कर्नल निजामुद्दीन के साथ दफन हो गए कई राज़
अगस्त 1945 को जिस समय नेताजी की मौत की खबर रेडियो पर प्रसारित हो रही थी, उसे कर्नल निजामुद्दीन नेताजी के साथ बर्मा के जंगलों में बैठे सुन रहे थे.
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हजरते-निजामुद्दीन के इंतकाल पर अगर मैं अपने दिली मलाल का जिक्र न करूं तो यह व्यक्तिगत तौर पर मेरी कमबख्ती होगी. मुराद औलिया हजरत निजामुद्दीन से नहीं बल्कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस के ड्राइवर और बॉडीगार्ड कर्नल निजामुद्दीन से है. वह जंगे-आजादी की दरगाह में एक बुजुर्ग की हैसियत रखते थे. दो मुलाकातों के बाद मैं भी उनके व्यक्तित्व का मुरीद हुए बिना नहीं रह सका.
बात 2008 में हुए बहुचर्चित बाटला हाउस एन्काउंटर के समय की है. उसके बाद देश के लगभग सभी खबरिया चैनलों ने आजमगढ़ को आतंकगढ़ के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया था. ऐसे में देश के पब्लिक ब्रॉडकास्टर दूरदर्शन के उर्दू चैनल पर जिले की इस इमेज से आतंकगढ़ का ठप्पा निकालने की जिम्मेदारी आ पड़ी. इस काम को अंजाम देने के लिए जिस न्यूज एजेंसी का सहारा लिया गया, उस समय मैं उसमें कार्यरत था. बतौर रिपोर्टर मुझे वहां भेजा गया. इस दौरान मुझे कैफी आजमी, महापंडित राहुल सांकृत्यायन और मौलाना शिबली नोमानी जैसी आजमगढ़ की महान विभूतियों से जुड़ी यादों से रूबरू होने का अवसर मिला. मेरे असाइनमेंट में उस वक्त चार-चांद लग गए जब मुझे नेताजी के वाहनचालक और अंगरक्षक के बारे में पता चला, क्योंकि वह जिले की एकमात्र जिंदा शख्सियत थी जिनपर हम एक भरपूर पैकेज चला सकते थे. इसके बाद 2011 में एक बार फिर रिपोर्टिंग के सिलसिले में मेरा दिल्ली से आजमगढ़ जाना हुआ और उनसे मुलाकात का सुनहरा मौका मिला.
जीवन में सौ से ज्यादा बसंत देख चुके कर्नल निजामुद्दीन बेहद बुजुर्ग होने के नाते ना बहुत साफ सुन पाते थे और ना ही बहुत साफ बोल पाते थे. हां! बड़े आराम से चल फिर लेते थे और अपनी दिनचर्या के काम बिना सहारे के कर लेते थे. यानी फौजियों वाली ठसक बरकरार थी. इससे बखूबी अंदाजा लगाया जा सकता था कि वह आजाद हिंद फौज के बड़े कर्मठ सिपाही रहे होंगे. आखिरी समय में वह अपने बड़े बेटे शेख अकरम के साथ आजमगढ़ के अपने पैतृक गांव ढकवा में रहे और वहीं उन्होंने अंतिम सांसें भी लीं. इन मुलाकातों के दौरान उन्होंने अपनी याददाश्त पर जोर डालते हुए जो कुछ भी बताया, उसके अनुसार उनके पिता इमाम अली सिंगापुर में कैंटीन चलाते थे. रोजगार की तलाश में निजामुद्दीन भी उन्हीं के पास चले गए जहां उनकी मुलाकात नेताजी सुभाष चंद्र बोस से हुई. ये वो समय था जब नेताजी आजाद हिंद फौज के लिए नए रंगरूटों की भर्ती कर रहे थे. नेताजी ने उनका चयन अपने निजी सुरक्षा गार्ड और वाहन चालक के रूप में कर लिया. उनके अनुसार उन्होंने नेताजी के साथ बर्मा, रंगून, थाईलैंड और जापान जैसे कई देशों की यात्राएं भी कीं.
लड़खड़ाती जुबान और टूटे-फूटे वाक्यों से ही सही, जब वह बातें करते थे तो नेताजी के जीवन के कई वृतांत और अनछुए पहलू बिलकुल सामने आ जाते थे. उनके अनुसार नेताजी उनके हीरो थे और भारत में कोई उनके जैसा पैदा नहीं हुआ. उनका मानना था कि अगर आजादी नेताजी के हिसाब से मिलती तो स्वाधीनता और भारत, दोनों का नक्शा कुछ और होता. नेताजी का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि जो भी उनके संपर्क में आता था, उनका ही होकर रह जाता. ऐसी ही एक घटना को याद करते हुए उन्होंने बताया कि आजाद हिंद फौज की मदद के लिए जुलाई 1943 में बर्मा, सिंगापुर और रंगून के प्रवासी भारतीयों ने उन्हें सोने, चांदी, हीरे-जवाहरात और नकदी से भरे 26 बोरों के साथ तौल दिया था.
बातों-बातों में उन्होंने अपने पीठ पर लगे उस घाव को दिखाया जो उन्हें बर्मा के जंगलों में नेताजी के साथ रहते हुए गोली लगने से लगा था. उनके मुताबिक अंग्रेजों ने नेताजी को निशाने पर रखकर गोलियां चलाई थीं लेकिन संयोगवश उसी समय नेताजी का रूमाल गिर गया और जैसे ही मैं उसे उठाने के लिए झुका तो गोली मुझे लग गई. आजाद हिंद फौज में नेताजी के सबसे विश्वासपात्र सैनिकों में से एक कैप्टन लक्ष्मी सहगल के ईलाज से निजामुद्दीन ठीक हुए और तभी नेताजी ने उन्हें ‘कर्नल’ कहकर पुकारा था.
दिलचस्प बात ये है कि कर्नल निजामुद्दीन नेताजी के उन करीबी लोगों में से एक थे जिन्होंने ताइहोकू विमान हादसे उनके मारे जाने की खबर को कभी भी सच नहीं माना. इसके पीछे उनके पास कई दलीलें थीं. उनमें से एक यह कि अगस्त 1945 को जिस समय नेताजी की मौत की खबर रेडियो पर प्रसारित हो रही थी, उसे वह नेताजी के साथ बर्मा के जंगलों में बैठे सुन रहे थे. सबसे ज्यादा अचरज वाली बात उन्होंने ये बताई कि आखिरी बार उन्होंने नेताजी को 20 अगस्त 1947 में बर्मा की सितांग नदी पर छोड़ा था. यानी ये भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद की बात थी.
उनकी ये बातें मेरे जैसे साधारण इंसान के मन में कई सवाल पैदा करती थीं. मसलन 1945 की विमान दुर्घटना के बाद कर्नल निजामुद्दीन को नेताजी कैसे मिल गए? अगर नेताजी जिंदा थे तो फिर निजामुद्दीन से आजाद भारत में मिलने का वादा करके फिर अपने वतन वापस क्यों नहीं लौटे? अगर लौटे तो फिर सामने क्यों नहीं आए? मैंने साक्षात्कार के दौरान कर्नल निजामुद्दीन से इन सवालों का जवाब जानने की बहुत कोशिश की, लेकिन वह नेताजी से अपनी अंतिम मुलाकात के आगे कुछ बता ना सके. अलबत्ता बातचीत के दौरान वह जिस तरह आजाद हिंद फौज में रंगरूटों की भर्ती, उसके सैनिकों की दिनचर्या, नेताजी के व्यक्तित्व, उनके किस्से और फिर सितांग नदी अथवा फार्मूसा द्वीप जैसे टेढ़े नामों का वर्णन करते, तो उनकी बातों में दम जरूर नजर आता था.
जमा-पूंजी के नाम पर उनके पास आजाद हिंद फौज की टोपी, उसका शिनाख्ती कार्ड और नेताजी की गाड़ी का ड्राइविंग लाइसेंस जैसे कागजात थे. उनमें कुछ कागजात बिलकुल पीले पड़ चुके थे और परत-दर-परत फट चुके थे. हां! कहीं पुराने टाइप-राइटर और कहीं हैंड-राइटिंग के सबब उनके मौलिक होने और नेताजी से जुड़े होने का आभास जरूर होता था. अजीब बात है कि इन साक्ष्यों और उनके दावों के बावजूद कभी किसी सरकार ने ना तो ये माना कि वह नेताजी के करीबी थे और ना ही कभी इसकी सत्यता को जांचने की जहमत गवारा की.
उनकी मौत के साथ कई राज दफन हो गए. अक्सर हम विभूतियों की महानता को इस दुनिया से जाने के बाद स्वीकारते हैं. अभी चंद माह पूर्व ही आजमगढ़ जिला प्रशासन ने उनकी यादों पर आधारित एक दस्तावेजी वृतांत तैयार किया है. जीते-जी इसका विमोचन नहीं हो सका. हो सकता है कि अब उनके जाने के बाद हम उनकी अहमियत समझें और नई पीढ़ी भी स्वंत्रता संघर्ष एवं उसके सेनानियों का बोध हो.
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