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Updated: 23 जून, 2017 08:56 PM
बिलाल एम जाफ़री
बिलाल एम जाफ़री
  @bilal.jafri.7
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ज्यादा नहीं कुछ एक साल ही हुए हैं भारत को एक सस्ता मार्केट और भारतीय युवाओं को मेहनतकश कर्मचारी समझ कर कई कंपनियों ने निवेश करते हुए अपने सेट अप भारत में शुरू किये थे. कॉल सेंटर से लेकर इंजीनियरिंग तक हर ओर नौकरियों की बहार थी. कम्पनियां आ चुकी थीं, दफ्तर खुल चुके थे. दफ्तरों में टेबल, कुर्सी, मेज, कंप्यूटर सब था मगर कर्मचारी नहीं थे.

ऐसा नहीं था कि लोग नहीं थे बस बात ये थी की वो इंटरव्यू का रिटन तो निकाल लेते मगर एचआर को अपनी अंग्रेजी से संतुष्ट न कर पाते. कारण की सारी दुनिया के सामने भारतीयों के लिए ये मान्यता है कि भारतीयों की अंग्रेजी कमजोर होती है जिसके चलते उन्हें अंग्रेजी बोलने और समझने में बड़ी दिक्कत होती है.

वो दौर अलग था, ये दौर अलग है. तब के मुकाबले आज की स्थिति ज्यादा परेशान करने वाली है. आज व्यक्ति को अंग्रेजी आनी चाहिए. अब अंग्रेजी को लेकर कोई बहाना नहीं चलता कह सकते हैं कि आज मार्कशीट में आपके नंबर और ग्रेड कितने भी हों अगर आपको इंग्लिश नहीं आती तो आप कुछ भी कर लें, नौकरी नहीं पा सकते. बहरहाल इतना जानने के बाद शायद आपके मन में ये विचार कौंधे कि हम आज अचानक इंग्लिश को लेकर इतनी वकालत क्यों कर रहे हैं तो इसका कारण बड़ा ही दिलचस्प है.

सुषमा स्वराज, पासपोर्ट, हिंदी  पासपोर्ट हिंदी में हो या इंग्लिश में, इस उलझन में है सरकार

खबर हमारे विदेश मंत्रालय से जुड़ी है और बेहद अनूठी है. खबर है कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने पासपोर्ट के वर्तमान स्वरूप के बदलाव की घोषणा करते हुए कहा है कि अब पासपोर्ट सिर्फ अंग्रेजी में ही नहीं बल्कि हिंदी भाषा में भी होगा.

विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा है कि अब पासपोर्ट में अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी लिखी होने से व्यक्ति के लिए ये समझना आसान हो जाएगा ​कि पासपोर्ट में क्या पूछा गया है. साथ ही इस फैसले पर सुषमा का ये भी तर्क है कि इस फैसले से जहां मातृभाषा को बढ़ावा मिलेगा वहीं, अंग्रेजी न जानने या कम जानने वालों को भी समझने में आसानी होगी.

अब इस पूरे मामले पर गौर करें तो दो अहम बिन्दुओं पर हमारी नजर ठहरती है. पहला 'हिन्दी' के तौर पर मातृभाषा को बढ़ावा देना साथ ही अंग्रेजी न जानने या कम जानने वालों को पासपोर्ट से जुड़ी जानकारियों को समझने में आसानी होना. गौरतलब है कि सर्वप्रथम तो भारत जैसे विस्तृत देश में हिन्दी को मातृभाषा बनाने की अवधारणा ही गलत है. ऐसा इसलिए क्योंकि भारत में प्रत्येक दस किलोमीटर पर भाषा का स्वरुप, उसके बोलने का तरीका तथा शैली बदल जाती है.

अतः मातृभाषा की कल्पना यहां संभव नहीं है. दूसरा ये कि यदि सरकार सिर्फ इसलिए हिन्दी में पासपोर्ट बना रही है कि देश के लोगों को इंग्लिश समझने में परेशानी होती है या उन्हें दिक्कतों का सामना करना पड़ता है तो ये साफ तौर पर हमारी शिक्षा व्यवस्था पर सवालिया निशान खड़े करता है.

गौरतलब है कि भारत का एक बड़ा भू भाग हिन्दी बोलता है मगर मातृभाषा के तौर पर उसे अन्य राज्यों पर थोपना बेहद चिंता का विषय है. इस बात को कर्नाटक की राजधानी बैंगलोर में हुई एक घटना से समझा जा सकता है. बीते दिनों ही बैंगलोर में नम्मा मेट्रो की ग्रीन लाइन सेवा की शुरुआत की गयी है और स्टेशन पर स्थानों के नाम कन्नड़ा के बजाए हिंदी में दर्शाए गए हैं, इस घटना से प्रदेश की जनता में रोष है उनका कहना है कि ये हमारी संस्कृति का हनन है और जबरदस्ती हिन्दी को हम पर थोपा जा रहा है.

इसके अलावा तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश तक में यही स्थिति है. ध्यान रहे कि सुदूर दक्षिण से लेकर उत्तर पूर्व तक में, लोगों के बीच इस भावना का संचार किया जा रहा है कि एक भारतीय के लिए हिन्दी जानना अनिवार्य है जो लोगों को बिल्कुल भी पसंद नहीं आ रही.

बहरहाल इस पूरे मामले पर हम इतना ही कहेंगे कि सरकार को खुद इस बात पर विचार करना चाहिए कि पासपोर्ट का इस्तेमाल सिर्फ गैस सिलिंडर या मोबाइल का सिम लेने के लिए नहीं किया जाता. ये विदेश में किसी भारतीय का आइडेंटिटी प्रूफ होता है कहीं ऐसा न हो कि हिंदी वाले पासपोर्ट के चक्कर में अन्य देश के किसी अधिकारी के सामने हमें लेने के देने ही पड़ जाएं. अंत में इतना ही कि सरकार को इस फैसले पर पुनर्विचार करने की जरूरत है. कहीं ऐसा न हो सरकार का ये अनोखा फैसला हमारी जग-हंसाई का कारण बने.

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लेखक

बिलाल एम जाफ़री बिलाल एम जाफ़री @bilal.jafri.7

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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