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Updated: 26 जनवरी, 2016 04:22 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
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महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्जा दिए जाने को लेकर संविधान से तो कोई शिकायत नहीं, लेकिन धर्म के ठेकेदारों से बनी हुई है. शनि शिंगणापुर मंदिर में महिलाओं को चबूतरे पर पूजा करने की अनुमति नहीं है. और इसी प्रतिबंध को लेकर करीब डेढ़ हजार महिलाएं आज शनि मंदिर पर विरोध प्रदर्शन कर रही हैं.

मंदिर में महिलाएं क्यों जाएं और क्यों न जाएं इस बहस को खत्म करना अब जरूरी हो गया है. और इसे महिलाएं ही खत्म करेंगी ये भी तय है. इन नियमों को गढ़ने वाले समाज को पहले एक महिला ने ही चुनौती दी थी. जब परंपराओं को तोड़ते हुए उसने शनि की मूर्ति पर तेल चढ़ा दिया था. वो तब भी सिर्फ इतना ही कर पाए थे कि महिला बल तैनात कर दिया गया, सख्ती बढ़ा दी गई और हां मंदिर को दूध से शुद्ध भी किया गया. क्योंकि एक महिला के स्पर्श से भगवान अशुद्ध हो गए थे. मंदिर ट्रस्ट तब भी कुछ नहीं कर पाया था और हां अब भी कुछ नहीं कर पाएगा. क्योंकि अब एक नहीं डेढ़ हजार महिलाएं हैं, जो अपने हक के लिए इनके सामने खड़ी हैं.

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मंदिर ट्रस्ट भले ही हाथ जोड़कर कहता है कि वह महिलाओं का सम्मान करता है, उनकी भावनाओं का सम्मान करता है, लेकिन ये आप ही हैं न जो मंदिर का शुद्धिकरण सिर्फ इसलिए कराते हैं कि वहां महिलाओं के पैर पड़े थे. ये सम्मान का नाटक सदियों से देखती आ रही महिलाएं, अब और देखने के मूड में नहीं हैं. तभी कह रही हैं कि अगर उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं दोगे तो भी शनि देव पर तो वो तेल चढ़ाकर ही रहेंगी, सामने से नहीं तो हैलीकॉप्टर से ही सही.

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पुणे की ये चार महिलाएं 'भूमाता ब्रिगेड' की सदस्य हैं और इस परंपरा के खिलाफ 1500 महिलाओं समेत शनि मंदिर में विरोध प्रदर्शन कर रही है.

उन परिवारों से कभी जाकर पूछिए कि कैसा लगता होगा उन्हें, जब एक साथ यात्रा पर जाने वाला परिवार हर जगह तो साथ होता है लेकिन सिर्फ मंदिर के आगे, न चाहते हुए भी वह परिवार टूट जाता है. पुरुष मंदिर के भीतर जाते हैं और महिलाओं को उनके लौटने का इंतजार करना पड़ता है. पुरुष सदस्य तो मात्र पीले वस्त्र पहन कर ही शुद्ध हो जाते हैं और पूजा करने का टिकट पा लेते हैं. लेकिन महिलाएं मंदिर के बाहर बैठकर सिर्फ हाथ जोड़कर रह जाती हैं.

मंदिर के बाबाओं को समझना होगा कि देश का संविधान जब स्त्री और पुरुष में फर्क नहीं करता तो आप संविधान से तो बड़े नहीं हैं. आपकी आंखों में ईश्वर के प्रति सिर्फ आस्था ही दिखनी चाहिए, महिलाओं की प्रति हेय दृष्टि नहीं. समय के साथ चलने में ही समझदारी होती है, ये बात आपको उत्तराखंड के परशुराम मंदिर के ट्रस्टियों से सीखनी चाहिए जिन्होंने 400 साल पुरानी इस परंपरा को तोड़ा और मंदिर के द्वार महिलाओं और दलितों के लिए खोल दिए. उनकी नजर में कोई छोटा बड़ा नहीं है सब बराबर हैं.

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'हमारे देश की ये अजीब विडंबना है, एक ओर वह मंदिर में पूजी जाने वाली देवी है और दूसरी ओर वह अशुद्ध महिला. खैर, ऐसी खोखली व्‍यवस्‍थाएं अपने अंत तक पहुंच ही जाती हैं. जैसे, शनि शिंगणापुर की यह परंपरा. टूट तो वह महिलाओं के संकल्प मात्र से ही गई है.

लेखक

पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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