कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों के गले नहीं उतरा है तीन तलाक़ वाला फैसला
मुस्लिम संगठनों का काम अपने समाज को सुधारने का होना चाहिए, न कि समाज को क़ानून के ख़िलाफ खड़ा करने का.
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भारत के सुप्रीम कोर्ट ने चाहे तत्काल तीन तलाक (तलाक ए बिद्दत) को असंवैधानिक घोषित कर दिया हो और उस पर रोक लगा दी हो, लेकिन कुछ मुस्लिम संगठन अब भी इस फ़ैसले के खिलाफ खड़े हैं.
जमीयत उलेमा-ए-हिन्द के नेता और पश्चिम बंगाल के सर्वशिक्षा व ग्रंथागार राज्य मंत्री मौलाना सिद्दिकुल्ला चौधरी ने सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय का विरोध करते हुए इसे असंवैधानिक बताया है. उनके अनुसार उच्चतम न्यायालय और केंद्र सरकार को मुस्लिम पर्सनल लॉ में दखल देने का कोई अधिकार नहीं है. उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि वह इस फ़ैसले को नहीं मानेंगे.
सुप्रीम कोर्ट के तत्काल तीन तलाक (तलाक ए बिद्दत) को असंवैधानिक घोषित करने के बावज़ूद भी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एमपीएलबी) ने 24 अगस्त को दुबारा न्यायालय के समक्ष तीन तलाक को लेकर एक बार फिर अपना रूख स्पष्ट करने को कहा. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एमपीएलबी) ने कहा कि बहुमत के फ़ैसले में जजों का नज़रिया नहीं दिया गया है. अदालत ने निर्णय के बारे में कुछ भी सुनने से मना कर दिया.
रुढ़ियों का टूटना बहुत जरुरी है
मुख्य न्यायधीश जस्टिस खेहर का कहना था, 'हमारे हिसाब से निर्णय स्पष्ट है. इस पर किसी भी तरह से स्पष्टीकरण की जरूरत नहीं है.' मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एमपीएलबी) ने 10 सितंबर को अपनी कार्यकारिणी की बैठक भोपाल में बुलाई है. इस बैठक में एमपीएलबी अपनी कानूनी समिति के साथ विचार विमर्श करेगा और आगे की रणनीति तय करेगा.
उधर मुस्लिम धर्म के प्रभावशाली मदरसे दारूल उलूम देवबंद में उच्चतम न्यायालय के निर्णय का साथ कम लोग ही खड़े आते हैं. तीन तलाक के मुद्दे पर दारूल उलूम पहले भी कई फ़तवे जारी कर चुका है. दारूल उलूम के मौलाना मुफ़्ती अबुल क़ासिम नोमानी का कहना है, 'न्यायालय और संसद को ऐसे किसी क़ानून को बनाने का अधिकार नही है जो इस्लामी क़ानून के विरुद्ध जाए'.
यदि एक अभूतपूर्व और पथ प्रदर्शक निर्णय का प्रमुख मुस्लिम संगठन विरोध करेंगे, उस फ़ैसले को मानने से इनकार कर देंगे. तो इसका असर पूरे मुस्लिम समाज पर पड़ेगा. इन संगठनों से प्रभावित मुस्लिम पुरुष तो यही विश्वास करेंगे की तत्काल तीन तलाक (तलाक ए बिद्दत) के मुद्दे पर यह संगठन उनका साथ देंगे. वह मुस्लिम पुरुष इन संगठनों के प्रभाव के कारण भारत के क़ानून के विरोध में खड़े नज़र आएँगे.
इन मुस्लिम संगठनों का काम अपने समाज को सुधारने का होना चाहिए न कि समाज को क़ानून के ख़िलाफ खड़ा करने का. यदि मुस्लिम समाज अपने अंदर की कुरीतियों को सुधारने की जगह उन्हें नज़रअंदाज़ करता रहेगा तो वह कभी तरक्की कर नहीं पाएगा. इसलिए जमीयत उलेमा-ए-हिन्द, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, दारूल उलूम देवबंद जैसे संगठनों को इस्लामी समाज में प्रचलित कुरीतियों को सुधारने पर काम करना चाहिए. क़ानून के खिलाफ खड़े होकर उन्हे कुछ नहीं मिलेगा.
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