रवींद्र पाटील की कहानी: गुनाह बड़ा या गवाही?
गुनाह का चश्मदीद होना बड़ी बात नहीं. उससे भी बड़ा होता है गुनाह के मामले में गवाही देना. और शायद सबसे बड़ा होता है आखिर तक 'बयान' पर कायम रहना.
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"कितने कुत्ते थे?"
"गाड़ी के अंदर या बाहर सरदार?"
फिल्म 'गब्बर इज बैक' से इसका बिलकुल भी वास्ता नहीं है. मगर, मुमकिन है, भविष्य में कभी 'हिट एंड रन' केस पर फिल्म बनी तो ये डायलॉग भी सुनने को मिल सकता है. कम से कम सलमान खान को सजा मिलने के बाद फिल्मी शख्सियतों की ओर से जो बातें सामने आईं वे तो यही संकेत दे रही हैं.
गुनाह का चश्मदीद होना शायद उतनी बड़ी बात नहीं. उससे भी बड़ा होता है गुनाह के मामले में गवाही देना. और शायद सबसे बड़ा होता है आखिर तक 'बयान' पर कायम रहना. रवींद्र पाटील की दास्तां इसका सबूत है.
रवींद्र पाटील, जी हां, सतारा का ये नौजवान मुंबई पुलिस में सिपाही के तौर पर भर्ती हुआ - और वीआईपी सुरक्षा के लिए बने स्पेशल ऑपरेशन स्क्वाड ज्वाइन करने के लिए उसने कमांडो ट्रेनिंग ली. 2002 में पाटील सलमान के बॉडीगार्ड बने. हिट एंड रन केस भी उसी साल का है.
रवींद्र पाटील की जिंदगी शायद वो सबसे बदनसीब लम्हा था जब उन्होंने सब कुछ अपनी आंखों से देखा. और उससे भी बुरा शायद वो लम्हा जो उन्होंने आंखोदेखी बातें अदालत को बता दी. बस यहीं से उनकी जिंदगी नर्क बन गई - और सिलसिला ऐसा चला कि उसका सिला उन्हें ताउम्र मिला.
पाटील ही एकमात्र ऐसे गवाह थे, जिन्होंने कोर्ट को बताया कि ड्राइविंग सीट पर सलमान थे - और नशे की हालत में थे. पाटील ने कोर्ट को बताया था कि मना करने के बावजूद सलमान ने रफ्तार कम नहीं की - और अंजाम उनकी आंखों के सामने था. ड्यूटी के पक्के पाटील घटना के फौरन बाद बांद्रा पुलिस स्टेशन पहुंचे और एफआईआर दर्ज कराई. घटना के 13 साल बाद भी ये पाटील की बयान था कि सलमान के ड्राइवर का वो दावा भी कोर्ट में फुस्स हो गया जिसमें उसने कहा था कि गाड़ी सलमान नहीं बल्कि वो चला रहा था.
कुत्ते की मौत होती कैसी है?
गवाही को लेकर डिफेंस के वकीलों ने पाटील पर इतना दबाव बनाया कि मजबूरन उन्हें घर छोड़ कर भागना पड़ा. बाद के घटनाक्रम में एक ऐसा मोड़ आया जब पाटील के खिलाफ अरेस्ट वारंट जारी हुआ - और फिर उन्हें गिरफ्तार कर आर्थर रोड जेल भेज दिया गया. बताते हैं कि इस दौरान पाटील ने जैसे तैसे क्राइम ब्रांच से संपर्क साधने की कोशिश की लेकिन कोई भी मदद के लिए आगे नहीं आया. जेल से छूटने के बाद पाटील ने नौकरी वापस पाने के लिए गुहार लगाई तो उसमें भी नाकामी ही हाथ लगी. इसके बाद पाटील कहां रहे ये बात घरवालों तक को भी नहीं पता चली.
एक दिन मुंबई की एक रेड लाइट पर एक आदमी बेहोश पड़ा मिला. उसे अस्पताल पहुंचाया गया. पता चला सड़क पर भीख मांग कर गुजारा कर रहा शख्स कोई और नहीं बल्कि पाटील ही थे. ये वाकया साल 2007 का है. तब तक पाटील बुरी तरह टीबी के शिकार हो चुके थे. मुकम्मल इलाज के अभाव में बीमारी बढ़ती गई - और आखिरकार वही मौत की वजह भी बनी.
आखिरी दो ख्वाहिशें...
हर इंसान की कुछ न कुछ ख्वाहिश होती है. रवींद्र पाटील के साथ भी ऐसा ही था. हालांकि, उनकी दो ख्वाहिशें थीं - एक, दोबारा पुलिस फोर्स ज्वाइन करना और दूसरा, हिट एंड रन केस में गुनहगार को सजा दिलवाना. रवींद्र की एक ख्वाहिश तो अधूरी रही लेकिन दूसरी जरूर पूरी हो गई. ये बात अलग है कि इसमें उनके जीते जी पांच साल - और मरने के बाद आठ साल गुजर गए.
क्या पाटील का गुनाह सिर्फ इतना था कि वो ड्यूटी के पक्के निकले? एक जिम्मेदार नागरिक और मुस्तैद पुलिसकर्मी का फर्ज समझ कर उन्होंने घटना की रिपोर्ट दर्ज कराई और बाद में कोर्ट को भी सब सच सच बता दिया? बाकियों की तरह बात से पलट जाने की बजाए आखिरी दम तक अपने बयान पर कायम रहे? एक कमांडो की इससे भी बदतर मौत भी हो सकती है क्या? आखिर कुत्ते की मौत कैसी होती है? पाटील ने भी तो न जाने कितनी रातें सड़क पर गुजारी होंगी? आखिर सड़क पर सोनेवाले कब तक कुत्ते की मौत मरते रहेंगे? कोई पाटील के भी सवालों का जवाब दो, दो ना!
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