पुरुष में तेजी से गिरते स्पर्म काउंट से बांझपन की कहानी में आया यू-टर्न
भारत में हुए एक सर्वे का मानें तो बांझपन की दर IT सेक्टर में काम करने वाले पुरुषों में ज्यादा है. इस सेक्टर में काम करने वाले 100 में से 15 लोग बांझपन की समस्या से ग्रसित हैं. और इनमें से 40% मामले पुरुषों के हैं.
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एक सामान्य बात है कि अगर किसी के बच्चे नहीं हो रहे हों तो डॉक्टर के पास सबसे पहले महिला को ही दिखाया जाता है. जाहिर है, बच्चा तो महिला ही पैदा करेगी, इसलिए बांझपन नाम के शब्द को पुरुष के साथ लिखा भी नहीं जाता. बांझ सिर्फ महिलाएं कहलाई जाती हैं. लेकिन एक स्टडी ने साफ कर दिया है कि बांझपन के लिए महिला से ज्यादा पुरुष जिम्मेदार होते हैं.
बांझपन कितनी बड़ी समस्या है उसे इस बात से समझा जा सकता है कि दुनिया के 15% जोड़े इससे प्रभावित हैं. यह अनुमान लगाया गया है कि वैश्विक स्तर पर, 6-8 करोड़ जोड़े हर साल बांझपन से ग्रस्त होते हैं, जिनमें से करीब 1.5-2 करोड़ अकेले भारत में हैं.
बांझपन के लिए महिला से ज्यादा पुरुष जिम्मेदार
लेकिन जैसे-जैसे जागरुकता फैल रही है, बांझपन को सिर्फ महिलाओं से जोड़कर देखने वाला मिथ भी अब मिटता जा रहा है. पुरुष खुल कर सामने आ रहे हैं, और अब जब वो सच को स्वीकार कर रहे हैं तो पता चल रहा है कि बांझपन जितनी महिलाओं की सच्चाई है उससे ज्यादा पुरुषों की भी है.
पिछले दो दशकों से पुरुषों के प्रजनन स्वास्थ्य को देखा जाए तो हैरान करने वाले आंकड़े सामने आए हैं. एक दशक पहले तक जहां 20-25% निसंतान दंपति हुआ करते थे वो अब बढ़कर 50% हो गए हैं.
लंदन की Human Fertilisation and Embryology Authority के आंकड़ों की मानें तो इलाज करा रहे इनफर्टाइल पुरुषों की संख्या 4 साल में दुगनी हो गई है.पुरुष प्रजनन क्षमता पर की गई अब तक की सबसे बड़े शोध से पता चलता है कि 1973 से 2011 तक पुरुषों का औसत स्पर्म काउंट 59.3% तक नीचे गिर गया है. ये आंकड़े डराने वाले हैं.
इस सच्चाई का एक दूसरा पहलू और भी खतरनाक है
इंफर्टिलिटी इंडस्ट्री जिसका प्रतिनिधित्व गायनेकोलॉजिस्ट करते हैं वो अपना सारा ध्यान महिलाओं की प्रजनन क्षमता पर ही लगाते हैं. ज्यादातर डॉक्टर पुरुष की प्रजनन क्षमता को अनदेखा करते हैं. IVF ट्रीटमेंट पर लाखों बर्बाद करने के बाद एक जोड़े को ये बताया गया कि समस्या महिला में नहीं बल्कि पुरुष के स्पर्म की क्वालिटी में है.
अमेरिका के ओहियो में कार्यरत इंनफर्टिलिटी स्पेशलिस्ट डॉ अशोक अग्रवाल का कहना है- "लोग ये नहीं मानते कि पुरुषों में भी बांझपन की समस्या हो सकती है. और इसी कारण आनावश्यक रूप से आईवीएफ किया जाता है."
सामान्य तरीके से समझें तो अगर एक जोड़ा अपनी समस्या लेकर डॉक्टर के पास जाता है तो ऐसा नहीं है कि पुरुष को पूरी तरह इंग्नोर किया जाता हो. पुरुषों के स्पर्म सैंपल भी लिए जाते हैं, लेकिन उन सैंपल को बेहद सामान्य तरीके से चेक किया जाता है- जैसे स्पर्म काउंट और मूवमेंट, लेकिन स्पर्म की क्वालिटी कैसी है इसपर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता. और महिला जिसे IVF की सलाह जाती है, वो ज्यादातर असफल होते जाते हैं.
भारत में आईवीएफ का बाजार तेजी से बढ़ रहा है
और एक्सपर्ट का कहना है कि अगर IVF ट्रीटमेंट में सफलता की दर बहुत कम है तो उसका एक मुख्य कारण यही है. सैकड़ों उदाहरण मौजूद हैं जो ये बताते हैं कि समस्या पुरुषों के स्पर्म थे लेकिन महिलाओं को जबरदस्ती तरह-तरह के अनचाहे ट्रीमेंट से गुजरना पड़ा. अगर स्पर्म की क्वालिटी समस्या है तो महज खान-पान में बदलाव करके भी उसे बेहतर किया जा सकता है. लेकिन जो स्पर्म को लेकर जो सामान्य टेस्ट होते हैं उसमें क्वालिटी पर ध्यान नहीं दिया जाता और इसी वजह से महिलाओं को IVF के बार-बार असफल प्रयास करने पड़ते हैं.
अगर आप ऐसा समझते हैं कि ये सिर्फ विदेशों का हाल है तो ऐसा नहीं है. भारत में हुए एक सर्वे का मानें तो बांझपन की दर IT सेक्टर में काम करने वाले पुरुषों में ज्यादा है. इस सेक्टर में काम करने वाले 100 में से 15 लोग बांझपन की समस्या से ग्रसित हैं. और इनमें से 40% मामले पुरुषों के हैं.
आज IVF क्लीनिक हर शहर में हैं. और वहां आने वाले लोगों की संख्या से समस्या का तो पता चलता है लेकिन समस्या किसके साथ है ये सामने नहीं आता. हालात तो ये हैं कि लोग महिलाओं का IVF ट्रीटमेंट भी छिपाकर करवाते हैं, क्योंकि इनफर्टिलिटी समाज में इज्जत का सवाल होता है. तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि पुरुषों की प्रजनन संबंधी समस्याएं भारत में कितनी ज्यादा डिस्कस की जाती होंगी. लेकिन ये आंकड़े इग्नोर करने के लिए बल्कि चेताने के लिए हैं. इनपर ध्यान न दिया गया तो नुकसान में सिर्फ आम लोग ही रहेंगे लेकिन फर्टिलिटी क्लीनिक्स की तो चांदी ही चांदी है.
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