लिखेंगे गांव-गांव का इतिहास, ढूंढेंगे ‘वामपंथी इतिहास-घोटाला’
हमने देश में औपनिवेशिक राज्य यानी फ्रांसीसी और अंग्रेजों के आने के पहले गांव-गांव में इस्तेमाल की जाने वाली तकनीकी और वैज्ञानिक ज्ञान पर बड़ी शोध परियोजना को मंजूरी दी है.
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केंद्रीय स्तर पर सरकार की ओर से भारत के गांव-गांव का इतिहास लिखे जाने की परियोजना पर भारी भरकम बजट के साथ मुहर लग चुकी है. परियोजना के अन्तर्गत गांव-गांव से जानकारी जुटाई जाएगी और देश में अब तक जो इतिहास लिखा गया, उसके तथ्यों का मिलान गांवों और शहरों के आम लोगों, भूले-बिसरे ऐतिहासिक ठिकानों, लोक कथाओं-गाथाओं, धार्मिक-आध्यात्मिक स्थानों की किम्वदंतियों और परंपराओं से मिली जानकारी से किया जाएगा. इस काम में आम लोगों के साथ कॉलेज विद्यार्थियों को भी इतिहास अनुसंधान के काम में बाकायदा छात्रवृत्ति देकर सक्रिय किया जाएगा.
आईसीएचआर यानी भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद ने भारत के इतिहास लेखन में पहली बार देश के लाखों गांवों और कस्बों में फैली जनश्रुतियों, अज्ञात इतिहास स्रोतों और साक्ष्यों को एकत्रित करने की दिशा में इस देशव्यापी परियोजना को मंजूरी दे दी है. आईसीएचआर के चेयरमैन प्रो. वाई सुदर्शन राव ने अगले डेढ़ वर्षों के लिए आईसीएचआर के दृष्टिकोण पत्र में इस परियोजना का खासतौर पर जिक्र किया है. यह दृष्टिकोण पत्र आईसीएचआर की 29-30 जून को दिल्ली में आयोजित दो दिन की नीति निर्धारक परिषद में सदस्यों को वितरित किया गया.
आईसीएचरआर चेयरमैन की ओर से पढ़े गए इस दृष्टिकोण पत्र के अनुसार, ‘हिस्टोरिकल एनसाइक्लोपीडिया ऑफ विलेजेस एंड टाउन्स इन इंडिया’ अर्थात ‘भारत के गांवों और शहरों का ऐतिहासिक ज्ञानकोश’ नाम से एक बड़े अनुसंधान प्रोजेक्ट को मंजूरी दे दी है जिसके जरिए देश के लाखों गांवों और शहरों में फैले हुए इतिहास से जुड़े स्रोतों की खोज की जाएगी.
देश के तमाम विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में इतिहास की पढ़ाई कर रहे छात्रों को भी इस योजना में जोड़ने की तैयारी है. छात्रों को इस योजना में अप्रेटिंसशिप दी जाएगी और उन्हें प्रायोगिक अध्ययन के साथ आर्थिक निर्वहन के लिए छात्रवृत्ति भी दी जाएगी. छात्र ग्रामीण भारत से इतिहास के तथ्यों को जुटाएंगे और बाद में उन्हें विशेषज्ञों के मार्गदर्शन में वेबपोर्टल पर प्रकाशित किया जाएगा. इस योजना में गांवों और शहरों में जनश्रुतियों और इतिहास की गाथाओं, कलाकृतियों समेत मौखिक और लिखित सभी कथाओं पर विस्तृत शोध किया जाएगा और सीधे आम लोगों की इतिहास लेखन में भागीदारी सुनिश्चित की जाएगी.
ग्रामीण भारत का लिखा जाएगा इतिहास |
आईसीएचआर के चेयरमैन प्रो. वाई सुदर्शन राव ने आईसीएचआर की दिल्ली में 29-30 जून को आयोजित नीति निर्धारक संचालन मंडल की बैठक में इस परियोजना की पूरी रूपरेखा प्रस्तुत की. उन्होंने बताया कि इसके अन्तर्गत देश के हर गांव और शहर के अतीत और वहां मौजूद इतिहास से जुड़े स्रोतों के बारे में बड़े पैमाने पर संदर्भ-सूचनाएं जुटाई जाएगी.
आईसीएचआर की केंद्रीय परिषद के सदस्य इतिहासकार प्रो. ईश्वर शरण विश्वकर्मा कहते हैं कि आम लोगों और ग्रामों से एकत्रित की जाने वाले ऐतिहासक साक्ष्यों और संदर्भों के जरिए इतिहास की गई गलत अवधारणाओं को दुरुस्त किया जाएगा. ऐसी ऐतिहासिक अवधारणाएं जिनका भारतीय समाज से कोई लेना-देना नहीं है, और जो निहित स्वार्थों के तहत इतिहास में कपोल कल्पना और झूठे स्रोतों के जरिए स्थापित की गईं, उनका पूरा विश्लेषण ग्रामों से छनकर आने वाले तथ्यों के जरिए सही तरीके से हो सकेगा. कहा जा सकता है कि अब तक भारत का इतिहास चंद लोगों ने लिखा लेकिन ये पहली बार होगा कि आम लोगों और देश के दूर-दराज के ग्रामों के जरिए भारत का इतिहास लिखा जाएगा.
आईसीएचआर की मीटिंग में ये सवाल भी उठा कि आखिर क्यों 1972 में स्थापना के बाद से अब तक आईसीएचआर चंद अवधारणाओँ पर ही ठहरकर काम करता रहा. प्रो. सुदर्शनराव की ओर से लिखे गए दृष्टिकोण पत्र के मुताबिक, ‘दशकों तक आईसीएचआर ने कोई नई इतिहास परियोजना शुरु ही नहीं की. सिर्फ पुरानी परियोजनाओं पर ही वो काम करते रहे लेकिन अब ऐसा नहीं है. हमने तेजी से नई परियोजनाओं को मंजूरी दी है. इतिहास के नए स्रोतों की तलाश भी इसमें एक बड़ा काम है. सिर्फ अंग्रेजी भाषा के स्रोतों तक ही हम क्यों सीमित रहे. फ्रांस ने भी देश के अनेक हिस्सों से ऐतिहासिक सामग्री एकत्रित की थी. 1798 में फ्रेंच भाषा में प्रकाशित ऐसे तमाम दस्तावेजों का अनुवाद और विश्लेषण की परियोजना भी आईसीएचआर ने यूनिवर्सिटी ऑफ मद्रास की प्रोफेसर चित्रा कृष्णन की अगुवाई में मंजूर कर ली है. हम देश के पर्यावरण इतिहास की परियोजना भी शुरु कर रहे हैं. इसमें देश के जन-जंगल का पर्यावरणीय और पुरातात्विक इतिहास नए सिरे से सामने आएगा. प्राचीन भारत में विज्ञान और तकनीकी के इतिहास पर जाने क्यों कभी काम करने की विचार ही पूर्व में नहीं किया गया. हमने देश में औपनिवेशिक राज्य यानी फ्रांसीसी और अंग्रेजों के आने के पहले गांव-गांव में इस्तेमाल की जाने वाली तकनीकी और वैज्ञानिक ज्ञान पर बड़ी शोध परियोजना को मंजूरी दी है. डॉ. एमडी श्रीनिवास के नेतृत्व में इस परियोजना पर काम प्रारंभ हो रहा है. इसी के साथ गुरुकुल फेलोशिप शुरु कर रहे हैं जिसके जरिए इतिहास के विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट शोध करने वाले वरिष्ठ छात्रों को मदद दी जाएगी. हम 2022 में स्वर्ण जयंती वर्ष मनाने जा रहे हैं और तब तक हम आईसीएचआर के जरिए देश में इतिहास अनुसंधान की वर्तमान दिशा और दशा को आमूल-चूल बदल डालेंगे.’
आईसीएचआर के कई सदस्यों ने नई शोध परियोजनाओं के साथ कई दशकों से चल रही उन शोध परियोजनाओँ पर भी सवाल उठाए हैं जिनमें करोड़ों रुपये का सरकारी अनुदान दिया जाता रहा लेकिन कई वरिष्ठ इतिहासकारों ने करोड़ों रुपये खर्च किए जाने के बावजूद परियोजना की अंतिम रिपोर्ट आईसीएचआर में जमा नहीं की और करोड़ों रुपये खर्च करने के बावजूद शोध का नतीजा शून्य रहा. यहां तक कि कोई प्रकाशन तक नहीं किया गया. इस बारे में सूत्रों से मिली खबर के अनुसार, ‘आईसीएचआर ने एचआरडी मिनिस्ट्री को साफ किया है कि उन परियोजनाओं पर जांच आवश्यक है जिसमें भारी भरकम बजट खर्च हुआ लेकिन तथाकथित नामचीन इतिहासकारों ने कोई रिपोर्ट तक जमा नहीं की. यहां तक कि करोड़ों की इन शोध परियोजनाओं के खर्च और काम का ब्यौरा के दस्तावेज भी मोदी सरकार का गठन होते ही आईसीएचआर के दफ्तर से गायब कर दिए गए.’
अब सवाल ये है कि आखिर वो नामचीन इतिहासकार कौन-कौन हैं जिन्होंने आईसीएचआर के जरिए करोड़ों रुपये की परियोजनाएं हासिल कीं और सालों साल तक खर्च के बावजूद शोध के नाम पर एक पन्ना भी आईसीएचआर में जमा नहीं किया. आईसीएचआर के सूत्रों का कहना है कि ज्यादातर इतिहासकार वामपंथी खेमे से जुड़े हैं जिन्होंने इतिहास शोध के नाम पर करोड़ों रूपये खर्च तो किए लेकिन एक पेज की रिपोर्ट भी कभी जमा नहीं की. आईसीएचआर सूत्रों ने बताया है कि इस बारे में एचआरडी मंत्रालय से आईसीएचआर के कुछ सदस्यों ने जांच का आग्रह किया है और ये भी साफ किया है कि ‘आईसीएचआर के पास इतने संसाधन नहीं हैं कि वो अतीत में आईसीएचआर में विचारधारा विशेष के लोगों के जरिए की गई धांधली की पड़ताल कर सके. सरकार चाहे तो पड़ताल हो सकती है और इतिहास के साथ अतीत में हुए करोड़ों के गड़बड़झाले का पर्दाफाश भी हो सकता है.’
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