गुडफेलोज सीनियर सिटीजन स्कीम, बुजुर्गों के लिए नहीं युवाओं के लिए है!
गुडफेलोज सीनियर सिटीजन स्कीम का फायदा वही बुजुर्ग उठा सकते हैं जो अमीर हैं. जिनके पास पैसा है. जिन्हें पेंशन के रूप में मोटी रकम मिलती है. वरना जो बुजुर्ग गरीब हैं, जिनके बच्चे उन्हें अकेला छोड़ गए हैं, उन्हें तो पूछने वाला भी कोई नहीं है. उन्हें तो वृद्धाआश्रम की ही शरण लेनी पड़ेगी.
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बुजुर्गों के अकेलेपन को दूर करने के लिए रतन टाटा ने गुडफेलोज सीनियर सिटीजन स्कीम में निवेश किया है. हमारे हिसाब से इस स्कीम का फायदा वही बुजुर्ग उठा सकते हैं जो अमीर हैं. जिनके पास पैसा है, जिन्हें पेंशन के रूप में मोटी रकम मिलती है. वरना जो बुजुर्गों गरीब हैं, जिनके बच्चे उन्हें अकेला छोड़ जाते हैं उन्हें पूछने वाला अब भी कोई नहीं है. उन्हें तो वृद्धाआश्रम की ही शरण लेनी पड़ेगी.
गुडफेलोज के संस्थापक शांतनु नायडू टाटा के ऑफिस में जनरल मैनेजर हैं. उनके स्टार्ट-अप गुडफेलोज सीनियर सिटीजन नाम सुनकर लगता है कि देश के बुजुर्गों के लिए कितनी बढ़िया स्कीम की शुरुआत हुई है. ऐसा लगता है कि अब बुढ़ापे में अकेले नहीं रहना पड़ेगा. माने कोई होगा जो बुजुर्गों की सेवा करेगा, उनके साथ बातें करेगा...मगर सच यह है कि सिर्फ एक महीने ही मुफ्त की सेवा मिलेगी. दूसरे महीने से 5 हजार रूपए का सब्सक्रिप्शन लेना होगा. यानी नो पैसा, ना सेवा...फिलहाल तो यह सुविधा सिर्फ मुंबई में ही मिलेगी.
वैसे भी कोई बिजनेस मैन अपना घाटा क्यों करना चाहेगा? वह हमें मुफ्त में सुविधाएं थोड़ी ही प्रदान करेगा. हमारे हिसाब से तो गुडफेलोज ग्रेजुएट युवाओं को नौकरी देने का काम करेगा. जो कुछ बुजुर्गों के साथी बनेंगे. ये युवा साथी हफ्ते में 3 बार बुजर्गों के घर जाकर उनके साथ 4 घंटे का समय बिताएंगे. माने बाकी टाइम उन्हें अपना ध्यान खुद ही रखना है और अकेले ही रहना है.
ये युवा 24 घंटे के लिए बुजुर्गों के साथ नहीं रहने वाले हैं. वे उनके साथ कैरम खेल सकते हैं, बातें कर सकते हैं और आराम करने में उनकी मदद कर सकते हैं. ये साथी उनका रूटीन चेकअप कराएंगे या नहीं, उन्हें खाना खिलाएंगे या नहीं...यह सब अभी साफ नहीं है. किसी बुजुर्ग को सिर्फ कहने के लिए कोई पास में नहीं चाहिए, बल्कि वह चाहिए जो उसे अपना समझे और उनका पूरी तरह ख्याल रखे. ऐसा आधा-अधूरा नहीं.
बुजुर्गों के अकेलेपन को दूर कर करने के लिए रतन टाटा ने गुडफेलोज सीनियर सिटीजन स्कीम में निवेश किया है
यह भी हो सकता है कि युवा साथी इस नौकरी को पार्ट टाइम के हिसाब से करें और परमानेंट जॉब मिलते ही किनारा कर लें. फिर वह बुजुर्ग अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए दूसरे साथी की तलाश करेंगे. बुजुर्ग कोई मशीन तो है नहीं कि किसी भी अजनबियों से बार-बार दोस्ती ही करते रहें. वो भी बुढ़ापे में जब वे खुद एक बच्चे बन जाते हैं. कहीं ऐसा ना हो कि मां-बाप को बोझ समझने वाले बच्चे अब माता-पिता के लिए 5 हजार महीना देकर उनसे पीछा छुड़ाने लगें.
तो क्या अब मानवता का भाव दिखाने के लिए भी बुजुर्गों को हर महीने पैसे देने होंगे. अब जिनके पास पैसे हैं उनका तो फिर भी समझ आता है लेकिन जिनके पास नहीं है वे तो खुद को और लाचार महसूस करेंगे. आज कल के अधिकतर बच्चे वैसे भी अपने माता पिता के साथ नहीं रहना चाहते, कहीं वे और लापरवाह ना हो जाएं. सही है, मतलब बूढ़ा होना ही बोझिल है. इस स्टार्टअप के आने के बाद अब तक जिन्हें अकेलापन नहीं लगता था, वे भी खुद को असहाय महसूस करेंगे...
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