डिअर लाउडस्पीकर! सेहरी के लिए उठेंगे तब, जब सो पाएंगे
रामजान के दिनों में आम आदमी के लिए दिक्कत का सबब लाउडस्पीकर होते हैं जिनसे निकली आवाजों की वजह से थका मांदा आम आदमी चैन की नींद सो नहीं पाता.
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"रोजेदारों उठ जाइये, सेहरी का वक़्त हो रहा है."
"अल्लाह के प्यारों, नबी के दुलारों उठ जाइए."
"सेहरी वक़्त खत्म होने में 5 मिनट बचे हैं. रोजेदारों उठ जाइए."
कहना गलत नहीं है कि रमजान आते ही मस्जिदों के लाउडस्पीकर की भी आवाज तेज हो जाती है
रमजान के मद्देनजर इन दिनों शहर की मस्जिदों से ये आवाजें कॉमन हैं. इसके अलावा कॉमन है रोजेदारों को जगाने में आवाज़ की तेजी. जी हां सही सुन रहे हैं आप. आजकल क्या गांव,क्या शहर, क्या कज्बे अलग-अलग मस्जिदें बस इसी कोशिश में हैं कि वो कैसे सोये हुए रोजेदारों को जगा दें, वक़्त पूरा होने से पहले वो कुछ खा पी लें और अल्लाह की रजा के लिए रोजा रख लें.
बीते सत्रह-अट्ठारह दिनों से ये जगने जगाने का क्रम चल रहा है. कहीं मस्जिदों द्वारा नात और दुआओं के जरिये सोये हुए रोजेदार को जगाया जा रहा है. कहीं हदीसों का हवाला देकर एक रोजेदार को रोजे की एहमियत समझाई जा रही है. कह सकते हैं कि मस्जिदों के अलार्म बनने से जहां एक तरह रोजेदार खुश हैं तो वहीं दूसरी तरफ मस्जिदों ने गैर रोजेदारों की भावना आहत कर रखी है.
हो सकता है इतनी बातें पढ़कर देश का एक कॉमन मुसलमान ये कहे कि, भारत एक लोकतांत्रिक देश है. यहां सभी धर्मों को ये स्वतंत्रता है कि वो अपने-अपने तरीके से अपने-अपने धर्म का पालन करे. इसके अलावा एक कट्टर मुसलमान ये भी तर्क दे सकता है कि जब कांवड़, नवरात्र और जागरण होते हैं तब लोगों को लाउड स्पीकर वाली दिक्कत क्यों नहीं होती. बात दोनों की सही है. एक लोकतांत्रिक देश में सबको ये अधिकार है कि वो अपनी स्टाइल से इबादत करे. आगे कुछ कहने से पहले संविधान को देखिये, उसके पन्ने खंगालिए. संविधान में कहीं भी इस बात का वर्णन नहीं है कि आप कुछ ऐसा करिए या करते रहिये जिससे औरों को दिक्कत हो.
सहरी के वक़्त बजने वाले लाउडस्पीकर से आम आदमी का सोना मुहाल हो गया है
बीते चौदह दिन से रात 2.30 बजे से सुबह 5.00 तक एक आम आदमी के लिए चैन की नींद सोना टेढ़ी खीर हो गया है. मस्जिदों से आती आवाजें उसे सोने नहीं दे रही हैं. समस्या वहां और गहरी है जहां मुसलमान मेजॉरिटी में वास कर रहे हैं. ऐसे स्थानों या फिर ऐसे स्थानों के आस पास रहने वाले गैर मुस्लिमों के लिए हालात बद से बदतर हैं. लाजमी है जहां मुसलमान होंगे वहां ढेर सारी मस्जिदें होंगी. इन दिनों स्थिति क्या होगी इसका अंदाजा खुद लगाकर देख लीजिये बातें अपने आप साफ हो जाएंगी.
बात आगे बढ़ाने से पहले यहां ये बताना बेहद जरूरी है कि, यहां न तो आलोचना इस्लाम की हो रही है. न ही मस्जिदों, मुसलमानों और रोजों की. यहां आलोचना का पात्र मस्जिदों में लगा लाउडस्पीकर है जो इन दिनों सुबह-सुबह बज रहा है, बजे जा रहा है और आम लोगों को सोने नहीं दे रहा. गर्मियों में लाइट जाना कोई नई बात नहीं है. कुछ-कुछ शहरों में तो 12-14 घंटे लाइट जा रही है. ऐसे में आम आदमी के लिए सोना यूं भी मुहाल है. वो इसी आस में रहता है कि भोर हो, मौसम कुछ ठंडा हो और वो सो सके.
मस्जिदों को सोचना चाहिए जिन्हें सेहरी के लिए उठाना होगा वो अपने आप उठ जाएंगे
अभी वो सोने की कोशिश कर ही रहा होता है कि तमाम मस्जिदों के लाउड स्पीकरों से "उठाने" वाली फरियादें उसका जीना दूभर कर देती हैं. इन फरियादों से न सिर्फ नौकरी पेशा परेशान हैं बल्कि बुजुर्गों और बच्चे तक पशोपेश की स्थिति में हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि उनकी नींद हमारी आपकी नींद की अपेक्षा कहीं कच्ची होती है जिस कारण वो सो नहीं पाते और उन्हें तकलीफ होती है. अब किसी को तकलीफ देकर रोजा रखवाने में कितना सवाब है ये तो वही जानें तो लाउडस्पीकर पर नींद न आने के चलते जगे हुए लोगों को उठा रहे हैं
बहरहाल, मस्जिदों के लाउडस्पीकरों को लोगों को उठाने का माध्यम बनाने वाले लोगों को सोचना चाहिए कि टेक्नोलॉजी के इस युग में सबके पास उठने के माध्यम हैं. जिन्हें रोजा रखना है वो मोबाइल में अलार्म लगाकर उठ सकते हैं. सेहरी खा सकते हैं. रोजा रख सकते हैं और इससे किसी को कोई दिक्कत भी नहीं होगी और लोग चैन की नींद सो सकेंगे. अंत में इतना ही कि इस भीषण गर्मी में मस्जिदें जिन्हें उठाने के लिए संघर्ष कर रही हैं वो उठ तभी पाएंगे जब सो सकेंगे. जब आप सोने ही नहीं देंगे तो फिर बेचारे वो उठेंगे कैसे?
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