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Updated: 04 मई, 2016 06:08 PM
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मलाला को लेकर श्रीश्री रविशंकर के बयान पर लोग उन्हें काफी कुछ कह चुके हैं - उन्हें शायद समझ भी आ गया होगा कि भक्तों की जमात के बाहर भी कोई दुनिया बसती है, जो न तो उन्हें पैसे देकर जीने की बनावटी कला सीखती है और न ही किसी बहादुर बच्ची का मजाक उड़ाया जाना बर्दाश्त करती है.

साहिर के लफ्जों में जहां 'तालीम है अधूरी, मिलती नहीं मजूरी' - वहां क्या कोई खाक जीने की कला सीखेगा. जहां हर कला पेट की आग से शुरू होकर उसी आग का निवाला बन कर बुझ जाती हो - वहां आर्टिफिशियल आर्ट ऑफ लिविंग के क्या मायने हैं?

श्रीश्री को 70 अवॉर्ड

अब पुरस्कारों को लेकर रविशंकर की एक बात समझ में नहीं आ रही. एक तरफ तो वो नोबल पुरस्कार को इतना अहम नहीं मानते कि वो इस बात की इजाजत दें कि नोबल समिति पूरी श्रद्धा के साथ उन्हें ये अवॉर्ड दे सके. दूसरी तरह, उसी अवॉर्ड को लेकर उनका कहना है कि मलाला यूसुफजई उसके लायक नहीं है.

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श्रीश्री रविशंकर की साइट पर उन्हें मिले 70 पुरस्कारों का जिक्र है. सबसे पहले 15 अवॉर्ड तो डिग्रियों के हैं जो मानद डिग्रियां उन्हें नवाजी गई हैं. उसके बाद एक सूची है जिसमें 37 पुरस्कारों के नाम दिये गये हैं. इन्हें - दुनिया की सरकारों द्वारा दिये गये सम्मान बताया गया है. इस सूची में सबसे ऊपर लिखा है - पद्मविभूषण, जिसे भारत सरकार की ओर से इसी साल दिया गया है.

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अब तक 70...

एक और सूची जिसमें 18 पुरस्कारों का जिक्र है जिन्हें 'अन्य अवॉर्ड' बताया गया है.

तो क्या नोबल अवॉर्ड इतना बड़ा है कि मलाला यूसुफजई को नहीं दिया जाना चाहिए था? या वो इतना अदना सा है कि रविशंकर उसे अपने लायक नहीं मानते.

जीने की कला?

सही बात है. रविशंकर सही पकड़े हैं - मलाला ने कुछ भी नहीं किया. आर्ट ऑफ लिविंग के पैमाने शायद छोटी सी उम्र में बीबीसी की साइट पर ब्लॉग लिख कर तालिबान की दहशत को दुनिया के सामने लाना कोई बड़ी बात नहीं हो. जब बंदूक के बल पर स्कूल जाने के लिए मना किया जाता हो फिर भी बगैर नागा स्कूल चले जाना भी शायद उस थ्योरी के हिसाब से बहादुरी की बात न हो.

फिर ये क्या विरोध हुआ कि लड़कियों की पढ़ाई के लिए खुद को बंदूक के आगे कर दो और गोली खा लो.

अरे ये जीवन इसीलिए थोड़े ही मिला है. ये जीवन जीने के लिए मिला है गोली खाने के लिए नहीं. जीने की कला इसमें थोड़े ही है कि जीवन को ही दांव पर लगा दो. ये सब तो दुनिया में चलता रहता है.

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श्रीश्री को पुरस्कार से विभूषित करते राष्ट्रपति

जीने की कला तो ये है कि किसी खूबसूरत जगह पर जहां संगीत की मीठी धुन बज रही हो, लोग उस धुन पर थिरक रहे हों - वहां बैठो ध्यान लगाओ. जीने की कला का अभ्यास करो - और क्या?

अब अगर इस हिसाब से देखें तो मलाला ने आर्ट ऑफ लिविंग के लिए किया ही क्या है? और आर्ट ऑफ लिविंग के लिए कुछ किया नहीं तो नोबल देने का मतलब क्या था?

जो पद्म पुरस्कार रविशंकर की एक सूची में सबसे ऊपर है उसे ही एक बार ठुकराने का दावा बाबा रामदेव भी कर चुके हैं. ये बात अलग है कि सरकारी बयान आया तो पता चला रामदेव के नाम पर तो चर्चा ही नहीं हुई. हां, श्रीश्री भले ही नोबल को लेकर ठुकराने का दावा कर रहे हों, लेकिन रामदेव को इसका मलाल जरूर है. रामदेव के मुहं से ही सुनने को भी मिला - रामदेव ने एक बार समझाया था कि अगर उनका भी रंग गोरा होता तो उन्हें कब का नोबल पुरस्कार मिल चुका होता.

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नोबल पुरस्कार को लेकर रविशंकर के बयान पर वरिष्ठ स्तंभकार मनु जोसफ ने एक फेसबुक पोस्ट लिखी है. हालांकि, उनके इस पोस्ट का अंदाज मजाकिया है - लेकिन रामदेव पद्म पुरस्कार प्रकरण के याद आते ही गंभीर प्रतीत होने लगता है. जोसफ की इस पोस्ट में नोबल कमेटी का कहना है कि उन्होंने तो बस नगमा का नंबर मांगा था.

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नगमा का नंबर देना! [मनु जोसफ के फेसबुक पोस्ट से]

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