आफताब के हाथों 35 टुकड़े की गई श्रद्धा की हत्या को 4 तर्कों से रूटीन बताया गया, खारिज करिए इसे
श्रद्धा वॉकर की वीभत्स हत्या में आफताब पूनावाला को किस तरह बचाया जा रहा है, यह परेशान करने वाला है. क्या लोगों की आत्मा चीजों को संवेदनशीलता से देखने के काबिल नहीं रही. ऐसे तर्क गढ़ने वालों पर शर्म आनी चाहिए.
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आफताब पूनावाला के हाथों 35 टुकड़ों में काटी गई श्रद्धा वॉकर की कहानी को लेकर मेरे पास बताने को कुछ नहीं है. इंटरनेट पर रहने वाला शायद ही कोई होगा, जिसे डिटेल ना पता हो. और मुझसे ज्यादा जानकारी होगी, क्योंकि इंटरनेट पर लगातार ना रहने की वजह से मुझे घटना के बारे में देर से जानकारी मिली. अब जबकि चीजों को देख रहा हूं, कहानी के बाद इस पर बहस करने की मेरी इच्छा है. दिल्ली में महाराष्ट्र की दलित लड़की श्रद्धा की हत्या (एफआईआर में पिता ने खुद को दलित कोली ही बताया है) आम नहीं है. हत्या के दूसरे मामलों की तरह सामान्य घटना के तौर पर नहीं लिया जा सकता? दुर्भाग्य से लिया जा रहा है.
श्रद्धा की हत्या को एक रूटीन हत्या साबित करने के लिए नाना प्रकार के तर्क गढ़े जा रहे हैं. इनमें चार को व्यापक रूप से चिन्हित किया जा सकता है. नीचे है.
-आफताब मनोरोगी है.
-दिल्ली पुलिस की नाकामी है.
-हिंदू-मुस्लिम नजरिए से देखना गलत है.
-और लव जिहाद नहीं है.
आफताब और श्रद्धा.
1. आफताब मनोरोगी है
सोशल मीडिया पर देखा जा सकता है कि तमाम लोग आफताब को मनोरोगी बताते हुए मामले की घटना की संवेदनशीलता को छिपा रहे हैं. पर्दा डाल रहे हैं. असल में जब आफताब को मनोरोगी कहा जाता है तो तमाम चीजें खुद ब खुद ढंक जाती हैं. कोर्ट में भी आफताबों को मनोरोगी समझकर माननीय जज, सजा की बजाए दया और इलाज का पात्र समझ बैठते हैं. जो लोग ऐसा कह रहे हैं, वे शायद अपने सेकुलर मूल्यों को बचा रहे हैं. या फिर वे आफताब की 'टू दी पॉइंट' आलोचना करके अपने उन तमाम दोस्तों, वैचारिक मित्रों और रोजगार को किसी भी हाल में खोना नहीं चाहते, असल में जिसकी वजह आफताब का समुदाय हो सकता है.
मैं समझ सकता हूं. टू दी पॉइंट बात करने की वजह से मैंने तमाम दोस्तों को खोया है, इधर के कुछ दिनों में. और ऐसा नहीं है कि मेरे सिर पर सींग उग गए अचानक से और मेरे नाखून बड़े हो गए हैं. दांत ज्यादा बाहर निकल आए हैं. ऐसा भी नहीं है कि मैंने उनसे जातीय/धार्मिक घृणा की. गाली दी. अपमान किया. या फिर उन्हें बोल दिया कि निकल जाओ मेरी जिंदगी से तुम. वे चुपके से गए या जा रहे हैं. उन्होंने कोई मुनादी भी नहीं की. आमतौर पर लोग इस बात की भी मुनादी करते हैं कि मैंने आज अलाने-फलाने की सफाई की. मैंने संघियों या वामियों या भक्तों या मनुवादियों को विदा किया.
आफताब को मनोरोगी बताते हुए देश के कई सारे वहशी सीरियल किलर्स की कहानियां साझा की जा रही हैं. सबसे मजेदार वह तर्क है जिसमें एक अपराधी को मनोरोगी बताने के लिए जानकारी दी गई कि जेल में उसे इतना टॉर्चर किया गया कि बाहर निकलने के बाद वह हत्याएं करने लगा. दुर्भाग्य से जांच में यही सामने आया है कि आफताब के हाथों पहली हत्या है. और दुर्भाग्य यह भी है कि आफताब जेलों में नहीं रहा. और उसे यातनाएं भी नहीं दी गई. चूंकि तमाम विद्वान लोग कह ही रहे हैं तो हो सकता है कि आफताब मनोरोगी ही हो. उसने भले हत्याएं ना की हों, जेलों में यातनाएं ना भुगती हों- मगर देश में मुसलमानों की हालत को देखकर मनोरोगी बन गया हो. और तमाम लोगों की 'गलतियों' का खामियाजा प्रेम में पड़ी एक निर्दोष लड़की को भुगतना पड़ा. भाजपा विरोधी नेता तो यही चिल्लाते रहते हैं. यह तर्क फैशन की तरह बात-बात में आता रहता है.
यह तर्क भी गढ़ सकते थे श्रद्धा के पक्ष में. लेकिन नहीं.
2. दिल्ली पुलिस की नाकामी है
श्रद्धा के मामले में यह दिलचस्प तर्क भी आया है. कई लोग कह रहे हैं. एक रिपोर्ट भी पढ़ने को मिली जिसमें पत्रकारिता के सबसे आसान हथकंडे और पुराने पड़ चुके फ़ॉर्मूले की चादर से ठीक वैसी ही कोशिश दिखती है जैसे मनोरोगी के तर्क में दिखी. कुछ भी ना मिले तो आप पुलिस, प्रशासन और सरकार के माथे ठीकरा फोड़कर अपनी वैचारिक पत्रकारिता को बचा ले जाएं. मैं जिस रिपोर्ट का जिक्र कर रहा हूं उसमें आफताब के वहशीपने की कठोरतम शब्दों में निंदा है, लेकिन आफताब की क्रूरता और उसके अपराधों का भार दिल्ली पुलिस के कंधों पर भी डाल दिया गया है. उन्होंने सीधे-सीधे लिखा कि दिल्ली पुलिस के 90 हजार लोग क्या कर रहे थे? एक आदमी बेख़ौफ़ हत्या करता है. लाश को ठिकाने लगाता है. और पुलिस को पता भी नहीं चलता.
श्रद्धा का मर्डर जिस तरह से किया गया और उसकी लाश ठिकाने लगाई गई- बताने की जरूरत नहीं है. संबंधित पत्रकार के हिसाब से दिल्ली पुलिस को सुबह शाम हर घर के अंदर घुसकर चेक करना चाहिए. हर कमरे में सीसीटीवी लगा देना चाहिए. सड़कों गलियों में निकलने वाले हर शख्स के हाथ की थैलियां, झोले चेक करना चाहिए. दिल्ली समेत देश की तमाम पुलिस को संबंधित पत्रकार की सेवाएं लेनी चाहिए. उनके पास तरीके होंगे- जिसके जरिए श्रद्धाओं को बचाया जा सके. और पुलिस की नाकामी की वजह से आफताबों को अपराध के लिए मजबूर ना होना पड़े.
बहुत घिसा तर्क है. यह पंद्रह बीस साल पहले सटीक बैठता था.
3. हिंदू-मुस्लिम नजरिए से देखना गलत है
लोग श्रद्धा मामले में मौजूदा राजनीति को दोष दे रहे. बता रहे कि यह मामला बिल्कुल ऐसा नहीं है कि इसे हिंदू मुस्लिम नजरिए से देखा जाए. अंतरजातीय विवाह और उसके इर्द गिर्द की घटनाओं को पेश किया जा रहा है. बावजूद कि वहां चीजें लगभग बंद हो गई नजर आ रही हैं. और वो भूगोल विशेष की सामाजिक दिक्कतें हैं. जो पुराने मामले गिनाए जा रहे हैं, दुर्भाग्य से सबके सब ऑनर किलिंग के मामले हैं. अपवाद के रूप में एकाध मामलों को छोड़ दिया जाए तो उनमें किसी भी मामले में प्रेमी या प्रेमिका की तरफ से हत्या का ऐसा वीभत्स उदाहरण है ही नहीं. ऑनर किलिंग में हत्याएं रिश्तेदारों ने की. पिछले कुछ सालों में मुझे याद नहीं है कि ऑनर किलिंग का ऐसा कोई खौफनाक मामला सामने आया हो- बॉलीवुड फिल्मों की कहानियों के अलावा. पिछले दिनों बिहार में जरूर एक ताजा मामला आया था.
देश में जो क्षेत्र ऑनर किलिंग के लिए बदनाम थे वहां भी ऐसे मामले सामने नहीं आते. सवर्णों की तमाम लड़कियों ने दलित या नीचली जातियों में विवाह किया और सवर्ण दबंग भी थे, लेकिन कई अंतरजातीय विवाह के जो मामले चर्चा में रहे वहां ऑनर किलिंग नहीं हुई. अंतरजातीय विवाह या प्रेम विवाह को लेकर अभी भी समाज में ना नुकर है. बावजूद बदलाव दिखता है. पहले समाज का दायरा कम था. बाहरी संपर्क कम थे. निकलने वालों में पुरुष ज्यादा थे. ऐसे हालात में अंतरजातीय या प्रेम विवाह के लिए जमीन नहीं थी. समाज का दायरा छोटा था तो वह ज्यादा ताकतवर था. और उस सामाजिकी में ऑनर किलिंग की घटनाएं दिखती हैं.
लेकिन पिछले तीस-चालीस साल में समाज बहुत आगे बढ़ा है. अंतरजातीय और प्रेम विवाह खूब हो रहे हैं. इसकी वजह समाज का दायरा बढ़ना, बाहरी संपर्क का ज्यादा होना और पुरुषों की तुलना में महिलाओं का भी शिक्षा रोजगार के लिए बाहर निकलना है. लोग मनमाफिक प्रेम कर रहे हैं और शादियां कर रहे हैं. और ऐसा भी नहीं है कि सभी अंतरजातीय या प्रेम विवाहों से परिवारवाले रजामंद ही हों. भारी विरोध अब भी है. बावजूद शादियां खूब हो रही हैं. समाज में यह बदलाव अपनी गति से हो रहा है.
दुर्भाग्य से श्रद्धा और आफताब के मामले को हिंदू मुस्लिम नजरिए से देखने के अलावा कोई रास्ता ही नजर नहीं आता. कोई हो तो बताएं?
4. और लव जिहाद नहीं है.
जाहिर तौर पर प्रेम, पागलपन, और दिल्ली पुलिस की नाकामी बताने वालों (और भी दर्जनों खोखले तर्क हैं) के लिए यह लव जिहाद का मामला नहीं है. बावजूद कि यह लव जिहाद ना सही लेकिन जिहाद का ही मामला है. और बहुत ही संवेदनशील मामला है. अंतर्धार्मिक विवाह के मामले, नई बात नहीं हैं. कई खुशहाल कपल मिलेंगे. हर धर्म/मजहब के. लेकिन फर्क यह भी है कि पहले ऐसे मामले नहीं होते थे. कई विधर्मी जोड़े, खुशहाल जोड़े हैं. बहुत कम मात्रा में असहमतियाँ दिखी हैं. और लोग रिश्ते से अलग हो गए हैं. हत्याएं नहीं हुई हैं. यह कम सामान्य बात है क्या कि हत्याएं सिर्फ वहीं होती है जहां पति या मेल पार्टनर मुस्लिम है. बाकी अलग-अलग धर्मों के जोड़ों में यह नजर नहीं आता. पिछले एक डेढ़ दशक से एक जैसा ट्रेंड नजर आ रहा रहा है. अब एक महीना बीतता नहीं है कि आफताब-श्रद्धा जैसे मामले सामने आ ही जाते हैं.
सबसे दुर्भाग्यपूर्ण और संवेदनशील यह भी है कि आफताब कौन है? बेहद पढ़ा लिखा शहरी. आत्मनिर्भर. श्रद्धा के मामले को हटा दें तो वह एक आदर्श भारतीय मुसलमान दिखता है. नौजवान है और बहुत ख़ूबसूरत भी है. ऐसे आफताब किसी भी श्रद्धा के दायरे में रहते हैं और उनसे आकर्षित होना किसी भी श्रद्धा के लिए बहुत स्वाभाविक है. लेकिन आफताब के लिए घरबार छोड़ देने वाली श्रद्धा के साथ होता क्या है? क्यों ना माना जाए कि उसका प्रेम पहले दिन से एक छलावा था. वह सिर्फ श्रद्धा को बर्बाद करना चाहता था. श्रद्धा उसके लिए बस एक स्लेव थी, पार्टनर नहीं. श्रद्धा पार्टनर बनना चाहती थी. श्रद्धा के परिवार के हवाले से पता चलता है कि वह आफताब को वैसे ही प्यार करती है, जैसे भारतीय लड़कियां अपने मेल पार्टनर्स को करती हैं. पिटने के बाद भी वह मां से दोहराती रहती है कि आफताब अब ऐसा नहीं करेगा. सुधर चुका है.
क्यों ना माना जाए कि आफताब के हाथों श्रद्धा की हत्या धार्मिक घृणा की वजह से की गई हो. माफ़ करिए. अति आधुनिक आफताब ने जिस वहशी तरीके से सबकुछ किया है वह 'जिहाद' ही है और किसी आतंकी का कलेजा ही आरी से एक ख़ूबसूरत लड़की के 35 टुकड़े कर सकता है. उसके सिर को फ्रीज में रख सकता है. और उसी फ्रीज से दूध निकालकर चाय में पी सकता है. यह मनुज का काम नहीं है.
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