40 साल की मेरी बहन का 35 साल के लड़के से शादी करना मेरे लिए प्रेरणा का स्रोत है
मेरे घर में लोग ये स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे कि लड़की अपने पसंद से शादी करे. और एक उम्र हो जाने के बाद उसके बच्चे नहीं होंगे इसलिए उसे बिना अपनी मर्जी के घरवालों के कहे अनुसार शादी कर लेनी चाहिए.
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साल 2000 में मेरी बहन ने अपनी लॉ की पढ़ाई पूरी करने के बाद वकील के तौर पर स्थानीय सेशन कोर्ट ज्वाइन कर लिया. तब पुरुष वर्चस्व वाले इस क्षेत्र में महिलाएं बहुत कम ही दिखती थी, खासकर जिस पहाड़ी क्षेत्र से मैं आता हूं वहां के लिए तो ये नजारा एक अपवाद की ही तरह था. मेरी बहन के लिए शुरुआती कुछ दिन बहुत ही संघर्ष से भरे थे. कानून के दांवपेंच सीखना और अपनी जगह बनाना एक अनवरत प्रक्रिया का हिस्सा थी. मुझे आज भी याद कि वो थकी हारी कोर्ट से आती और आते ही मेरी मां के साथ किचन में डिनर बनाने में उनकी सहायता करने में लग जाती. हमारे लिए ये एक रुटीन था लेकिन उसके लिए ये उसका कर्तव्य था.
इसी समय उसकी शादी की बात उठने लगी थी. तब हमें पता चला कि एलएलबी करने के दौरान ही उसे किसी से प्यार हो गया था और उसने उस लड़के से ही शादी करने का मन बना लिया था. लेकिन हमारे भारतीय समाज में अंतरजातीय विवाह करना, एवरेस्ट फतह करने जितना कठिन था. मेरी पिता जी ने इस शादी का कड़ा विरोध किया. उनके साथ साथ और भी बहुत सारे वो लोग भी विरोध में खड़े हो गए जिनके लिए लड़की द्वारा अपनी मर्जी से शादी करना एक घोर अपराध के समान था.
ऐसे समय में जब हर कोई सिर्फ सलाह ही देने में व्यस्त था तब मेरी बहन ने मामले को अपने हाथ में लिया. और साम-दाम-दंड-भेद हर तरीका अपनाकर आखिरकार घरवालों को मना ही लिया. लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. जिस लड़के ने पिछले आठ सालों से उसे साथ निभाने का वादा कर रखा था, अंत समय में वही पीछे हट गया.
तब मेरी बहन 30 साल की थी. हालांकि उसने कभी जाहिर नहीं किया पर इस पूरी घटना ने उसे अंदर तक तोड़ दिया. उसके बाद से उसके लिए उसका करियर ही जिंदगी बन गया. अगले दस सालों तक उसने अपने काम को अपनी जिंदगी सौंप दी. इस दौरान उसने ज्यादातर ऐसे केस लड़े जिसमें महिलाओं को छोड़ दिया गया, उनके साथ अन्याय हुआ, शोषण हुआ.
मुझे मेरी बहन पर गर्व है
मुझे बाद में समझ आया कि ऐसी औरतों को न्याय दिलाकर उसे संतुष्टि मिलती थी.
एक बार फिर से ये सवाल उठने लगे कि अभी तक उसकी शादी क्यों नहीं हुई थी. कोई भी इंसान इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था कि एक महिला अकेले होकर भी आत्मनिर्भर और खुश रह सकती है. नतीजतन जहां कुछ ने अतीत में उसके प्रतिरोध को इसका कारण बताना शुरू किया, तो वहीं कुछ ने उसके अंदर ही कोई खराबी होगी मानना शुरु कर दिया. नहीं तो फिर आखिर क्यों एक औरत शादी के बदले अपने कैरियर को तवज्जो देगी, है ना?
स्थिति की गंभीरता को समझते हुए, कई "शुभचिंतकों" ने मामले को "निपटाने" के लिए आगे आने का फैसला किया. उन्होंने कह- पहले ही देर हो चुकी है. अब और देर करने से बच्चे होने में दिक्कत होगी. साफ था कि वो जीवन में क्या करना चाहती थी, उसे क्या पसंद था, ये सब बेमानी बातें थी और इनका कोई मतलब नहीं था. लेकिन फिर भी उसने हार नहीं मानी.
आज वो 40 साल की है अब उसने अपनी शर्तों पर शादी करने का फैसला कर लिया है. उसे अपने से पांच साल छोटे आदमी में अपना जीवनसाथी दिखा, जिसके साथ उसने अपना घर बसाने का फैसला किया. दोनों ने मिलकर एक ऐसा घर बनाने का फैसला किया है जहां समाज की रुढ़िवादियों के बदले उन दोनों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए जगह होगी.
उसकी कहानी असाधारण नहीं होगी. लेकिन पितृसत्ता और दुर्व्यवहार को बढ़ावा देने वाले विचारों से लड़ने का उसका संकल्प निश्चित रूप से प्रेरणा देने वाला है. उसने अपने तरीके से चुपचाप ये समझा दिया कि एक बार में एक कदम बढ़ाओ और उस पर कायम रहो.
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