सरदार पटेल की विशालकाय प्रतिमा में शामिल है संघ और भाजपा का सपना
मौजूदा भारत का नक्शा सरदार पटेल की ही देन है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस महान नेता की विशालकाय प्रतिमा के साथ उस नेता को भी सलाम कर रहे हैं, जिन्हें अनगिनत राजाओं को हिंदुत्व और देशभक्ति का वास्ता देकर भारत में शामिल किया. संघ इसी को तो अखंड भारत कहता है.
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सरदार वल्लभ भाई पटेल यानी सरदार पटेल. आज हमारे सामने जो भारत का नक्शा है, वो इन्हीं की बदौलत है. सरदार पटेल ने अपना जीवन अंग्रेजों से आजादी दिलाने में लगाए रखा. लेकिन उन्होंने अपने जीवन के अंतिम तीन साल में जो किया, उसे भारत उम्र भर याद रखेगा. आजादी के भी भारत राजघरानों में बंटा हुआ था. 562 अलग-अलग राज्य. सरदार पटेल के अथक प्रयासों के कारण ही वे भारतीय गणराज्य का हिस्सा बने. सरदार पटेल 15 अगस्त से अपनी मृत्यु दिनांक 15 दिसंबर 1950 तक भारत के उप प्रधानमंत्री रहे. इस दौरान उन्होंने न सिर्फ नए भारत को मूर्तरूप दिया, बल्कि कश्मीर पर नजर गड़ाए पाकिस्तान के हमले को नाकाम किया. 31 अक्टूबर को सरदार पटेल का जन्मदिन है और उसी दिन गुजरात में स्टैचू ऑफ यूनिटी का अनावरण होना है. ये दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति होगी और माना जा रहा है कि यह टूरिज्म के लिए जबर्दस्त आकर्षण होगी. स्टैचू ऑफ यूनिटी के बारे में यहां पढ़ें (Link)
स्टैचू ऑफ यूनिटी से ऊपर भी सरदार पटेल की शख्सियत को देखने की कोशिश करनी होगी
मौजूदा भारत सरदार पटेल का कर्जदार है. सरदार पटेल की अगर बात हो रही है तो ये जानना बेहद जरूरी है कि असल में उनकी शख्सियत कैसी थी और आखिर क्यों भाजपा के इतने करीब हो गए सरदार पटेल जबकि पूरे जीवन वो कट्टर कांग्रेसी रहे थे.
562 राज्यों को किया ऐसे किया एक:
1947 में जब आज़ादी मिली थी तब भारत के सामने कई समस्याएं थीं. बंटवारे का दर्द झेलने वाले लोग. आपसी झगड़े, झंझट, दंगे, रिफ्यूजी. अलग-अलग राज्यों के आपसी रंजिश को मिटाना आसान नहीं था. भारत में काम, मशीनें, कंपनी आदि बहुत कुछ कम था.
सरदार पटेल को नेहरू ने पहला उप-प्रधानमंत्री और देश का पहला गृहमंत्री बनाया था. ऐसा इसलिए क्योंकि सरदार पटेल सत्याग्रह का अहम हिस्सा थे और लोग उस समय से उनकी बात सुनते थे. जहां तक विभाजित भारत का सवाल था तो उस समय भारत 48% (पूर्व पार्टीशन) राज्यों में बंटा हुआ था और देश की 28% जनसंख्या इनके आधीन ही थी. भले ही ये ऊपरी तौर पर ब्रिटिश राज का हिस्सा न दिखता हो, लेकिन असल में ये सभी राज्य पूरी तरह से ब्रिटिश राज के आधीन थे.
लॉर्ड माउंटबैटन का इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट 1947 कहता था कि राजाओं को ये पूरा हक था कि वो अपने राज्य की सीमाओं का निर्धारण कर सकते हैं और भारत के साथ या पाकिस्तान के साथ या अपने राज्य को दुनिया के नए देश की तरह नक्शे पर अपना नाम दर्ज करा सकते हैं. कल्पना कीजिए उन राजघरानों के बारे में जिन्हें सरदार पटेल ने अपना राजपाठ छोड़ने के लिए राजी किया होगा.
विभाजन के पहले का भारत जहां उन राज्यों को अलग देखा जा सकता है जो भारत के साथ नहीं बल्कि अपना अलग देश बनाना चाहते थे या पाकिस्तान के साथ जाना चाहते थे.
भारत के और विभाजन का खतरा देखकर सरदार पटेल ने अपना काम शुरू किया. उन्होंने एक-एक कर राज्यों के राजाओं से बात करनी शुरू की. “India after Gandhi” किताब में इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने सरदार पटेल के बारे में लिखा कि 1947 में सरदार पटेल ने कई लंच पार्टी रखीं. इनमें अलग-अलग राज्यों के राजाओं को बुलाया गया और उनसे संविधान के बारे में सलाह मशविरा किया गया. अलग-अलग राजा से अलग तरह की बात की गई. किसी को देशभक्ति याद दिलाई गई तो किसी को ये अहसास दिलाया गया कि भारत के साथ न जुड़कर कितनी अराजकता फैल जाएगी और किस कदर राज्यों को परेशानी का सामना करना पड़ेगा.
सरदार पटेल की भूमिका सभी राज्यों को एक साथ मिलाने में रही है
सरदार पटेल के इरादे बुलंद थे और उनका काम रंग दिखाने लगा. 12,000 मील भारतीय रेलवे, कैश बैलेंस, गांव, जागीर, किले आदि सब भारत सरकार के अंतर्गत आने लगे. पर कुछ राज्यों के साथ बहुत दिक्कत हुई. जैसे एक छोटे से राज्य पिपलौदा ने मार्च 1948 तक अग्रीमेंट साइन नहीं किया था. पर असल दिक्कत हुई थी पांच बड़े राज्यों के साथ थी, जिन्होंने भारत नहीं बल्कि पाकिस्तान का साथ ज्यादा पसंद किया था.
पांच राज्य का रुख पाकिस्तान से भारत की ओर किया:
सरदार पटेल की लिए सबसे बड़ी चुनौती बने थे पांच राज्य- जूनागढ़, जोधपुर, हैदराबाद, कश्मीर और ट्रैवनकोर (त्रिवेंद्रम).
ट्रैवनकोर: दीवान अय्यर ने मांगा था ब्रिटेन से समर्थन
दक्षिण भारत का ये राज्य भारत के साथ नहीं आना चाहता था. कांग्रेस की सत्ता पर इस राज्य को शक था. ये राज्य भारत के लिए भी बहुत जरूरी था. बेहद महत्वपूर्ण समुद्री पोर्ट के अलावा कई तरह के संसाधन इस राज्य के पास थे.
ट्रैवनकोर के दीवान सी.पी. रामास्वामी अय्यर के पाकिस्तान और ब्रिटेन से खूफिया संबंध थे. अय्यर इसे एक अलग राज्य बनाना चाहता था. अय्यर ने अपने राज्य में मिलने वाले मोनाजाइट मिनरल का लालच देकर ब्रिटिश राज से समर्थन मांगा. ब्रिटेन ने भी ट्रैवनकोर का साथ दिया क्योंकि उसे अपने न्यूक्लियर हथियारों की रेस में एक अहम स्थान चाहिए था. जुलाई 1947 तक ट्रैवनकोर इसी तरह से अलग रहा, लेकिन जैसे ही केरल की सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से अय्यर पर जानलेवा हमला हुआ, वैसे ही दीवान ने भारत से जुड़ने का फैसला किया. 30 जुलाई 1947 को ट्रैवनकोर भारत के साथ जुड़ गया.
जोधपुर: जिन्ना की चाल को सरदार ने किया था नाकाम
जून 1947 में जोधपुर में सत्ता परिवर्तन हुआ और महाराज बने हनवंत सिंह. उन्हें लगता था कि भारत के बिना जोधपुर ज्यादा अच्छा रहेगा और उन्होंने पाकिस्तान के साथ भी डील करने की कोशिश की. मोहम्मद अली जिन्ना ने एक चाल चली. उन्होंने हनवंत सिंह को अपनी साइन करके एक खाली पन्ना दिया. और हनवंत सिंह से कहा कि वो अपनी मर्जी से जो चाहे शर्तें लिख लें, उन्हें मंजूर होगी. इस बात की भनक लगते ही सरदार पटेल ने सीधे हनवंत सिंह से बात की. उन्हें भरोसा दिलाया कि जोधपुर काडियावाड़ के साथ रेल से जुड़ेगा. सूखे के दौरान भारत की तरफ से जोधपुर को अन्न दिया जाएगा.
इसी के साथ, भारत के साथ न जुड़ने के नुकसान भी हनवंत सिंह को गिनवाए गए. और ये भी कहा गया कि पाकिस्तान एक मुस्लिम राज्य है, आखिर वह अपने अधीन एक हिंदू राज्य को कैसे सुरक्षित रहने देगा. सरदार पटेल की उस समझाइश का नतीजा है कि आज जोधपुर भारत का हिस्सा है.
जूनागढ़: सेना भेजकर करना पड़ा कब्जा
अगला राज्य था जूनागढ़ जो अभी गुजरात का हिस्सा है. 80% हिंदू आबादी वाला वो राज्य पाकिस्तान के साथ जाना चाहता था क्योंकि उसका राजकाज एक मुस्लिम नवाब के हाथ में था. 15 सितंबर 1947 तक उस नवाब के खिलाफ प्रजा उठ खड़ी हुई. विरोध इतना गहरा था कि नवाब का परिवार कराची भाग गया. सरदार पटेल ने पाकिस्तान से कहा कि वो इस तरह के किसी भी फैसले का साथ न दे और जनमत के साथ रहे, लेकिन पाकिस्तान ने मना कर दिया. और ऐसे में भारतीय सेना 1 नवंबर 1947 को जूनागढ़ में गई और वहां कब्जा किया.
कश्मीर: वह जितना भी हमारे पास है सिर्फ सरदार की बदौलत
ये वो राज्य है जो अभी भी भारत और पाकिस्तान के बीच झूल रहा है. भारत के बंटवारे का अधूरा अध्याय, जो अब भी दोनों देशों के लिए नासूर बना हुआ है. बंटवारे के समय से इस राज्य का घाव में बदलना शुरू हो गया था. आजादी के समय यहां एक हिंदू महाराजा था- हरि सिंह, जो मुस्लिम आबादी पर राज करता था. बंटवारे में वह दोनों में से किसी भी देश के साथ नहीं जाना चाहता था. सरदार पटेल जानते थे कि कश्मीर की सीमाएं चीन, अफगानिस्तान, तिब्बत जैसे देशों के साथ जुड़ी हुई हैं, इसलिए इस राज्य का भारत में शामिल होना बहुत जरूरी है.
उधर, जिन्ना कश्मीर को पाकिस्तान में शामिल होने के लिए बेताब हो रहे थे. वे भारत से जूनागढ़ में मिले जख्म का बदला लेना चाहते थे. उन्होंने कश्मीर में अपना दखल तेज किया. सरदार पटेल पाकिस्तान के मंसूबों को भांप गए थे. उन्होंने तुरंत दिल्ली-श्रीनगर रूट पर फ्लाइट्स भेजीं. टेलिफोन और टेलिग्राफ लाइन लगाईं. पठानकोट, अमृतसर और जम्मू को एक साथ जोड़ा. और भारतीय सेना को ठीक कश्मीर में पोस्ट किया गया.
कश्मीर को अपने हाथ से फिसलता देख पाकिस्तान के सब्र का बांध टूट गया. सीधे हमला करने की हिम्मत नहीं हुई, तो उसने अपने पहाड़ी इलाके से कबाइली बुलाकर कश्मीर में घुसपैठ कराई. सादी वर्दी में अपने 5000 सैनिक भेजे. 22 अक्टूबर 1947 को ये हमला हुआ. पाकिस्तानी हमले से अपने राज्य को बचाने के लिए महाराजा हरि सिंह ने भारत से मदद मांगी. वी.पी.मेनन को 26 अक्टूबर को जम्मू भेजा गया, जहां महाराजा से दस्तावेजों पर साइन करवाए गए. फिर भारतीय सेना को पाकिस्तानी हमले का जवाब देने के लिए रवाना किया गया.
सरदार पटेल समझ रहे थे कि भारतीय सेना के कश्मीर पहुंचने और आर्मी के हथियार ले जाने में बहुत दिक्कत होगी. उन्होंने जम्मू और श्रीनगर को जोड़ने वाली सड़क बनाने के लिए आदेश दिया. ये रोड पाकिस्तान के सियालकोट से होकर गुजरनी थी. दिन-रात का काम चला. महज 8 महीने के अंदर न सिर्फ जम्मू-श्रीनगर बल्कि जम्मू को पठानकोट से जोड़ने वाली सड़क तैयार थी. 15 दिनों के भीतर भारतीय सेना अपने गोला-बारूद के साथ कश्मीर घाटी में मौजूद थी. और पाकिस्तानी सेना उलटे-पैर लौट चुकी थी.
हैदराबाद: निजाम को भारतीय सेना के साथ ही सबक भेजा
इसी दौरान हैदराबाद जो सभी राज्यों में सबसे ज्यादा अमीर और बड़ा भी था उसने भारत के साथ जुड़ने से मना कर दिया. सरदार पटेल की तरफ से की गई गुजारिश और दी गई धमकियों का कोई असर नहीं हुआ. बिचौलियों की भी बात नहीं सुनी गई. हैदराबाद के निजाम अपनी सेना बढ़ा रहे थे और यूरोप से हथियार भी मंगवा रहे थे.
हैदराबाद में इसके बाद हिंदू प्रजा पर हमले होने लगे. हिंसा फैली. सरदार पटेल ने एक बार फिर से अपनी बुद्धि का इस्तेमाल किया. 17 सितंबर 1948 को भारतीय आर्मी द्वारा हैदराबाद में एक ऑपरेशन किया गया. नाम था ऑपरेशन पोलो. ये मुठभेड़ 4 दिन तक चली. हैदराबाद के निज़ाम को आखिरकार भारत के आगे घुटने टेकने पड़े. और इस तरह आज़ादी मिलने के 13 महीने बाद किसी तरह भारत एक देश बन पाया जिसमें कोई भी अलग राज्य नहीं था.
लोगों को ये भी नहीं पता कि सरदार पटेल ने अंडमान और लक्षदीप को भी पाकिस्तान से बचाया था जब अपनी नौसेना भेजकर पाकिस्तानी हमले को रोका गया था.
सरदार पटेल ने इस तरह से पूरे देश को एकजुट किया था. ये किसी आम इंसान के बस की बात नहीं थी.
आजीवन कांग्रेसी और संघ पर प्रतिबंध लगाने वाले सरदार कैसे बने भाजपा के 'अपने'?
अब मुद्दे की बात ये है कि आखिर आजीवन कांग्रेसी रहे सरदार पटेल को भाजपा अचानक इतना महत्व क्यों दे रही है. क्या सिर्फ इसलिए कि उन्हें नेहरू से बड़ा नेता साबित किया जा सके. हकीकत में ऐसा नहीं है. संघ या भाजपा के चिंतन में सरदार पटेल का कद हमेशा से ऊंचा रहा है.
एक कांग्रेस मीटिंग के दौरान जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गांधी और सरदार वल्लभभाई पटेल
संघ परिवार भले का कांग्रेस का विरोधी रहा हो, लेकिन वह सरदार पटेल की सोच से प्रभावित रहा. संघ प्रमुख रहे एम.एस. गोलवलकर ने 1966 में एक किताब लिखी थी, जिसमें उन्होंने सरदार पटेल के बारे में कहा था कि उनकी छवि लोहे जैसी है और हम खुशकिस्मत हैं कि हमारे पास सरदार पटेल जैसे महापुरुष रहे.
नरेंद्र मोदी जो गोलवलकर को पूजनीय गुरू मानते हैं उन्होंने आसानी से इसे माना. और सरदार पटेल को भी गुरू का दर्जा दिया. हालांकि, कई लिबरल जिनमें इतिहासकार रामचंद्र गुहा शामिल हैं, उन्हें यह बहुत अजीब लगता है कि आखिर संघ परिवार कैसे सरदार पटेल को हीरो बता रहा है जबकि वो आजीवन कांग्रेसी रहे हैं.
इसका एक कारण ये भी है कि कांग्रेसी होने के बाद भी सरदार पटेल के विचार संघ के विचारों से मिलते-जुलते थे. पटेल हिंदू धर्म और हिंदू संस्कृति में अटूट विश्वास रखते थे. बंटवारे के बाद उन्होंने कई राजाओं को इसी का हवाला देकर भारत में शामिल होने के लिए राजी किया.
सरदार पटेल भी संघ के प्रति एक झुकाव रखते थे. महात्मा गांधी हत्याकांड से पहले उन्होंने आरएसएस को कांग्रेस से जुड़ने के लिए भी कहा था. हालांकि, गांधी हत्याकांड के बाद चीज़ें बदल गईं. सरदार पटेल ने हिंदू महासभा और आरएसएस की सोच और कट्टरपंथ को गोडसे के मंसूबे के लिए जिम्मेदार ठहराया था. इसी के चलते उन्होंने संघ पर प्रतिबंध लगाया. हालांकि, हत्याकांड की जांच से मिले तथ्याें को देखकर डेढ़ साल बाद उन्होंने यह प्रतिबंध हटा दिया. लेकिन ये शर्त रखी कि आरएसएस कभी पॉलिटिक्स से नहीं जुड़ेगी.
पटेल से खट्टे-मीठे अनुभव होने के बावजूद संघ ने सरदार पटेल को एक सख्त राजनेता माना है. जिसने भारत को एक राष्ट्र के रूप में खड़ा करने में बड़ी भूमिका निभाई. जिस तरह वे भारतीय गणराज्य को आकार दे रहे थे, उन्हें खुली छूट होती तो शायद पूरा कश्मीर भारत में होता. संघ और उसकी राजनीतिक सोच से निकली भाजपा के भीतर जिस अखंड भारत की बात कही जाती है, सही मायने वह सरदार पटेल का ही तो दिया हुआ है.
लिहाजा, मोदी का सरदार पटेल के कद को सबसे ऊंचा करने (दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति के रूप में) का मकसद आसानी से समझा जा सकता है. इस महान नेता के प्रति ये एक विनत आदरांजलि ही हो सकती है. हां, ये सवाल किया जा सकता है कि सरदार पटेल सिर्फ गुजरात के नहीं थे, पूरे देश के थे. फिर उनकी प्रतिमा गुजरात में क्यों. जवाब ये है कि कुछ तो राजनीति के लिए भी होना चाहिए.
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