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Updated: 13 मई, 2016 01:51 PM
डॉ. मोनिका शर्मा
डॉ. मोनिका शर्मा
  @drmonica.sharrma
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बिहार में हुए रोडरेज मामले को लेकर समाचार चेनलों पर आदित्य सचदेव की मां का रोना और न्याय के लिए गुहार लगाना, हमें अपना ही मुंह छुपाने को मजबूर करने वाला दृश्य है. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि यही हमारे परिवेश का सच है. सच, जिसमें धन और बल के आगे इंसान के जीवन का कोई मोल नहीं. अब तो हम शायद हैरान भी नहीं होते क्योंकि ऐसे सच तो किसी ना किसी रूप में आए दिन हमारे सामने आते ही रहते हैं. लेकिन राजनीतिक दावपेचों और अपराधियों के बचाव के खेल से इतर, एक बड़ा सवाल यह भी है कि हम कैसे बच्चे बड़े कर रहे हैं? बाहुबल और रसूख के दम पर दुनिया को अपने पैरों तले रखने की सोच वाले बच्चों में संवेदनशीलता कहां से आएगी? महंगी गाड़ियों और बन्दूक को साथी बनाने वाली इस नई पीढ़ी की पौध में मानवीय भाव बचेंगें भी तो कैसे? जब रसूख का नशा इन घरों की ही नस-नस में बहता हो. नतीजतन यही मद इन बच्चों के भी सर चढ़कर बोलता है, तो यह समझना मुश्किल कहां कि ये किसी इंसान के जीवन मोल समझ ही नहीं सकते.

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कानून कायदों और सजा के प्रावधान से परे समाज में कम उम्र में धन-बल की सनक और सत्ता की हनक समझने वाले बच्चे आखिर कैसे बच्चे हैं? यह एक बड़ा सवाल है. हमारे यहां की न्यायिक लचरता और प्रशासनिक गैर जिम्मेदारी की बात किसी से छुपी नहीं है. मामला कैसा भी हो अगर कोई रसूखदार उसमें शामिल है तो सब लीपापोती में जुट जाते हैं. जैसा कि इस मामले में होता दिख रहा है. लेकिन एक बात और भी गौर करने लायक है कि ऐसे बर्बर नागरिकों की परवरिश के मामले में हमारे हालात पारिवारिक और सामाजिक मोर्चे पर भी कुछ खास अच्छे नहीं हैं. जी हां, वही परिवार जिसे हर इंसान के जीवन की पहली पाठशाला माना जाता है. परिवार, जिसे ज़िन्दगी की नींव कहा जाता है, जिसपर बच्चों का पूरा मानवीय व्यक्तित्व खड़ा होता है. बिना बात ही किसी की जान ले लेने वाले बच्चों की असंवेदनशीलता परिवार की भूमिका को भी सवालों के घेरे में ले आती है.

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ऐसे वाकये देखकर यह सोचना जरूरी हो जाता है कि हम, यानी हमारे परिवार देश को कैसे नागरिक दे रहे हैं? साथ ही ये निर्मम घटनाएं अपने ही देश में हमें असहाय होने का अनुभव करवाती हैं. ऐसे हालातों में स्वयं सही राह पर चलकर भी सुरक्षा हासिल नहीं, इस बात को पुख्ता करती हैं. ऐसी परिस्थितियों में पलायन की सोच बहुत प्रभावी हो जाती है. जो कि हो भी रहा है. हम जरा ठहर कर किसी की मदद के लिए रुकना तो दूर, ऐसी घटनाओं पर विचार करना भी भूल रहे हैं. परिवार की भूमिका पर इस मामले में सवालिया निशान लगता है कि आमतौर पर ऐसी घटनाओं को अंजाम देने के बाद स्वयं परिवार वाले ही भयावह कृत्य करने वाले लाडलों को बचाने निकल पड़ते हैं? रसूख वाले हैं तो बाकी सारी व्यवस्थाएं तो साथ देती ही हैं. यही वो बातें हैं जो संघर्ष और अभावों को जाने समझे बिना बड़े होने वाले बच्चों को सत्ता और धन के मद से चूर कर देती हैं. उन्हें सब कुछ खरीद लिए जाने जैसा लगने लगता है, यहां तक कि इंसान की जान भी.

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 ऐसी कई घटनाएं इन दिनों देखने में आ रही हैं जिनमें बच्चे बेधड़क यही सीख रहे हैं कि उन्हें ना तो किसी का मान करना है और ना ही उम्र का लिहाज.

चिंतनीय यह भी है कि यह बात सिर्फ नेताओं और बड़े बिजनेस घरानों के सपूतों पर ही लागू नहीं होती. आजकल तकरीबन हर परिवार में बच्चों को हैसियत से ज्यादा चीजें और जरूरत से ज्यादा सुविधाएं देने का चलन आम है. इस दिखावे का सबसे बड़ा और दुखद पहलू यह है कि अब बच्चे बच्चों सरीखे रहे ही नहीं. गहराई से गौर करें तो पाते हैं कि जब हम बच्चों को मनुष्यता का मान करना ही नहीं सीखा रहे हैं तो वे किसी इंसान के जीवन का मोल क्या करेंगें? किसी की पीड़ा क्या समझेंगें? यूं भी यह एक अकेला मामला नहीं है. ऐसी कई घटनाएं इन दिनों देखने में आ रही हैं जिनमें बच्चे बेधड़क यही सीख रहे हैं कि उन्हें ना तो किसी का मान करना है और ना ही उम्र का लिहाज. देखने में यह भी आ रहा है कि नकारात्मक आचरण के इस मार्ग पर बड़े बच्चों के साथ कोई टोका-टाकी करते भी नहीं दिखता. हमारे परिवेश में ऐसा बहुत कुछ देखने को मिलता है जो पुख्ता करता है कि जाने-अनजाने अभिभावक ही बच्चों को इंसानियत से ज्यादा का चीजों का मान करना सिखा रहे हैं. ऊंच-नीच और छोटे-बड़े का अंतर बता रहे हैं. समझना कठिन नहीं कि इस भेद का मापदंड पॉवर और पैसा है. आज की इसी दुर्भाग्यपूर्ण परवरिश के दम पर हमारे यहां सड़कों पर सत्ता की हनक दौड़ती है, जिसके लिए किसी की जान को कुचलना कोई बड़ी बात नहीं.

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लेखक

डॉ. मोनिका शर्मा डॉ. मोनिका शर्मा @drmonica.sharrma

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

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