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Updated: 15 सितम्बर, 2021 11:36 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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आबादी के लिहाज से सर्वाधिक पढ़े-लिखे राज्यों में पहला स्थान रखने वाले केरल (Kerala) में आज भी ट्रेड यूनियन नोक्कू कूली (Nokku Kooli) जैसी भयावह प्रथा के तहत जबरन पैसों की उगाही करते हैं. चौंकाने वाली बात ये है कि ये ट्रेड यूनियन उस काम के लिए उगाही करते हैं, जो उन्होंने किया ही नही है. केरल की पिनराई विजयन सरकार ने नोक्कू कूली को 2018 में बैन कर दिया था. कई जगहों को नोक्कू-कूली फ्री जिला भी घोषित किया गया. लेकिन, राज्य सरकार द्वारा पोषित ये ट्रेड यूनियन नोक्कू कूली के तहत अभी भी दुकानदारों, आम नागरिकों और भवन निर्माण कराने वालों, ट्रांसपोर्ट वाहनों के मालिकों वगैरह से जबरन वसूली करते आ रहे हैं.

इस मामले ने हाल ही में तब तूल पकड़ा, जब इसरो (ISRO) के एक ट्रक को इन कथित मजदूरों ने तिरुवनंतपुरम के दक्षिण तुंबा में विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर (VSSC) के दरवाजे पर रोक लिया. जबरन वसूली करने वाले इन कथित मजदूरों ने इस ट्रक को अंदर जाने देने के लिए 10 लाख रुपये की मांग की. हालांकि, राज्य सरकार और पुलिस के हस्तक्षेप के बाद ये मामला निपटा लिया गया. मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, भारी विरोध-प्रदर्शन के बीच केरल की पिनराई विजयन (Pinarayi Vijayan) सरकार के श्रम मंत्री वी शिवनकुट्टी ने इस मामले को बातचीत से सुलझा लिया.

भारत का एक मजदूर (Labour) सामान्य तौर पर हर रोज अपने घर से काम की तलाश में निकलता है. लेबर मंडी में पहुंचकर सैकड़ों अन्य मजदूरों के साथ किसी भी तरह काम पाने की कोशिश करता है, जिससे उसके घर का चूल्हा जल सके. लेकिन, केरल के इन उगाही करने वाले मजदूरों को इस बात की फिक्र नहीं होती है कि उन्हें सुबह जल्दी उठकर काम की तलाश में निकलना है. लेकिन, केरल में मामला थोड़ा अलग है. जबरन वसूली करने वाले ये 'मजदूर' आराम से सोकर उठते हैं. जहां कोई काम चल रहा होता है, वहां पहुंचते हैं. काम करवा रहे शख्स से मजदूरी के नाम पर जबरन उगाही की रकम तय करते हैं. उसके बाद जाकर किनारे खड़े हो जाते हैं. काम पूरा होने के बाद वो उस शख्स के पास जाकर अपनी कथित मजदूरी (Wages) लेते हैं और हंसी-खुशी घर लौट आते हैं.

भारत के अन्य राज्यों की आम भाषा में इस जबरन वसूली को 'गुंडा टैक्स' कहा जा सकता है.भारत के अन्य राज्यों की आम भाषा में इस जबरन वसूली को 'गुंडा टैक्स' कहा जा सकता है.

भारत के सबसे शिक्षित राज्य केरल में ये बहुत आम सी बात है, जो दशकों से होता चला आ रहा है. वैसे, भारत के अन्य राज्यों की आम भाषा में इस जबरन वसूली को 'गुंडा टैक्स' कहा जा सकता है. लेकिन, केरल में 'लाल झंडे' वाले संगठनों के मजदूर इसे काम होता देखने मे की गई अपनी मेहनत का पैसा मानते हैं. देश के सबसे शिक्षित राज्य केरल में मजदूरों को कम से कम ये अधिकार तो होना ही चाहिए कि वो अपना मेहनताना खुद तय कर सकें और वो भी उस काम के लिए जो उन्होंने किया नही, बल्कि पूरा होते हुए देखा है. आइए जानते हैं कि नोक्कू कूली क्या है और इसका राज्य की पिनराई विजयन सरकार से क्या कनेक्शन है?

नोक्कू कुली- बिना मेहनत का मेहनताना

केरल में दशकों से नोक्कू कूली की प्रथा के तहत कथित ट्रेड यूनियन किसी भी तरह का सामान चढ़ाने-उतारने (लोडिंग-अनलोडिंग) के लिए जबरन उगाही करते हैं. संगठित श्रमिक संगठनों और ट्रेड यूनियन के कथित 'मजदूर' उन कामों के भी जबरन वसूली को अंजाम देते हैं, जो भारी-भरकम मशीनों से ही पूरे किये जा सकते हैं. दरअसल, ये मजदूर मशीनों से काम करने की मंजूरी देते हैं और उसके एवज में जबरन उगाही करते हैं. उदाहरण के तौर पर किसी वर्कसाइट पर अगर कोई शख्स अपने मजदूरों के साथ काम करा रहा है, तो इन संगठनों के मजदूर वहां पहुंचकर उस काम के पैसे मांगते हैं. मना करने पर हिंसा, तोड़-फोड़ जैसे हथकंडे अपनाए जाते हैं. भारी मशीनरी की लोडिंग-अनलोडिंग (जबकि ऐसा कोई मजदूर नहीं सिर्फ मशीन कर सकती है) के लिए भी ये मजदूर ऐसा ही करते हैं. ये मजदूर संगठन राज्य के हर कोने में छोटे-मोटे दुकानदारों से लेकर बड़े-बड़े बिल्डर्स तक से उस काम के लिए जबरन वसूली करते हैं, जो उन्होंने किया नहीं है. लेकिन, उसे करने की अनुमति दी है. मलयालम के शब्द नोक्कू कूली को आमतौर पर केवल देखने का मेहनताना कहा जाता है. केरल में नोक्कू कूली के तहत हर काम के लिए एक रकम तय है. वो काम किये जाने पर इन संगठनों को पैसे देने ही पड़ते हैं.

विजयन सरकार से 'वामपंथी' कनेक्शन

केरल में नोक्कू कूली के तहत जबरन वसूली करने का काम वामपंथी यानी लेफ्ट विचारधारा (Left) के मजदूर संगठनों सीटू, इंटक वगैरह के अलावा कुछ स्थानीय संगठनों द्वारा भी किया जाता है. राज्य में कई दशकों से चली आ रही इस जबरन वसूली को केरल सरकार का मौन समर्थन मिला हुआ है. दरअसल, केरल में जिस कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्कसिस्ट) यानी सीपीआईएम की राज्य सरकार है, ये सभी मजदूर संगठन उसी पार्टी से संबंध रखते हैं. वैसे, तो 'लाल झंडे' वाले मजदूर संगठन पूरे देश में फैले हुए हैं. लेकिन, केरल में लंबे समय तक सरकार में रहने वाली वामपंथी दलों ने इन संगठनों को दशकों से पोषित किया है. दरअसल, ये सभी लोग वामपंथी दलों से ही जुड़े हुए हैं, तो राज्य सरकार ने इन्हें कभी भी रोकने की जहमत नहीं उठाई. अगर ऐसा करते, तो इन पार्टी वर्कर्स यानी मजदूरों से हाथ धोना पड़ सकता था. जबरन वसूली के इस रैकेट पर दशकों तक कोई कार्रवाई न करते हुए वामपंथी दलों ने अपने काडर को मजबूत किया.

साफ सी बात है कि वामपंथी दलों के हर कार्यकर्ता को सरकारी या प्राइवेट नौकरी तो नहीं दी जा सकती है. तो, वामपंथी दलों ने नोक्कू कूली के रूप में एक ऐसा मैकेनिज्म तैयार कर दिया, जिससे उनके मजदूर संगठनों के कार्यकर्ताओं को पैसों की कमी न हो. सरकार के समर्थन से ये मजदूर संगठन लगातार फलते-फूलते रहे और राज्य में बड़े स्तर पर प्रभावी हो गए. सभी तरह के कामों के लिए वामपंथी दलों के ये कार्यकर्ता लोगों से जबरन वसूली करते हैं. अगर पैसे देने से इनकार किया, तो मारपीट, तोड़-फोड़ का सरल रास्ता अपना लेते हैं. राज्य सरकार के समर्थन की वजह से पुलिस भी इन मजदूर संगठनों के जबरन वसूली के मामलों पर चुप्पी ही साधे रहती है. इसरो के ट्रक के साथ हुई घटना से समझा जा सकता है कि ये मजदूर संगठन केवल वामपंथी दलों के ही बड़े नेताओं की बात मानते हैं. राज्य का औद्योगिक विकास न होने के पीछे नोक्कू कूली प्रथा को ही वजह माना जाता है.

केरल हाईकोर्ट की फटकार

हाल ही में केरल हाईकोर्ट ने राज्य की पिनराई विजयन सरकार को नोक्कू कूली प्रथा के मामले में फटकार लगाई थी. दरअसल, सीएम पिनराई विजयन ने 2018 में इस प्रथा को बैन कर दिया था. हालांकि, उसके बावजूद भी राज्य के वामपंथी मजदूर संगठन और ट्रेड यूनियन नोक्कू कूली प्रथा के तहत जबरन वसूली करते रहे. केरल हाईकोर्ट ने कहा था कि बैन के बाद भी नोक्कू कूली के तहत मजदूर संगठन जबरन वसूली करते है, जिससे निवेशक राज्य में आने से डरते हैं. सरकार को ट्रेड यूनियनों की इस जबरन वसूली पर पूरी तरह से रोक लगानी चाहिए. हाईकोर्ट के सामने एक व्यवसायी से जबरन वसूली का मामला सामने आया था.

कानपुर की मिलें और वामपंथी मजदूर संगठन

किसी जमाने में पूरब का मैनचेस्टर कहे जाने वाले कानपुर में दर्जनों मिलें और फैक्ट्रियां हुआ करती थीं. मजदूरों की सैलरी का आलम ये था कि उस समय लोग केंद्र सरकार की आयुध फैक्ट्रियों में काम करने की जगह मिलों में काम करना पसंद करते थे. मेरे परिवार से भी कई लोग इन मिलों में कार्यरत रहे हैं, तो इसकी कहानियां सुनकर बड़ा हुआ है. वामपंथी दलों का गढ़ कहे जाने वाले कानपुर में समय के साथ लाल झंडे वाली यूनियनों ने मजदूरों को अधिकारों के नाम पर बरगलाना शुरू किया. आये दिन हड़तालें होने से फैक्ट्रियों पर ताले पड़ने लगे. 70 के दशक में हुए एक गोलीकांड के बाद मिलें और फैक्ट्रियां बंद होने लगीं. मेरे बाबा बताते थे कि लाल झंडे वाली ये ट्रेड यूनियनें मजदूरों से हड़ताल करवाकर मिल और फैक्ट्री मालिकों से पैसे खाती थीं. वैसे, यूनियनों के हावी होने की वजह से मजदूर सड़क पर आ गए. अब कानपुर में न मिलें बचीं, न मजदूर, न ही ट्रेड यूनियन.

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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