रेपिस्ट को 'दयालु' रेपिस्ट' बताकर न्यायमूर्तियों ने एक नयी बहस तो शुरू कर ही दी है!
अनेकों मामले हैं, जिनमें न्यायाधीशों की पितृसत्तात्मक मानसिकता उनके निर्णयों में परिलक्षित होती है. जबकि तमाम कानूनी प्रावधान है. हां, दोष मीडिया, एक्टिविस्टों और राजनेताओं का भी हैं जिनका आउटरेज सेलेक्टिव होता है! क्यों होता है, सभी जानते हैं.
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एक नहीं दो-दो न्यायमूर्तियों को तरस आ गया रेपिस्ट पर चूंकि वह दयालु जो था. उसने चार साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म करने के बाद उसे जीने के लिए छोड़ दिया. मति ही मारी गई थी जो जजों ने रेप जैसे कृत्य के बाद बच्ची को जिन्दा छोड़ दिए जाने के अजीबोगरीब और विवेकहीन तथ्य पर विचार कर लिया. क्या मजाक है? चाइल्ड रेपिस्ट काइंड है? लेकिन परमेश्वर को तो तरस नहीं आ रहा है अपने पंचों की ऐसी अहमकाना दयालुता पर? परंतु क्या करें? ऐसा तो बार बार हो रहा है. क्यों? शायद पितृसत्तात्मकता हावी है. तभी तो बलात्कार सरीखे घृणित अपराध के दोषियों को अक्सर रियायत मिल जा रही है. जबकि पॉस्को के तहत मृत्युदंड़ तक का प्रावधान कर दिया गया है यदि पीड़िता 12 वर्ष से कम उम्र की है तो.
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की इंदौर बेंच ने जो फैसला बलात्कार के मामले में लिया है उसकी आलोचना होनी ही चाहिए
विकृत मानसिकता रखने वाले हवसी की हैवानियत सिर्फ इसलिए कमतर नहीं कही जा सकती कि पीड़िता जिंदा है. उल्टे यदि पीड़िता है, जीवित है तो दोषी का किसी भी हाल में छोड़ा जाना ना तो न्यायोचित है ना ही अपेक्षित. पिछले दिनों ही तक़रीबन छह महीने पहले उच्चतम न्यायालय ने 4 साल की बच्ची की हत्या और रेप करने के दोषी व्यक्ति मोहम्मद फिरोज की मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया था.
विक्टिम की मां ने रिव्यू पेटिशन भी डाली जिसे सुप्रीम कोर्ट ने ख़ारिज कर दिया. गैंगरेप पीड़िता बिलकिस बानो के दोषी ना केवल हर साल 90-90 दिनों की पैरोल पाते रहे बल्कि 14 साल की सजा काटने के बाद सभी 11 दोषियों को छोड़ भी दिया गया. बिलकिस बानो की स्थिति कौन समझेगा?
और फिर सुप्रीम फरमान है every criminal has a future! और मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय की इंदौर पीठ ने प्रेरणा पा ली. निःसंदेह पॉक्सो एक्ट के संदर्भ में फैसला नैतिक रूप से एकदम गलत है. हालांकि उच्च न्यायालय एफएसएल रिपोर्ट की अपर्याप्तता को आधार बना सकती थी, लेकिन ऐसा करती तो उसे दोषी को संदेह का लाभ देकर बरी ही कर देना पड़ता. माने या ना माने पीठ का मानस यही था लेकिन माननीय जज साहस नहीं जुटा पाए.
इसी ऊहापोह में दोषी को राहत देने के लिए तार्किक तर्क नहीं खोज पाए और एक ऐसा आधार बता दिया जिस पर खूब हंगामा बरपेगा. कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि सर्वोच्च न्यायालय जिला अदालत के फैसले को ही पुनः बहाल कर दे. इसी संदर्भ में ‘लड़की ने उत्तेजक कपड़े पहने थे’ कहकर यौन शोषण के आरोप को नकारने वाले केरल के जज का ज़िक्र भी बनता है.
हालांकि इन्हें बतौर सजा श्रम अदालत में स्थान्तरित कर दिया गया लेकिन उन्होंने हाई कोर्ट में गुहार लगाई है कि ऐसी कार्यवाही से दूसरे ज्यूडिशियल ऑफिसर्स के मनोबल पर असर पड़ेगा और वो स्वतंत्र तथा निष्पक्ष रूप से निर्णय नहीं ले पाएंगे. पता नहीं बेतुकी और विवेकहीन टिप्पणियों में वे कौन सी स्वतंत्रता और निष्पक्षता तलाश रहे हैं?
दरअसल अनेकों मामले हैं जिनमें न्यायाधीशों की पितृसत्तात्मक मानसिकता उनके निर्णयों में परिलक्षित होती है जबकि तमाम कानूनी प्रावधान है. हां, दोष मीडिया का, सोशल एक्टिविस्टों और राजनेताओं का भी हैं जिनका आउटरेज सेलेक्टिव होता है! क्यों होता है, सभी जानते हैं? चुप्पी ही श्रेयस्कर है!
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