत दे दी. इसके बाद धीरे-धीरे जब माता-पिता को एहसास हुआ कि उनकी बेटियां सुरक्षित हाथों में हैं, तो अन्य परिवार भी प्रोत्साहित होकर अपनी बच्चियों को स्कूल भेजने लगे. सैनी ने अपने स्कूल में पारंपरिक विषयों के साथ-साथ कृषि प्रथाओं को भी सिखाना शुरू कर दिया. इस तरह जंगल में जाकर अपनी मेहनत से लोगों का जीवन स्तर सुधारने वाले धर्मपाल सैनी आज बस्तर में ईश्वर की तरह पूजे जाते हैं. नक्सली भी उनका सम्मान करते हैं.
सरकार को नक्सलियों ने दी चुनौती
वैसे नक्सली जिस धर्मपाल सैनी का सम्मान करते हुए उनकी बात मानते हैं, उनको 'बस्तर का गांधी' कहा जाता है. गांधी जी सत्य और अहिंसा के पुजारी थे. ऐसे में अहिंसा के साधक और समाज सुधारक को मानने वाले धर्मपाल सैनी का असली सम्मान तो तभी माना जाता, जब नक्सली हिंसा का रास्ता छोड़कर अहिंसा के रास्ते पर चल पड़ते. फिलहाल तो धर्मपाल सैनी के जरिए नक्सली अपना स्वार्थ ही साधते नजर आते हैं. 22 जवानों की बर्बरता पूर्वक हत्या करने वाले हत्यारे नक्सलियों ने एक जवान को सही सलामत क्यों छोड़ दिया, ये भी सोचने वाली बात है. वो चाहते तो अन्य जवानों की तरह राकेश्वर सिंह की भी हत्या कर सकते थे, लेकिन ऐसा नहीं किया.
दरअसल, 22 जवानों के खून से रंगे अपने हाथों को धोने के लिए नक्सलियों ने एक जवान की रिहाई का सहारा लिया. कोबरा कमांडो की रिहाई नक्सलियों ने बिना ज्यादा देर लगाए, सरकार के लिए बहुत ज्यादा मजबूर हालात ना बनाते हुए कर दी, ताकि उन्हें गुडविल मिल सके. लोगों को लगे कि नक्सली उतने बुरे नहीं हैं, जितना कि लोग उनके बारे में सोचते हैं. इतना ही रिहाई से ज्यादा हैरान करने वाला रिहा करने का तरीका है. नक्सलियों ने रिहाई के लिए वही जगह चुनी, जहां उन्होंने सुरक्षाबलों पर हमला किया था. यहां सैकड़ों लोगों को जुटाया गया. जनपंचायत में कमांडो राकेश्वर सिंह को हाथ बांधकर पेश किया गया. इसकी कवरेज के लिए मीडिया को बुलाया गया.
इस पूरे घटनाक्रम के जरिए नक्सलियों ने बता दिया कि सरकार के दावों के बावजूद सब कुछ उनके ही हाथ में है. जिस जगह बड़े ऑपरेशन का दावा किया जा रहा था, वहीं राकेश्वर सिंह की रिहाई कर संदेश दिया कि उस इलाके पर उनका राज है. जन अदालत लगाकर हजारों आदिवासियों की भीड़ के सामने जिस तरह कमांडो की रस्सियों से आजाद किया गया, उससे भी नक्सलियों ने संदेश देने की कोशिश की कि अपने कोर इलाके में उन्हें सरकार या पुलिस का कोई डर नहीं है. यहां तक रिहाई के वक्त यह कहकर स्थानीय लोगों को और अपना बना लिया कि पुलिस किसी भी स्थानीय आदमी को पूछताछ के बाद जेल में न डाले, वरना आगे अंजाम और बुरा होगा.
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