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Updated: 21 जनवरी, 2016 06:37 PM
गिरिजेश वशिष्ठ
गिरिजेश वशिष्ठ
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दिल्ली में इतिहास की सबसे 'ऑड' पर्यावरण शुद्धिकरण योजना 'ऑड ईवन' के प्रयोग के 15 दिन पूरे हो गए हैं. केजरीवाल कह रहे हैं कि वो बहुत खुश हैं, वो सफल रहे. मीडिया भी तालियां पीटने में जुटा हुआ है और तो विपक्षी पार्टियों के मुंह पर भी ताला पड़ गया है. सफलता से इतराते अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि वो दोबारा इस योजना के साथ आएंगे. उनका कहना है नयी योजना को तब्दील कर बेहतर बनाया जाएगा. ऑड ईवन को लेकर दोबारा सवाल न उठें इसलिए बार-बार इस सफलता की कहानी को बढ़ा चढ़ाकर जताया जा रहा है. दिल्ली सरकार छत्रसाल स्टेडियम में एक जलसा करने वाली है. इस जलसे में केजरीवाल और उनके मंत्री पुलिस अफसरों के साथ जाकर जनता को धन्यवाद देंगे. सवाल उठता है धन्यवाद किस बात का?  कहीं ये धन्यवाद इसलिए तो नहीं कि दिल्ली की जनता ने अपने चैन और अमन की कीमत पर सरकारी और नौकरशाही के आलस्य, काहिली और अकर्मण्यता की कीमत चुकाई. क्या ये धन्यवाद इसलिए है कि सरकार ने पिछले 30 साल सोते हुए गुजार दिए और अब उस नींद का खामियाजा दिल्ली ने भुगता.

सफलता इसलिए दिखाई दे रही है क्योंकि देखने वालों की नजर कार से शुरू होती है और कार पर ही खत्म हो जाती है. सड़क पर कार कम हैं तो फार्मूला हिट हो गया, अगर कार ज्यादा है तो फार्मूला फ्लॉप. घर से दफ्तर उड़ते हुए पहुंच गए तो हिट, जाम मिला तो फ्लॉप. लेकिन सम विषम फार्मूला न तो इतना सरल है और न ही इसकी सफलता और असफलता का अंदाजा इस चश्मे से लगाया जा सकता है. सम विषम की सफलता का पता लगाना है तो उसके दीर्घकालीन और अल्पकालीन प्रभावों को भी समझना होगा. सबसे ज्यादा उस पहलू को जांचना होगा जिसके नाम पर सड़कों पर कार निकालने पर बंदिशें लगाई गई थीं. ये पहलू है पर्यावरण का. हवा में होने वाले प्रदूषण का. बाकी सामाजिक प्रभावों और पहलुओं पर बात करने से पहले हम पर्यावरण को ही समझते हैं. दावा किया गया था कि दिल्ली की हवा साफ हो जाएगी. लोगों को सांस की बीमारी नहीं होगी. बच्चों को नेबुलाइजर नहीं लगाना पड़ेगा. इसके अलावा कैंसर वगैरह का डर दिखाकर भी लोगों को समझाया गया. चूंकि अब 15 दिन पूरे हो चुके हैं तो समझना पड़ेगा कि वाकई हवा कितनी साफ हुई. 

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टाटा एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट यानी टेरी के एक्सपर्ट का कहना है कि दिल्ली की हवा का साफ होना या गंदा होना सिर्फ दिल्ली जैसे छोटे से भूभाग से तय नहीं होता. हवा का साफ या गंदा होना पूरे रीजन, पूरे देश और तो और पूरे महाद्वीपों के हालात पर निर्भर करता है. हरियाणा के रोहतक से गाजियाबाद तक का सफर तय करने में हवा को 20 मिनट से ज्यादा नहीं लगते यानी एक जगह का प्रदूषण दूसरी जगह पहुंचना मामूली सी बात है. मौसम की भूमिका भी मौसम के बदलने में अहम होती है. यही वजह है कि पूरे एनसीआर की आधी गाड़ियां घरों में रखवा लेने के बावजूद 15 दिन साफ सुथरी हवा के नहीं रहे. 4 से 8 जनवरी के बीच पूरे 5 दिन ऐसे रहे जिनमें दिल्ली में प्रदूषण पिछले साल के मुकाबले काफी ज्यादा बढ़ गया. अगर ऑड इवन इतना महान और सुलझा हुआ अभियान था तो इन दिनों में भी प्रदूषण नहीं बढ़ना चाहिए था. लेकिन फिर भी बढा. यानी प्रदूषण के होने या न होने पर ऑड इवन से जो असर पड़ा वो न के बराबर था. वैसे भी कारें प्रदूषण फैलाने वाले कारकों में से एक ही हैं.  

अब आते हैं दिल्ली में ट्रैफिक कम होने या न होने पर. आप जिसे ट्रैफिक कहते हैं वो आने-जाने की सुविधाओं का एक पहलू भर है. हमने ऑड और इवन के मामले में दिल्ली आने-जाने के सिर्फ कार वाले पहलू पर तो विचार किया लेकिन जो लोग पहले ही दिल्ली में मेट्रो और दूसरे साधन अपना रहे थे उनके बारे में सोचा ही नहीं. बस में सफर करने वालों पर आपने रहम नहीं किया. जुर्माने की धमकी देकर दिल्ली के आधे कार वालों को बाहर निकालकर उन लोगों के सिर पर फेंक दिया जो पहले ही मेट्रो और दूसरे सार्वजनिक परिवहन के रास्तों पर अमल कर रहे थे. मेट्रो के कई रूट तो ऐसे थे जिन पर 50 फीसदी से ज्यादा मुसाफिर बढ़े. नोएडा से दिल्ली जानेवालों की संख्या में करीब 53% बढोतरी हुई. बढी भीड़ से सबसे ज्यादा परेशान दफ्तर जाने वाले लोग हुए. नतीजा ये हुआ कि मेट्रो से सफर करने वाले लोग भीड़ से बचने के लिए टैक्सी या निजी वाहनों का सहारा लेने को मजबूर हो गए. आपने सोचा ही नहीं कि जनता कैसे आपकी इस मीठी तानाशाही को झेलेगी. आप मारते भी रहे और उफ भी न करने दिया. जब मेट्रो में अंधाधुंध भीड़ की तस्वीरें आयीं तो एक पुरानी तस्वीर बीच में घुसा दी गई. उस तस्वीर पर विवाद खड़ा हुआ और भीड की सारी कहानियां संदेह के घेरे में आ गईं.

लेख के शुरु में मैंने सत्तातंत्र की काहिली की बात की. उस पर विस्तार से बात करें तो बात लंबी हो जाएगी. लेकिन संक्षेप में बताऊं तो...

* दिल्ली से वो सभी फालतू केन्द्रीय संस्थान तुरंत बाहर भेज देने चाहिए जो दिल्ली में न भी रहें तो आराम से काम चल सकता है.

* दिल्ली में कारखाने लगाने वालों को अपने कर्मचारियों के लिए आवास बनाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि कर्मचारियों के सड़कों पर आने जाने की अनिवार्यता खत्म हो.

* एनसीआर बोर्ड के काम को समयबद्ध तरीके से लागू किया जाए.

* काउंटर मैगनेट सिटी योजना पर तेजी से काम हो. जयपुर, ग्वालियर समेत सभी काउंटर मैग्नेट शहरों को जल्द से जल्द विकसित किया जाए ताकि दिल्ली का बोझ कम हो सके.

* दिल्ली के ऊर्ध्व विकास यानी वर्टिकल डेवलपमेंट की नीति को वापस लिया जाए. इस नीति से दिल्ली में बिल्डरों की मौज होगी. बहुमंजिला इमारतें बनेंगी. लेकिन यहां के इन्फ्रास्ट्रक्चर पर दबाव बढ़ जाएगा.

* केन्द्र और राज्य सरकार के कर्मचारियों को दिए गए आवास एनसीआर और दूर-दराज में भेजकर उनकी जगह दिल्ली में व्यावसायिक और इन्स्टीट्यूशनल इमारतें खड़ी करने की नीति खत्म हो.

आपातकालीन योजना के तौर पर भी ऑड इवन से बेहतर विकल्प हैं. दफ्तरों के खुलने का समय अलग-अलग रखना और साप्ताहिक अवकाश अलग अलग रखना दो ऐसे विकल्प हैं जिनसे इमरजेंसी में भी सड़कों की भीड़ कम की जा सकती है. 

लेखक

गिरिजेश वशिष्ठ गिरिजेश वशिष्ठ @girijeshv

लेखक दिल्ली आजतक से जुडे पत्रकार हैं

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