हमें आंख के बदले आंख नहीं, आंख के बदले रौशनी चाहिए
हमारे लिए न्याय का मतलब है, सबके लिए न्याय. अगर हमें बेहतर जीवन चाहिए तो हम उन सबके लिए बेहतर जीवन मांगेंगे, जो आपकी दुनिया में हाशिए पर पड़े हुए हैं क्योंकि सजा दुनिया के किसी अपराध का इलाज नहीं है.
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इस समय सोशल मीडिया की बहसों, मुहल्ले-चौराहे की बैठकों, रिश्तेतदारों की राजनीतिक चिंताओं और तमाम देशभक्तों, नारीभक्तों की फिक्र का सबसे बड़ा सवाल वो नाबालिग है, जो निर्भया केस में तीन साल की सजा काटने के बाद जेल से बाहर आ चुका है. लोग चिंता में छटपटा रहे हैं. कह रहे हैं कि यह अन्याय है. वह नाबालिग नहीं, दरिंदा है. अगर आप उन्हें थोड़े विवेक, थोड़ी करुणा से सोचने के लिए कहें तो वो इमोशन का एक तेज तमाचे आपके गाल पर मारते हैं और पूछते हैं, "निर्भया आपकी बेटी होती तो आप क्या करते."
उनके लिए बीच का कोई रास्ता नहीं है. वो आपको इस पार या उस पार देखना चाहते हैं. अगर आप नाबालिग के पक्ष में हैं तो निर्भया के विरोध में हैं. उनके मुताबिक नाबालिग के लिए भी थोड़ा मानवीय होने का मतलब निर्भया और उसके माता-पिता के लिए अमानवीय होना है. नाबालिग ही क्यों, बकौल उनके बाकी के तीन वयस्क मुलजिमों की भी फांसी की सजा का विरोध करना 16 दिसंबर की रात घटी क्रूरताओं का समर्थन करना है.
उनके लिए सब काला और सफेद है. मीडिया के लिए भी सब काला और सफेद है. हमारे साथ या हमारे खिलाफ.
नाबालिग के मामले में कोर्ट का फैसला क्यों और कैसे सही है, यहां मैं उसकी तकनीकी बारीकियों में नहीं जाना चाहती. अगर आप फैसला सुनाने और फतवे जारी करने की बजाय सचमुच बात को समझना चाहते हैं तो पढ़ें. इंटरनेट में पर्याप्त मात्रा में सामग्री उपलब्ध है.
मैं तो कुछ और ही कहने के इरादे से ये बात कह रही हूं.
मैं ये कह रही हूं कि मेरे आसपास के वे तमाम लोग, जो नाबालिग के छूटने पर भृकुटियां तान रहे हैं, ये वही लोग हैं, जिन्होंने कभी चुपके से तो कभी सीना ठोंककर ये सवाल पूछा था कि इतनी रात गए निर्भया एक लड़के के साथ बाहर थी ही क्यों. ये वही हैं, जो कभी लड़की के कपड़ों तो कभी उसके चरित्र पर सवालिया उंगली उठाया करते हैं. ये वही हैं, जो बलात्कार के लिए लड़कियों को ही दोषी ठहराते हैं. जो हमारे लिए चरित्र प्रमाण पत्र हमेशा अपनी जेब में लेकर घूमते हैं.
वरना क्या वजह है कि एक बच्चा, जो खुद बचपन में यौन शोषण का शिकार हुआ हो, जिसका पूरा जीवन भयानक गरीबी और जहालत में गुजरा हो, जिसने महज 16 साल की जिंदगी में इतनी प्रताड़नाएं झेली हों, उसके प्रति हमारे मन में जरा भी संवेदना न उपजे. (और उसके प्रति भी संवेदना का मतलब निर्भया के प्रति संवेदनहीन होना नहीं है.) हम एक बार भी ये न सोचें कि उसे अपनी गलती को सुधारने, पश्चाताप करने का एक मौका मिले. क्या पता, वो बेहतर हो सके.
क्या सचमुच आंख के बदले आंख ले लेनी चाहिए या आंख के बदले रौशनी मांगनी चाहिए?
अब जरा अपनी तथ्यात्मक जानकारियों का भी रिव्यू कर लीजिए. मेरे मुहल्ले में दिन-रात हार्डवेयर की दुकान पर बैठकर पाइप और टॉयलेट सीट बेचने वाला आदमी भी पूरे विश्वास के साथ यह कहता है कि बलात्कार तो ठीक है, निर्भया के शरीर में रॉड डालने जैसी सबसे जघन्य हरकत उसी नाबालिग ने की थी. सर, आपकी इस इन्फॉर्मेशन का स्रोत क्या है? स्रोत है गॉसिप. क्योंकि इस मामले की जांच कमेटी की रिपोर्ट और मुकदमे के दस्तावेजों में तो कहीं इस बात का जिक्र नहीं है कि यह काम उसी ने किया था. लेकिन सब इसे आंखों देखे सत्य की तरह बयान कर रहे हैं.
और तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात. हम औरतें हैं. आपको एक क्षण के लिए भी यह कैसे लग सकता है कि निर्भया के साथ जो हुआ, उससे हमारी आत्मा नहीं दहली है. कि हमारे मन में कोई सुराख नहीं हुआ है. कि इस समाज में हमारी जिंदगी हर क्षण कैसी चुनौती है, ये डर, ये सवाल उस घटना के बाद और गहरा नहीं हो गया.
लेकिन फिर भी हम कह रहे हैं कि नाबालिग के मामले में हम कोर्ट के फैसले के साथ हैं.
लेकिन फिर भी हम प्रतिशोध नहीं चाहते.
कि हम तो बाकी के तीन आरोपियों की भी फांसी के पक्ष में नहीं. जिंदगी उनकी भी नहीं ली जानी चाहिए. बावजूद इसके कि उन्होंने बड़ी बेरहमी से किसी की जिंदगी ले ली.
क्यों?
जवाब वही है. आंख के बदले आंख नहीं. आंख के बदले रौशनी. सजा नहीं, सुधार का मौका. क्योंकि इतिहास बताता है कि अरुणा शनबाग का गुनहगार भी भले 7 साल बाद जेल से बाहर आ गया हो, लेकिन ताउम्र उस अपराध बोध में जिया. उसे दुख और शर्मिंदगी थी इस बात की. अपराध बोध तो उस मुसलमान नौजवान को भी हुआ, जो 2006 में मुंबई की लोकल ट्रेनों में बम रखने में शामिल था.
अपराध बोध होता है. पश्चाताप होता है. न्याय यही है कि वह हो सके. कि उसके हो सकने की जमीन तैयार हो सके. जेलों के भीतर और जेलों के बाहर समाज जीने लायक हो सके. लेकिन जेल के भीतर तो छोड़िए, जहां जेल के बाहर की दुनिया जेल से बदतर हो, वह समाज अपराधी नहीं तो और क्या पैदा करेगा. जहां जुवेनाइल होम के अंदर बच्चों का यौन शोषण होता हो, उन्हें नंगा करके डंडे से पीटा जाता हो, उस समाज में फांसी की सजा न्याय है.
कैसा स्वार्थी, मध्यवर्गीय न्याय है ये?
लेकिन हम औरतें जो खुद इतिहास और समाज की सताई हुए हैं, हमें न्याय की इस अवधारणा से आपत्ति है. हमारे लिए न्याय का मतलब है, सबके लिए न्याय. अगर हमें बेहतर जीवन चाहिए तो हम उन सबके लिए बेहतर जीवन मांगेंगे, जो आपकी दुनिया में हाशिए पर पड़े हुए हैं क्योंकि सजा दुनिया के किसी अपराध का इलाज नहीं है. किसी को फांसी पर चढ़ा देने से स्त्रियों के खिलाफ अपराध नहीं रुक जाएंगे. उन तीनों की फांसी और नाबालिग के साथ बालिगों जैसा व्यवहार करने से हम सड़कों पर और अपने घरों में सुरक्षित नहीं हो जाएंगे. हम सुरक्षित होंगे, जब आपकी सोच बदलेगी, जब समाज बदलेगा. जब सिर्फ किसी एक बलात्कार पर नहीं, बल्कि बलात्कार की समूची सामाजिक संस्कृति पर सवाल किए जाएंगे. जब हमारे घरों, मुहल्लों, आलीशान दफ्तरों, बस, ट्रेन, सड़क, हर जगह हरेक स्त्रीर का सम्मान करना सीखेंगे. जब हम रोजमर्रा की जिंदगी में स्त्रीद-पुरुष के बीच हर तरह के यौन विभेद पर बोलेंगे और लड़ेंगे.
और जरा सोचिए, हम तो ये तब कह रहे हैं, जबकि हम जानते हैं कि पूरा समाज हम औरतों के प्रति किस कदर फैसले सुनाने को आतुर समाज है. कि हमारी हर गतिविधि हमेशा सवालों के घेरे में है. आप तो हमारी बहुत स्वाभाविक, प्राकृतिक इच्छाओं के प्रति भी उदार नहीं हैं. हमें हमेशा जज करते हैं. हमलावर होते हैं. और हम हर घड़ी खुद को सही और चरित्रवान साबित करने में लगे रहते हैं. हमारे साथ छेड़खानी हो तो हमारा ही चरित्र शक के दायरे में है.
आपकी दुनिया हमारे प्रति बहुत क्रूर है, लेकिन बावजूद इसके हमें आपके लिए भी वो दुनिया, वो फैसले, वो जिंदगी नहीं चाहिए, जो हमारे हिस्से में आई है. हमें बेहतर दुनिया चाहिए. अपने लिए और आपके लिए भी.
हमें बदला नहीं चाहिए.
हमें आंख के बदले आंख नहीं, आंख के बदले रौशनी चाहिए.
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