शिक्षा का अधिकार कानून: 12 साल का चुनौतियों भरा सफर
स्कूलों की सामुदायिक निगरानी और सहयोग की तरफ ध्यान देने की जरूरत है, पिछले दस वर्षों के दौरान काफी स्कूलों में शाला प्रबंधन समितियों के गठन तो हो चुके हैं अब इनके सशक्तिकरण की जरूरत है. इसके लिये सिर्फ प्रशिक्षण ही काफी नहीं होगा बल्कि शाला प्रबंधन समितियों की भूमिका व जवाबदेहीता को और ठोस बनाने, इसके ढांचे के बारे में पुनर्विचार करने की भी जरूरत होगी.
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अगस्त 2009 में भारत के संसद से नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा का अधिकार एक्ट पारित किया गया था और एक अप्रैल 2010 से यह कानून पूरे देश में लागू हुआ. इसके बाद केंद्र और राज्य सरकारों की कानूनी रूप से यह बाध्यता हो गई कि वे छह से 14 आयु के भारत के सभी बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध करायें.
शिक्षा का अधिकार (आरटीई) का अस्तित्व में आना निश्चित रूप से एक ऐतिहासिक कदम था. आजादी के 62 वर्षों बाद पहली बार एक ऐसा कानून बना था जिससे 6 से 14 साल के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्राप्त करने का मौलिक अधिकार हासिल हो सका. निश्चित रूप से इस कानून की अपनी सीमायें रही हैं जैसे 6 वर्ष से कम और 14 वर्ष से अधिक आयु समूह के बच्चों को इस कानून के दायरे से बाहर रखना, शिक्षा की गुणवत्ता पर पर्याप्त जोर नहीं देना और 25 प्रतिशत आरक्षण के साथ प्राइवेट स्कूलों की तरफ भगदड़ में और तेजी लाना.
इसी तरह से इस कानून की परिकल्पना और पिछले दस वर्षों के दौरान जिस तरह से इसे अमल में लाया गया है उसमें काफी फर्क है. आज दशक बीत जाने के बाद यह सही समय है जब शिक्षा के अधिकार कानून के क्रियान्वयन की समीक्षा की जाये जो महज आंकड़ों के मकड़जाल से आगे बढ़ते हुये शिक्षा अधिकार कानून के बुनियादी सिद्धांतों पर केन्द्रित हो.
12 साल का सफर- उपलब्धि और चुनौतियां
आरटीई के दस साल का सफर घुटनों पर चलने की तरह रहा है. एक दशक बाद शिक्षा का अधिकार कानून की उपलब्धियां सीमित हैं, उलटे इससे सवाल ज्यादा खड़े हुये हैं. इस कानून को लागू करने के लिये जिम्मेदार केंद्र और राज्य सरकारें ही पिछले दस सालों के दौरान इससे अपना पीछा छुड़ाती हुई ही दिखाई पड़ी हैं.
चूंकि हमारे देश के राजनीति में शिक्षा कोई मुद्दा नहीं है इसलिए पिछले दस वर्षों के दौरान केंद्र और राज्य सरकारें आरटीई को लागू करने में उदासीन रही हैं. दस साल इस बात के गवाह रहे हैं कि किस तरह से भारत के स्कूली शिक्षा का अधोसंरचना (इंफ्रास्ट्रक्चर), पर्याप्त शिक्षकों की नियुक्ति, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिये सरकारों की उपेक्षा से जूझता रहा है.
उपलब्धियों की बात करें तो शिक्षा अधिकार कानून के एक दशक का सफर ‘सभी के लिये स्कूलों में नामांकन का अधिकार’ साबित हुआ है. इस दौरान की सबसे बड़ी उपलब्धि स्कूलों में 6 से 14 वर्ष के बच्चों का लगभग सौ फीसदी नामांकन हैं, हम प्राथमिक स्कूलों की संख्या बढ़ाने में भी कामयाब रहे हैं.
आज लगभग हर बसाहट या उसके करीब एक प्राथमिक स्कूल उपलब्ध है. इसके अलावा स्कूलों के अधोसंरचना (इंफ्रास्ट्रक्चर) में भी सुधार हुआ है, आज ज्यादातर स्कूलों में लड़कों और लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालय उपलब्ध हैं. हालांकि इनमें अभी भी पानी और साफ-सफाई की समस्या बनी हुई है.
चुनौतियों की बात करें तो पिछले दस वर्षों के दौरान आरटीई सरकारी स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने में विफल साबित हुई है. प्राथमिक स्कूलों में नामांकन तो हो गये हैं लेकिन स्कूलों में बच्चों के टिके रहने की चुनौती अभी भी बरकरार है. इसी के साथ ही आज भी बड़े पैमाने पर सरकारी स्कूल बुनियादी ढांचागत सुविधाओं, जरूरी संसाधन, शिक्षा के लिये माहौल और शिक्षकों की भारी कमी से जूझ रहे हैं.
मानव संसाधन विकास मंत्रालय से संबद्ध संसदीय समिति द्वारा फरवरी 2020 के आखिरी सप्ताह में संसद में पेश की गयी रिपोर्ट में सरकारी स्कूलों के आधारभूत ढांचे पर चिंता जाहिर की गई है. रिपोर्ट के अनुसार अभी तक देश के केवल 56 फीसदी सरकारी स्कूलों में ही बिजली की व्यवस्था हो सकी है, जिसमें मध्यप्रदेश और मणिपुर में तो महज 20 फीसदी स्कूलों तक ही बिजली की पहुंच हो सकी है.
इसी प्रकार से देश में 57 प्रतिशत से भी कम स्कूलों में खेल-कूद का मैदान है. रिपोर्ट में बताया गया है कि आज भी देश में एक लाख से ज्यादा सरकारी स्कूल एकल शिक्षकों के भरोसे चल रहे हैं. इधर 2014-15 के बाद से शिक्षा के बजट में भी कमी देखने को मिली है. 2014-15 में शिक्षा के लिये आवंटित बजट भारत सरकार के कुल बजट का 4.14 फीसदी था जो 2019-20 में 3.4 फीसदी हो गया है.
बड़े सवाल और चिंताएं
सार्वजनिक शिक्षा एक आधुनिक विचार है, जिसमें सभी बच्चों को, चाहे वे किसी भी लिंग, जाति, वर्ग, भाषा आदि के हों- शिक्षा उपलब्ध कराना शासन का कर्तव्य माना जाता है.
गौरतलब है कि भारत एक ऐसा मुल्क है जहां सदियों तक शिक्षा पर कुछ खास समुदायों का एकाधिकार रहा है. यह सिलसिला औपनिवेशिक काल में टूटा, जब भारत में स्कूलों के माध्यम से सबके लिए शिक्षा का प्रबन्ध किया गया. अंग्रेजी हुकूमत द्वारा स्थापित स्कूल-कालेज सभी भारतीयों के लिए खुले थे.
अंग्रेजों द्वारा स्पष्ट नीति अपनाई गई कि जाति और समुदाय के आधार पर किसी भी बच्चे को इन स्कूलों में प्रवेश से इंकार नहीं किया जाएगा. यह एक बड़ा बदलाव था जिसने सभी भारतीयों के लिए शिक्षा का दरवाजा खोल दिया.
आजादी के बाद इस प्रक्रिया में और तेजी आई. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 में भारत के सभी नागरिकों को धर्म, मूलवंश, जाति या भाषा के किसी भेदभाव के बिना किसी भी शिक्षा संस्थान में भर्ती होने का अधिकार दिया गया है.
साल 2010 में शिक्षा का अधिकार कानून के लागू होने के बाद पहली बार केंद्र और सरकारों की कानूनी जवाबदेही बनी कि वे 6 से 14 साल सभी बच्चों के लिये निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करें. लेकिन इसी के साथ ही इस कानून की सबसे बड़ी सीमा यह रही है कि इसने सावर्जनिक और निजी स्कूलों के अन्तर्विरोध से कोई छेड़-छाड़ नहीं की.
आरटीई ने ना केवल शिक्षा के दोहरी व्यवस्था को बनाये रखा है बल्कि इसे मजबूत बनाने में भी मददगार साबित हुयी है. इसने सरकारी स्कूलों को ‘मजबूरी की शाला’ में बदलने में कोई कसर नहीं छोड़ा है. जो लोग सक्षम है उनकी दौड़ पहले से ही प्राइवेट स्कूलों की तरफ है. अब निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत कोटा लागू होने के बाद गरीब और वंचित समुदाय भी इस भगदड़ में शामिल हो गये हैं.
बहरहाल पिछले तीन दशकों के दौरान दुनिया बहुत तेजी से बदली भी है और इसी के साथ ही देश-दुनिया की शिक्षा प्रणाली बढ़ती जरूरतों और मांगों के अनुसार कई बदलावों से गुजरी है. दुर्भाग्य से भारत में एक बार फिर कुछ समुदाय और वर्ग ही इन बदलाओं का फायदा उठा पा रहे हैं, देश की एक बड़ी जनसंख्या जिसमें मुख्य रूप से गरीब, अल्पसंख्यक और परम्परागत रूप से हाशिये पर रखे गये समुदाय शामिल है, की यहां तक पहुंच नहीं हो सकती है.
इस बदली हुई दुनिया में ज्ञान पर एकाधिकार की एक नयी व्यवस्था बनी है जिसमें पूंजी और बाजार की एक बड़ी भूमिका है. पिछले दस वर्षों के दौरान शिक्षा का सार्वभौमिकरण (यूनिवर्सलाइजेशन) तो हुआ है लेकिन इसका विभाजन भी बहुत गहरा हुआ है. इस नये विभाजन के दो छोर हैं- जहां एक तरफ कुछ चुनिन्दा कुलीन और संभ्रांत प्राइवेट स्कूल, नवोदय/केन्द्रीय विद्यालय हैं तो दूसरी तरफ सरकारी और गली मुहल्लों में चलने वाले छोटे और मध्यमस्तर प्राइवेट स्कूल.
इलाज है, इरादे की जरूरत है
इन तमाम चुनौतियों से उभरने के हमें दो स्तरों पर उपाय करने की जरूरी है, एक तो आरटीई के दायरे में रहते हुये जरूरी कदम तो उठाने ही होंगे, साथ ही शिक्षा के अधिकार कानूनों के सीमओं को तोड़कर भी आगे बढ़ना होगा.
प्राथमिक शिक्षा में लगभग शत प्रतिशत नामांकन के करीब पहुंचने के बाद आरटीई को सभी बच्चों के लिये प्राथमिक शिक्षा के लिये अवसर का कानून की भूमिका से आगे बढ़ते हुये सभी बच्चों के के लिये गुणवत्ता पूर्ण और समान शिक्षा के लक्ष्य की ओर आगे बढ़ना होगा.
अब नामांकित बच्चों के नियमितीकरण और उन्हें अधिक समय तक स्कूल में रोके रखने के लिये तत्काल ठोस उपाय किये जाने की जरूरत है. इसका सीधा संबंध शिक्षा के गुणवत्ता से जुड़ा हुआ है जिसके लिए बड़ी संख्या में खाली पड़े पदों पर शिक्षकों की नियुक्ति के साथ एक बड़े नीतिगत फैसले और जरूरी बजट की जरूरत होगी.
मसौदा राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 में स्कूलों में शिक्षकों की कमी दूर करना और सावर्जनिक शिक्षा पर सरकारी खर्चे को जीडीपी के छह प्रतिशत तक खर्च करने की बात की गयी है लेकिन हम जानते हैं कि इस देश नीतियों को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता हैं. इससे पहले भी 1968 में जारी की गयी पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति और दूसरी राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में भी सावर्जनिक शिक्षा में जीडीपी के छह प्रतिशत तक खर्च का सुझाव दिया जा चूका है, अब एक बार फिर इसे दोहराया गया है. लेकिन अब इसे दोहराने का नहीं बल्कि फैसला लेने का है.
शिक्षा में गवर्नेस की मौजूदा प्रणाली पर भी पुनर्विचार करने की जरूरत है. मसौदा राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के गठन की बात की गयी है लेकिन इससे शिक्षा प्रशासन के केन्द्रीकरण का खतरा बढ़ जाने की सम्भावना है. शिक्षा के प्रशासन को हमें इस प्रकार से विकेन्द्रित करने की जरूरत है जिसके केंद्र में शिक्षक, समुदाय और बच्चे हो सकें.
शिक्षा का अधिकार कानून के क्रियान्वयन की निगरानी के लिये जिम्मेदार एजेंसी राष्ट्रीय बाल अधिकार आयोग की भूमिका और स्पष्ट व मजबूत बनाने की जरूरत है. प्रभावी निगरानी के लिये व्यावहारिक रूप से यह जरूरी है कि कम से कम हर जिले में आयोग का अपना ढांचा हो जो आरटीई के शिकायत निवरण ढ़ांचे की तरह काम करे. यह काम राज्य बाल आयोगों के माध्यम से भी किया जा सकता है.
इसी प्रकार से राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग महिला एवं बाल विकास विभाग के अंतर्गत आता है जबकि शिक्षा का जिम्मा मानव संसाधन विकास मंत्रालय के पास हैं यहां भी सामंजस्य बैठाने की जरूरत है.
स्कूलों की सामुदायिक निगरानी और सहयोग की तरफ ध्यान देने की जरूरत है, पिछले दस वर्षों के दौरान काफी स्कूलों में शाला प्रबंधन समितियों के गठन तो हो चुके हैं अब इनके सशक्तिकरण की जरूरत है. इसके लिये सिर्फ प्रशिक्षण ही काफी नहीं होगा बल्कि शाला प्रबंधन समितियों की भूमिका व जवाबदेहीता को और ठोस बनाने, इसके ढांचे के बारे में पुनर्विचार करने की भी जरूरत होगी.
लेकिन इन सबसे अधिक जरूरी स्कूली शिक्षा को लेकर नीति निर्माताओं के नजरिये में बदलाव की है जो सबसे टेढ़ी खीर है. इसके लिए हमें कोठारी आयोग के शरण में जाना होगा.
1964 में गठित कोठारी आयोग द्वारा समान स्कूल व्यवस्था की वकालत की गयी, आयोग का मानना था कि एक राष्ट्र के तौर पर हमें ऐसी राष्ट्रीय व्यवस्था लागू करनी चाहिए जिसके बिनाह पर समाज सभी वर्ग और समुदायों के बच्चे एक साथ समान शिक्षा हासिल कर सकें.
आयोग ने ये भी माना था कि समान स्कूल व्यवस्था के सहारे ही दोहरी शिक्षा व्यवस्था को खत्म किया जा सकता है. अगर हम समान स्कूल व्यवस्था को अपनी मंजिल मानने को तैयार हों तो शिक्षा अधिकार कानून इस दिशा में महत्वपूर्ण पड़ाव साबित हो सकता है.
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