श्रद्धा-आफ़ताब का मामला लव-जिहाद का नहीं है...
आफ़ताब ने न धर्म छुपाया, न पहचान, और न ही फ़ौरन धर्म परिवर्तन कराकर विवाह कर बच्चे पैदा करने का टारगेट पूरा किया. यह मामला है 'दंभ' का. जोकि उन सभी मर्दों में होता है जो एसिड फेंकते हैं, गोली मारकर हत्या कर देते हैं, या कुल्हाड़ी-चाकू से टुकड़े कर देते हैं. मेरी नज़र में यह हिन्दू बनाम मुस्लिम भी नहीं है क्योंकि पत्नी या प्रेमिका की हत्या का यह इकलौता मामला नहीं है.
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आदिवासी समाज में लिव-इन कोई नई बात नहीं है, यह मैंने भी जशपुर आने के बाद जाना. एक दिन यहाँ के इंटीरियर इलाक़े की एक शिक्षिका से बात हो रही थी. उन्होंने बताया कि उनके विद्यालय की आठवीं-नवीं की अधिकतम बालिकाएँ पढ़ाई छोड़ देती हैं. वे 'आकर्षण' में पड़कर, ज़ाहिरन जिसे वो 'प्रेम' समझती हैं, उस लड़के के साथ रहने लगती हैं. रिश्ता चल पाया तो ठीक वरना भविष्य में अन्य जगह विवाह कर लेती हैं. कई बार वे लोग कम उम्र गर्भवती भी हो जाती हैं. इस लिव-इन को आदिवासी ग्रामीण सहजता से देखते हैं. आप ऐसा कह सकते हैं कि आदिवासी समाज में विवाह का प्रचलन संभवतः समय और सामाजिक परिवर्तन, सामाजिक विकास के साथ बढ़ा.
पिछले दिनों इसी समाज के लड़के ने अपनी प्रेमिका, जोकि उसके साथ लिव-इन में रह रही थी, को कुनकुरी (जशपुर से 30 किलोमीटर) में बीच चौराहे कुल्हाड़ी मारकर दो टुकड़े कर दिए थे. कारण, उनके बीच कुछ अनबन बताया गया.
मेरी नज़र में यह हिन्दू बनाम मुस्लिम भी नहीं है क्योंकि पत्नी या प्रेमिका की हत्या का यह इकलौता मामला नहीं है.
अब बात आती है, श्रद्धा-आफ़ताब (Shraddha Aftab) मामले की. मेरी नज़र में यह मामला लव-जिहाद का नहीं है. जितना ख़बरों से जाना. आफ़ताब ने न धर्म छुपाया, न पहचान, और न ही फ़ौरन धर्म परिवर्तन कराकर विवाह कर बच्चे पैदा करने का टारगेट पूरा किया. यह मामला है 'दंभ' का. जोकि उन सभी मर्दों में होता है जो एसिड फेंकते हैं, गोली मारकर हत्या कर देते हैं, या कुल्हाड़ी-चाकू से टुकड़े कर देते हैं.
मेरी नज़र में यह हिन्दू बनाम मुस्लिम भी नहीं है क्योंकि पत्नी या प्रेमिका की हत्या का यह इकलौता मामला नहीं है. ज़्यादा समय नहीं हुआ जब जयपुर में एक पढ़े-लिखे आदमी ने अपनी पत्नी और एक साल के बेटे की पूरी प्लानिंग के साथ निर्ममता से हत्या कर दी थी. बेटे की लाश तो बड़ी बुरी अवस्था में मिली थी. वहाँ भी बेटी पति के साइको व्यवहार से परेशान थी लेकिन घर न लौट सकी. पति-पत्नी दोनों हिन्दू थे और अरेंज मैरिज हुई थी.
अतः श्रद्धा-आफ़ताब मामले से यदि वाक़ई सबक लेना है तो यह लें कि हमें अपने बच्चों को सबसे पहले अपने भरोसे में लेना है. यह भरोसा कि वे जीवन में जो भी क़दम उठाएं हमारे सलाह-मशवरे पर गंभीरता से विचार करें. उन्हें यह भी भरोसा हो कि माता-पिता यदि हमें कहीं जाने से, किसी काम से रोक रहे हैं तो यह किसी रूढ़िवादी मानसिकता की वजह से नहीं बल्कि समझबूझ और अनुभव से. मेरी मम्मी न जाने कैसे इंसानों को इतने अच्छे से पहचान लेती हैं कि स्कूल के दिनों में वे जिस लड़की के लिए मुझे चेताती वह वाक़ई बाद में दगाबाज़ मतलबी दोस्त साबित होती. 2-3 बार के बाद ही मुझे यह समझ आ गया था कि इंसानों को परखने में मुझे माँ से मशवरा ज़रूर करना है.
और अंतिम बात, "प्रेम" के नाम पर जिसे मार दिया गया वो बेचारी समझ ही न सकी कि जिसे वह प्रेम मान बैठी थी असल में तो वह हवस थी. आकर्षण मात्र प्रेम नहीं होता अपनी बेटियों को यह सिखाइए, और यह भी विश्वास दिलाइए कि जब पहली बार उन्हें खतरा महसूस हो या ख़तरे की आशंका भर लगे तो वे घर लौट आएं, आप साथ हैं, साथ देंगे.
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