डॉक्टर के पास जाने की बजाय गूगल सर्च क्यों
एक आईआईटी ग्रेजुएट की अजीब कहानी, जिसे गूगल सर्च से एड्स के लक्षण जानने के बाद खुद और परिवार के एचआईवी से संक्रमित होने की बात पर यकीन हो गया.
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गूगल पर इल्जाम लगना चाहिए. पिछले हफ्ते एक खबर सुर्खियों में थी - एक आईआईटी ग्रेजुएट की अजीब कहानी, जिसे गूगल सर्च से एड्स के लक्षण जानने के बाद खुद और परिवार के एचआईवी से संक्रमित होने की बात पर यकीन हो गया. और इसी यकीन के चलते उसने परिवार सहित आत्महत्या का फैसला कर लिया. 39 साल के प्रवीण मनवर ने कथित तौर पर अपनी पत्नी और बेटियों को एक कार में बैठाकर आग लगा दी. हालांकि, इस कहानी पर पुलिस को भरोसा नहीं है.
वैसे तो यह कहानी अतिशयोक्ति पूर्ण लग सकती है. पर निश्चित रूप से यह गूगल पर बीमारियों के लक्षण ढूंढने के खतरों को भी उजागर करती है. 'मेडिकल सेकंड ओपिनियन' के लेखक डॉ. प्रहलाद कश्मीर सेठी भी यही दोहराते हैं कि "स्वयं उपचार दुख का कारण हो सकता है." चिकित्सा मामलों में एक रोगी के लिए ये जानना जरूरी है कि कैसे, कब और क्यों दूसरी राय ली जानी चाहिए. दूसरी राय आमतौर पर चिकित्सा शिष्टाचार के खिलाफ मानी जाती रही है, लेकिन कई मामलों में जरूरी हो जाता है, खासकर आज संदिग्ध चिकित्सा आचारनीति वाले दौर में.
ब्रेन केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के संस्थापक और कई पुरस्कार पा चुके न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. सेठी इस पर रोशनी डालते हैं. वो कहते हैं कि हम अपनी वजहों से ही दूसरे डॉक्टर की तलाश शुरू करते हैं. ऐसा तब होता है जब हमें पहले डॉक्टर के निदान और अनुमान पर संदेह हो. या फिर हम पहले बताए गए इलाज से बचना चाहते हों. वह इन कारणों के अलावा भी कुछ फैक्टर के बारे में लिखते हैं जिनकी वजह से लोग अक्सर सेकंड मेडिकल ओपिनियन लेते हैं. मसलन उन बीमारियों के बारे में जिनके प्रति सामाजिक धारणा ठीक नहीं है: एक युवती जिसकी शादी होने वाली हो उसे बताया जाए कि उसे मल्टिपल स्क्लेरॉसिस हो सकती है, तो वह एक ऐसे डॉक्टर के पास जाना चाहेगी जो इस निदान को नकार दे, जैसे लाइलाज बीमारी से ग्रस्त कोई शख्स किसी ऐसे डॉक्टर को खोजे जो उसे चमत्कारी इलाज से ठीक कर दे. कानूनी मामलों में रिश्तेदार डॉक्टरों के चक्कर इसलिए लगाते हैं ताकि वे किसी बीमारी के लिए सर्टिफिकेट ले सकें, जैसे कोई पति अपनी पत्नी के लिए एक सर्टिफिकेट चाहता हो जिससे उसे पागल साबित कर वो तलाक ले सके.भारत में कई सामाजिक और सांस्कृतिक वजहें भी चिकित्सा संबंधी फैसलों को प्रभावित करते हैं. सर्जरी के डर से बहुत सारे लोग ऐसे डॉक्टर की तलाश में रहते हैं जो सर्जरी के बजाय फिजियोथैरेपी से इलाज की सलाह देता हो. वैसे आज के व्यवसायिक मेडिकल परिवेश में कई बार यह फैसला समझदारी भरा हो सकता है जब लोग चाकू लेकर तैयार बैठे हों. ज्यादातर डॉक्टरों के लिए तकनीक पर भरोसा करना एक प्रचलन बन गया हो लेकिन यह बहुत अच्छी बात हो, ऐसा नहीं है. सेठी कहते हैं कि हमें याद रखना चाहिए कि 90 फीसदी इलाज रोगी की शारीरिक जांच और उससे पूछे गए सवालों के आधार पर होते हैं.
मेडिकल जांच केवल बीमारी के निदान को साबित या नकारने के लिए ही होनी चाहिए. अब जनरल फिजिशियन या फैमिली डॉक्टर की धारणा पुरानी भले हो गई हो, लेकिन डॉ. सेठी की सलाह है कि अगर आपके पास कोई अच्छा जनरल फिजिशियन है तो उन्हें गंवाएं नहीं, बल्कि सम्मान दें जिसके वे हकदार हैं और कोई अनुचित लाभ न उठाएं.
कई बार दूसरे डॉक्टर की राय उपचार और रोग के निदान को प्रभावित कर सकती है. उदहारण के लिए - एक ऐसा मरीज जिसकी लाइलाज बीमारी को दवाओं की मदद से काबू में रखा गया हो, वो किसी ऐसे डॉक्टर के पास जाए जो पूरी तरह ठीक करने को कहे, और बाद में उसकी हालत और बदतर हो जाए.
न्यूयॉर्क टाइम्स में बेस्टसेलर की सूची में शामिल 'हाउ डॉक्टर्स थिंक' के लेखक डॉ. जे. ग्रूपमैन कहते हैं, 'चिकित्सा पद्धति, मूल रूप में, अनिश्चित विज्ञान है. हर डॉक्टर निदान और उपचार में गलती करता है.' डॉ. ग्रूपमैन अमेरिका के उन डॉक्टर लेखकों में शामिल हैं जिन्होंने डॉक्टरों की मंशा और व्यवहार के प्रति व्यापक समझ को बढ़ावा देने के साथ ही डॉक्टर और रोगी के बीच कम्यूनिकेशन गैप को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
जब रोगी की आवाज मुश्किल से सुनी जाती हो और उसके अधिकार भी प्रारंभिक अवस्था में हों, 'मेडिकल सेकंड ओपिनियन' जैसी किताब सही दिशा में एक कदम है. डॉक्टर सेठी जैसे अनुभवी और लोगों से संवाद कायम करने में सक्षम डॉक्टर जांच और इलाज के उपलब्ध विकल्पों को बेहतर तरीके से समझाने में काफी मददगार हो सकते हैं.
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