मांसाहार के समर्थन का मतलब मानवता का विरोध!
जिस तरह आइसिस बेकसूर लोगों को बर्बरता से मार रहा है, उसी तरह हम बेकसूर जानवरों को बर्बरता से मार रहे हैं. आइसिस वाले कम से कम इंसानों को मारकर फेंक देते होंगे, खाते नहीं होंगे.
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अगर जानवरों की भाषा हम समझ पाते तो हमें पता चलता कि वे भी हमें आइसिस से कम ख़तरनाक आतंकवादी नहीं समझते हैं. जिस तरह आइसिस बेकसूर लोगों को बर्बरता से मार रहा है, उसी तरह हम बेकसूर जानवरों को बर्बरता से मार रहे हैं. आइसिस वाले कम से कम इंसानों को मारकर फेंक देते होंगे, खाते नहीं होंगे. लेकिन हम सभ्य शरीफ लोग न सिर्फ़ बेकसूर जानवरों को मार रहे हैं, बल्कि उन्हें खा भी रहे हैं. इस लिहाज से देखा जाए तो जानवरों के संदर्भ में हम सब आइसिस के आतंकवादियों से भी गए गुज़रे, बर्बर और ख़तरनाक हैं.
मुझे लगता है कि लोगों में संस्कार भरने की ज़रूरत है. वे संस्कारहीन लोग हैं जो मांसाहार का समर्थन करते हैं. जब तक आदमी जंगली था, अगर तब तक वह भी जंगली जानवरों की तरह व्यवहार करता था और अपने से कमज़ोरों को मारकर खा जाता था, तो यह बात समझ में आती है. लेकिन जब उसने जंगलों को पीछे छोड़ दिया, जंगलों से उसे इतनी नफ़रत हो गई कि उसने दुनिया भर में जंगल उजाड़ डाले, फिर भी सभ्यता और संस्कार उसे जंगलों वाला ही चाहिए, यह बात समझ में नहीं आती. मुझे लगता है कि मांसाहार का समर्थन करने वाले लोगों की सोच आज भी जंगली है.
मैं कभी यह समझ नहीं पाता कि अपनी जिह्वा के स्वाद के लिए या अपनी भूख या हवस मिटाने के लिए हम बेगुनाह जानवरों की हत्या कैसे कर सकते हैं? किसी जीव का मांस खाना... वह भी स्वाद ले-लेकर... यह तो राक्षसी प्रवृत्ति है. आख़िर हमें तय करना होगा कि राक्षस किसे कहें? जो बेकसूर इंसानों को मारे अगर वह राक्षस, तो बेबस जानवरों को मारने वाला राक्षस क्यों नहीं? यह कौन-सी मानवता है और यह कौन सा न्याय है कि हमें तो खाने-पीने तक की आज़ादी चाहिए, लेकिन दूसरे जीवों को जीने तक की आज़ादी नहीं हो?
अगर एक ही ईश्वर ने हमें भी बनाया है और उन्हें भी बनाया है, तो हम उनके जीने की आज़ादी का सम्मान क्यों नहीं कर सकते? क्या सिर्फ़ इसलिए कि हम ताकतवर हैं, वे कमज़ोर हैं? हम शातिर हैं, वे सरल हैं? हम दुनिया के मालिक बन बैठे हैं और दूसरे सारे जीवों को हमने अपना सामान समझ लिया है? अब हम जिस पर जो जुल्म करेंगे, सबको वह सहना होगा. राक्षसों, जंगली मनुष्यों, आक्रांताओं और आतंकवादियों की यही तो सोच होती है. हम उनसे अलग कहां हैं?
इंसान का दोगलापन देखिए. अपेक्षाकृत ताकतवर जानवरों मसलन बाघों, शेरों, चीतों, हाथियों का वे संरक्षण करते हैं, लेकिन कमज़ोर जीवों मसलन गायों, बकरों, मुर्गों, कबूतरों, मछलियों इत्यादि को मारकर खा जाते हैं. वे कह सकते हैं कि अगर इन्हें मारकर न खाएं तो इनकी आबादी बहुत बढ़ जाएगी. इस दलील से तो इंसानों की आबादी विस्फोटक तरीके से बढ़ रही है, तो उनका कत्लेआम करने वालों का भी समर्थन किया जाना चाहिए? वे, जो दुनिया भर में कत्लेआम कर रहे हैं, कहां कुछ ग़लत कर रहे हैं? आबादी बढ़ेगी तो मारामारी बढ़ेगी!
अफसोस कि इस दुनिया में चोरों, डकैतों, भ्रष्टों, लुटेरों, आतंकवादियों, उग्रवादियों, बंदियों, कैदियों सबके पास तरह-तरह के अधिकार हैं. उनके भी मानवाधिकारों के नाम पर हर जगह बड़ी-बड़ी दुकानें खुली हुई हैं, लेकिन जिन जानवरों ने किसी का कुछ बिगाड़ा नहीं है, उनका न कोई अधिकार है, न उनके अधिकारों की बात करने वाले किसी व्यक्ति को इस राक्षसी दुनिया में सुना जाता है.
अगर हम अपने से कमज़ोर जानवरों के ख़िलाफ़ हिंसा और उन्हे मारकर खा जाने का समर्थन करते हैं, तो जब कोई ताकतवर अपने से कमज़ोर लोगों को सताता है, तो उसका किस आधार पर विरोध करते हैं? यही दोगलापन है. अगर हमें अपने से कमज़ोर जानवरों को मारकर खा जाने का अधिकार है, तो फिर दुनिया में जो भी ताकतवर है, उसे अपने से कमज़ोर लोगों पर वह सारे ज़ुल्म करने का अधिकार है, जो अपने फ़ायदे के लिए वह कर सकता है.
ठीक है कि आपको जानवरों की भाषा समझ में नहीं आती. जब आप उन्हें काटते हैं, तो वे चीख-चीखकर जो कुछ भी कहते हैं, वह हिन्दी-उर्दू-अंग्रेज़ी-फ़ारसी किसी भी भाषा के दायरे में नहीं आती, उसे लिपिबद्ध नहीं किया जा सकता, टीवी चैनलों पर ट्रांसक्राइव करके उसे दिखाया नहीं जा सकता, अखबारों के पन्नों पर उसे कोट-अनकोट की तरह छापा नहीं जा सकता, लेकिन क्या आप उनकी कातर आंखों की भाषा भी नहीं समझते? जब काटे जाते वक्त वे चीखते हैं, छटपटाते हैं, डूबती आंखों से आपसे रहम की भीख मांगते हैं, तब भी आपका कलेजा नहीं पसीजता? ...और अगर नहीं पसीजता, तो अपने आप को इंसान कहने और समझने में आपको शर्म नहीं आती? किस बुनियाद पर आप आइसिस, तालिबान, लश्कर के आतंकवादियों से बेहतर हैं, कृपया मुझे तफसील से समझाएंगे?
इसीलिए मैं एक ही बात कहूंगा कि मांसाहार का समर्थन मानवता का विरोध है. मुझे उन धर्मगुरुओं पर भी तरस आती है, जो धर्म के आधार पर सिर्फ़ गायों या सूअरों या ऐसे ही कुछ चुनिंदा जानवरों की हत्या का विरोध करते हैं. हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई बौद्ध, जैन, पारसी- सबके धर्मों से ऊपर इंसानियत का धर्म है.
...और इसीलिए मेरी दृष्टि में सिर्फ़ गायों-सूअरों की हत्या पर नहीं, सभी जीवों की हत्या पर रोक लगाई जानी चाहिए. सिर्फ़ दो-चार दिन के लिए नहीं, हमेशा-हमेशा के लिए रोक लगाई जानी चाहिए.
अगर किसी दिन इस देश में मेरी सरकार बन पाती, तो मैं तो पूरे देश में मांस, मदिरा और हर तरह के नशीले पदार्थों के सेवन पर रोक लगा देता. हमारी भारत-भूमि सदानीरा नदियों और उर्वर माटी वाली धरती है. यहां खाने-पीने के विकल्पों की कोई कमी नहीं है, इसके बावजूद अगर हम खाने के लिए बेगुनाह बेबस कमज़ोर जीवों की हत्या करते हैं, तो यह घनघोर शर्मनाक, अतार्किक, अमानवीय, राक्षसी और आतंकवादी सोच लगती है मुझे. आप चाहे मेरी बात से सहमत हों या न हों, मैं पुरज़ोर तरीके से ऐसी सोच की भर्त्सना करता हूं.
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