New

होम -> समाज

 |  5-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 26 मार्च, 2015 08:41 AM
मर्लरॉन फ्रांसिस
मर्लरॉन फ्रांसिस
  @merlin.francis
  • Total Shares

एक दोस्त को हाई बल्डप्रेशर और तनाव की शिकायत हो गई. उसके डॉक्टर ने सलाह दी है कि वो समाचार चैनलों पर प्राइम टाइम बहस देखने से बचे.

मेरे साथी जैसे कई लोग हैं जो टीवी से चिपके रहते हैं. हर शाम न्यूज चैनल लगा कर बैठ जाते हैं ये जानने के लिए कि हमारे आस-पास दुनिया में क्या चल रहा है. यही बात सुनकर उसके मजा‍किया स्वभाव वाले डॉक्टर भी हंसे थे.

अपने टीवी सेट के सामने बैठ कर जब वो कोई बहस देखते हैं तो उत्तेजित हो जाते हैं. बहस के पक्ष-विपक्ष से जुड़कर. कई मुद्दों पर उनकी राय हताशा पैदा करती है. सामने चल रहे वीडियो, तीखी आवाजें और आक्रामकता. उन्हें सब कुछ लगभग वास्तविक महसूस होता है और वे तनाव में आ जाते हैं. कभी आपने भी सुपर प्राइम टाइम बहस देख कर इस तरह महसूस किया है?

इस देश में पत्रकारिता क्षेत्र में एक बड़ा परिवर्तन आया है. यह ज्यादा मजबूत और साफ हो गया है लेकिन इसकी आत्मा कहीं कोलाहल में खो गई है. कई वर्षों से पत्रकारिता की दुनिया में काम करने की वजह से कह सकती हूँ कि हमारे लोकतंत्र का यह चौथा स्तंभ अब गिरने के कगार पर है. जो पेशा सम्मान के लिए प्रेरित करता था वो आज ऐसे मुकाम पर आ गया है कि इसे मजाक समझा जाने लगा है. ईमानदारी के दावे हवा हो गए हैं.

मीडिया को अपने राजनीतिक हठ और अलग-अलग विचारधाराओं के लिए जाना जाता है. यह उनके संपादकीय नजरिए को नियंत्रित करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. कई बार यह मीडिया हाउस के नजरिए के आधार पर किया जाता है. आप एक पाठक या दर्शक के तौर पर इस बात से सहमत या असहमत हो सकते हैं. लेकिन ये बात आपके गले से नीचे नहीं उतरेगी.

हाल के वर्षों में पत्रकारिता ने एक नया दौर देखा है. समाचार और धारणाओं के पीछे मीडिया घरानों के हितों को भी साधा जा रहा है. इसलिए खबर के तथ्यों और कल्पना के बीच भेद करना मुश्किल है.

सनसनीखेज तथ्यों के आधार पर टीआरपी बढ़ाने के लिहाज से ही स्टोरी तय की जाती हैं. भावनाएं, आँसू, क्रोध, तीखी प्रतिक्रियाएं और नफरत भरी टिप्पणियां सब प्राइम टाइम बहस को कामयाब बनाने के लिए खबरों में जोड़ा जाता है.

इस प्रवृत्ति ने कुछ मामलों में काम किया. पर हद से ज्यादा हो जाने पर ये जनता को सड़कों पर ले आई. एक हद तक ध्रुवीकरण देखने को मिला. ऐसा भी हुआ कि जनता इतना भड़क जाती है कि कानून अपने हाथों में ले लेती है.

खबर कैसे बनाई जाती है इस बात से अनजान जनता अक्सर मीडिया के हाथों की कठपुतली बन जाती है और उनकी धुन पर नाचने लगती है.

दो हाल के मामलों में ये बात साबित होती है:

पहला मामला इंडियाज डॉटर का है. लेस्ली की इस डॉक्यूमेंट्री फिल्म को मीडिया ने इतनी हवा दे दी कि यह एक राष्ट्रीय मुद्दा बन गया. देश की जनता इस फिल्म को लेकर दो मतों में बंट गई. एक जो इसके प्रसारण के हक में थे और दूसरे जो इसके विरोध में थे. यहां तक कि बिना इस फिल्म को देखे ही लोग समाचार चैनलों पर इस फिल्म को लेकर बहस कर रहे थे. जो नफरत के काबिल थे उनका बखान खूब हुआ लेकिन असली बात और कहानी किसी ने नहीं बताई. फिल्म को प्रबंधित कर दिया गया और दुनिया के सामने निर्भया मामले को लेकर हुए सारे आंदोलन की तस्वीर न दिखाए जाने की कोशिश की गई. जिन्होंने इस फिल्म को देखा उनका मानना है कि हर भारतीय को यह फिल्म देखनी चाहिए.

इस फिल्म के मकसद को हमें समझाने के बजाय मीडिया ने फिल्म बनाने वालों को ही निशाने पर ले लिया.

दूसरे केस में, निर्भया मामले पर चली लम्बी बहस के बाद लोगों के बीच हताशा थी. एक बार फिर से जघन्य बलात्कारियों को फांसी दिए जाने की मांग ने जोर पकड़ा. बलात्कारियों को जिंदा रखने वाली सरकार की नीति का विरोध हुआ. नागालैंड के दीमापुर में एक कथित बलात्कारी को सभ्य समाज में रहने वाली जनता ने पीट-पीट कर बेरहमी से मार डाला. बिना आरोप सिद्ध हुए ही लोगों ने कानून अपने हाथों में ले लिया. सोशल मीडिया में इसके समर्थन में कई आवाज़ें उठी.

हम में से कई सहमत होंगे कि बलात्कारियों को सख्त से सख्त सजा मिलनी चाहिए. लेकिन क्या उन्हें सार्वजनिक तौर पर फांसी दी जा सकती है?

नई खबरों पर यकीन किया जाए तो दीमापुर में जनता के हाथों मारा गया आदमी निर्दोष था. केंद्रीय गृह मंत्रालय को भेजी गई नागालैंड सरकार की एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि मृतक ने यौन पीडिता के साथ बलात्कार नहीं किया. मृतक और पीडिता के बीच आपसी सहमति से शाररिक संबंध थे. कहाँ है वो कानून का हिस्सा जिसने इस हत्याकांड को अंजाम देने वालों और उनका समर्थन देने वालों को छोड़ दिया.

बात केवल रिपोर्टिंग के बारे में नहीं है बल्कि जनता की राय बनाने के बारे में है. अपने कंधों पर भारी जिम्मेदारी उठाने वाली मीडिया कैसे लोगों को भड़काने वाले की भूमिका में आ जाती है.

प्राइम टाइम शो में एंकर ऐसे चीखता है जैसे उसके फेफडे बाहर आ जाएंगे. वह हम दर्शकों से ये उम्मीद करता है कि हम मुट्ठी भींच कर उसकी लड़ाई लड़ने के लिए बाहर आ जाएं. जैसे वो रोज न्यूज रुम में हमारी लड़ाई के लिए संघर्ष करता है.

मैं पत्रकारिता के एक पुराने स्कूल से हूँ. जहां एक पत्रकार हमेशा सत्य का साधक होता था. वो पत्रकार जो चापलूसी छोड़कर दुनिया के सामने वो सच्चाई लाने की कोशिश करता था जो हमारे आसपास होती है. ये सब भड़काने के लिए नहीं बल्कि प्रेरणा और शिक्षा देने के लिए होता था. मगर अब संवेदनाओं की जगह सनसनी ने ले ली है.

आज के दौर में मीडिया और खासकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया को ये बात समझनी चाहिए कि बड़ी ताकत के साथ बड़ी जिम्मेदारी भी आती है. मुझे उम्मीद है कि हम उस दौर में नहीं जाना चाहते जहां समाचार चैनल ये चेतावनी दिखाया करेंगे कि समाचार देखना आपके स्वास्थ के लिए हानिकारक हो सकता है!

एक बार फिरः समझ आ गया है कि उसका चिकित्सक मज़ाक नहीं कर रहा था. मेरे दोस्त ने प्राइम टाइम के वक्त अपने परिसर में घूमना भी बंद कर दिया है.

, समाचार, मीडिया, पत्रकार

लेखक

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय