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Updated: 06 जून, 2015 11:20 AM
पीयूष बबेले
पीयूष बबेले
  @piyush.babele.5
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भारत में इस बहस को चलते करीब चार दशक हो गए हैं कि क्यों न हम भी घरेलू कचरे से बिजली बना लें. जब यूरोप के देश ऐसा कर सकते हैं तो भारत ऐसा क्यों नहीं कर सकता. लेकिन देश में सरकार की पूरी सहायता और सब्सिडी के बावजूद लंबे समय तक इस तरह के प्रयोग नाकाम रहे. जबकि इस बीच यूरोप में जर्मनी, स्वीडन, नॉर्वे, बेल्जिमयम और नीदरलैंड जैसे देशों में कूड़े से बिजली बनाने के 420 से ज्यादा प्लांट न सिर्फ शुरू हुए बल्कि बिजली सप्लाई भी करने लगे. हाल यह है कि स्वीडन जैसे कई देशों में तो इस बात की चिंता है कि उनके पास इतना कूड़ा ही नहीं है कि वे अपनी जरूरत की पूरी बिजली सिर्फ कूड़े से बना सकें. इन देशों में कई नगर पालिकाओं में इस बात पर झगड़ा मचा हुआ है कि वे अपने शहर का कूड़ा दूसरे शहर को क्यों दें.

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 सोलापुर में बने इस प्लांट से एक साथ तीन काम किए जा रहे हैं

सोलापुर का प्रयोगलेकिन देर से ही सही भारत में भी कुछ शहरों ने इस दिशा कामयाबी हासिल करके दिखाई है. अपने पूरे कूड़े को बिजली में बदलने और वह भी पर्यावरण को किसी तरह का नुकसान पहुंचाए बिना- यह काम महाराष्ट्र के सोलापुर शहर ने कर दिखाया है. 10 लाख की आबादी वाले इस शहर में रोजाना 5,000 टन कचरा निकलता है. पहले यह कूड़ा पुणे-हैदराबाद हाइवे पर करीब 13 एकड़ के दायरे में गंधाता रहता था. लेकिन अब कूड़े का ढेर गायब है और बीच में कूड़े से बिजली बनाने वाली कंपनी ऑरगेनिक रिसाइकिलिंग सिस्टम (ओआरएस) का बिजलीघर दिखाई देता है. नगर निगम के ट्रक बिजलीघर के अंदर कचरा डालकर चले जाते हैं. और इसके बाद यह कचरा बिजली, ऑर्गेनिक खाद और सडक़ों में इस्तेमाल के लिए तैयार प्लास्टिक में बदल जाता है. यहां से 3 मेगावाट बिजली ग्रिड को सप्लाई कर दी जाती है. यह काम पिछले तीन साल से सफलता पूर्वक चल रहा है. तीन साल का यह समय महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे पहले कूड़े से बिजली बनाने की कई परियोजनाएं चार-छह महीने चलकर बंद हो चुकी हैं.

देसी टेक्नोलॉजी का कमाललेकिन सोलपुर में वह कौन सी बात है जो इसे इससे पहले की नाकाम योजनाओं से अलग करती है. इस बारे में पेशे से इंजीनियर और ओआरएस के सीएमडी सुहास भांड कहते हैं, ‘‘इससे पहले की ज्यादातर योजनाएं इसलिए नाकाम रहीं क्योंकि उनमें रिसाइकेबल और अन्य तरह के कचरे को अलग-अलग करने की मजबूरी थी. भारत की खास जरूरतों के हिसाब से बनी हमारी पेटेंट टेक्नोलॉजी में कूड़े को छांटने की जरूरत नहीं है.’’ दरअसल यह टेक्नोलॉजी कुछ-कुछ वैसी ही है, जैसे मनुष्य का पाचन तंत्र होता है. बिजली बनाने के अलावा जो स्लरी बचती है, उससे ऑर्गेनिक कंपोस्ट बन जाता है. कंपनी इसे खाद बनाने वाली कंपनियों को बेचकर अलग से पैसा कमा रही है. वहीं प्लास्टिक कचरा रोड इंडस्ट्री को बेच दिया जाता है.

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 यहां कूड़े से बिजली पैदा करने के साथ-साथ खाद और सड़कों के लिए प्लास्टिक मैटीरियल भी बनाया जाता है

बाकी शहर भी राह परसोलापुर की तर्ज पर ही महाराष्ट्र में पुणे और कर्नाटक में बेंगलुरु ने भी इसी टेक्नोलॉजी से कूड़े से बिजली बनाने के संयंत्रों को मंजूरी दे दी है. बेंगलुरु में 10 मेगावाट का और पुणे में 7 मेगावाट का कूड़े से बिजली बनाने वाला संयंत्र लगाने का काम शुरू हो रहा है. उधर 40 साल से कूड़े से बिजली बनाने का संघर्ष कर रही दिल्ली को भी अब राह मिलती नजर आ रही है. यहां जिंदल सॉ कंपनी ने कूड़े से बिजली बनाने काम शरू कर दिया है. वाराणसी जैसे शहर इस तरह के प्रयोगों को अपना सकते हैं क्योंकि वाराणसी में हाल ही में कूड़े से बिजली बनाने का एक प्रयास नाकाम हो चुका है.

सरकार भी कर रही मददकूड़े से बिजली बनाने वाली कंपनियों पर भार न पड़े इसलिए केंद्रीय विद्युत विनियामक आयोग (सीइआरसी) इस तरह के बिजलीघर शुरू होने से पहले ही सुनिश्चित कर देता है कि बिजलीघर से अपेक्षाकृत महंगे दाम पर बिजली खरीदी जाएगी. सीइआररसी के एक अधिकारी बताते हैं, ‘‘बिजली बनाने वाली बाकी कंपनियों और कूड़े से बिजली बनाने वाली कंपनी में फर्क करना पड़ेगा. यहां मूल उद्देश्य पर्यावरण को साफ करना और कचरे के निस्तारण को बढ़ावा देना है. एक तरह से बिजली तो बाइ प्रोडक्ट है. इसीलिए इन कंपनियों को यह सहूलियत दी जा रही है.’’ लेकिन रोशनी की किरण के बीच लोगों को यह याद रखना होगा कि दिल्ली जैसे शहरों ने पहले से जो कूड़े के पहाड़ खड़े कर लिए हैं, वे अब भी खत्म नहीं किए जा सकते, क्योंकि वहां का कूड़ा पत्थर बन चुका है. इन पहाड़ों के लिए दिल्ली नगर निगम की वही स्कीम ठीक है जिसमें इन्हें ढककर हरा-भरा बनाया जा रहा है. हां, यह पहल इतना सुनिश्चित जरूर करेगी कि दिल्ली जैसे शहरों में कूड़े के नए पहाड़ न बनें.

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लेखक

पीयूष बबेले पीयूष बबेले @piyush.babele.5

लेखक इंडिया टुडे में विशेष संवाददाता हैं.

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