प्रार्थना में भी धर्म खोज लेना मानसिक दिवालिएपन से ज्यादा कुछ भी नहीं
याचिकाकर्ता का कहना है कि- 'मैं तर्कवादी और नास्तिक हूं. किसी ईश्वर को नहीं मानता. जब ईश्वर ही नहीं तो प्रार्थना किसकी और क्यों... और जब मैं ऐसा हूं तो हमारा बच्चा क्यों करे प्रार्थना?'
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पिछले पचास सालों से देश के केंद्रीय विद्यालयों की सुबह वैदिक प्रार्थना के साथ होती रही है. शिक्षक और छात्र मिलकर एक सुर से 'ॐ असतो मा सदगमय'... प्रार्थना गाते रहे हैं. लेकिन बुधवार को ये प्रार्थना सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर खड़ी कर दी गई. उसका कसूर इतना ही है कि नैतिकता की शिक्षा देने के बावजूद उसकी भाषा संस्कृत है. और संस्कृत में लिखी चीजें हिंदू धर्म को बढ़ावा देती हैं. ऐसे में ये प्रार्थना सरकारी स्कूल में दाखिल कैसे हो सकती है? स्कूल तो सरकार चलाती है. सरकार सेक्यूलर है. तो प्रार्थना संस्कृत में क्यों और कैसे... बात प्रार्थना पर नहीं धर्म पर अटकती है...
वेदों में कहा गया कि विद्यालयों में मिलने वाला ज्ञान ही दरअसल ज्योति है. क्योंकि अज्ञान अंधकार है. असत्य अंधकार है. पहले असतो मा सद्गमय... सत्य की ज्योति ज्ञान के प्रकाश से जगमगाए तो ही अमृत यानी अक्षय ब्रह्म की ओर आगे बढ़ा जा सकता है. तभी वेद के ऋषि ने भी गाया... असतो मा सद्गमय.. तमसो मा ज्योतिर्गमय.. मृत्योर्मा अमृतं गमय...
इस प्रार्थना को सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर लाकर छोड़ दिया गया. अब जब आ गई तो कोर्ट ने भी संजीदगी से कहा कि हम्म्म! मामला तो गंभीर है. प्रार्थना संस्कृत में है तो सुनवाई भी करनी होगी. तुरंत जवाब तलबी हुई और नोटिस जारी कर दिया... ये सब इधर सबसे ऊंची अदालत में चल रहा था और उधर, केंद्रीय विद्यालय के छात्रों की प्रार्थना आगे बढ़ रही थी... अपने सुर और ताल में... 'दया कर दान विद्या का हमे परमात्मा देना.. दया करना हमारी आत्मा में शुद्धता देना...'
याचिकाकर्ता विनायक शाह ने भरी अदालत में कहा कि वो तर्कवादी और नास्तिक है. किसी ईश्वर को नहीं मानता. जब ईश्वर ही नहीं तो प्रार्थना किसकी और क्यों... और जब मैं ऐसा हूं तो हमारा बच्चा क्यों करे प्रार्थना? शायद विनायक ये भूल गये थे कि आप भले नास्तिक या तर्कवादी हों, लेकिन आप बच्चे पर अपनी मान्यता और आस्था थोप नहीं सकते. आपको इसका अख्तियार नहीं...
स्कूलों की प्रार्थना को भी धार्मिक रंग देना कहां तक सही है?
एक सवाल ये भी उठता है कि जब विनायक बाबू को प्रार्थना से इतना ही परहेज है तो फिर नाम विनायक क्यों रहने दिया? बदलकर कोई भी अल्फा बीटा गामा डेल्टा जैसा नास्तिक नाम रख लेते.. ख़ैर अब बाल की खाल क्या खींचनी! अदालत में फिलहाल मामला तो नोटिस भेज कर एक बार ठिठक गया है, क्योंकि सरकार और केंद्रीय विद्यालय को जवाब देना होगा. पर उधर इन सबसे बेखबर केंद्रीय विद्यालय में प्रार्थना अपने अंतिम चरण में पहुंच गई, वेद की एक और ऋचा के साथ...
ऊं सहना ववतु सहनौ भुनक्तु सहवीर्यं करवावहै तेजस्विना वधीतमस्तु माविद्विषावहै... ऊं शांति: शांति: शांति: ... लेकिन शांति की इस प्रार्थना से उल्टे बढ़ गई अशांति.. दरअसल वेद की इस ऋचा का मतलब है, हम साथ रहें साथ खाय़ें जिससे हमारी शक्ति बढ़े और हम ज्ञान के तेज से जागृत हों, जिससे हमारे बीच कभी विद्वेष ना हो.. लेकिन हैरानी है कि इसी प्रार्थना पर द्वेष बढ़ गया. इतना बढ़ा कि अदालत तक पहुंच गया. क्योंकि बात भाव पर नहीं भाषा पर अटक गई.. शब्द पर संग्राम...
वैसे प्रार्थना तो दरअसल आत्मा और परमात्मा के बीच का संवाद है.. इसमें विवाद हो ही नहीं सकता क्योंकि किसी तीसरे की गुंजाइश ही नहीं. तीन तिगाड़ा नहीं तो काम कैसे और किसने बिगाड़ा? और विवाद भी जिन शब्दों को लेकर हो रहा है तो वैसे ही सहिष्णु शब्द एक मशहूर फिल्मी प्रार्थना में भी हैं- ' ऐ मालिक तेरे बंदे हम... ऐसे हों हमारे करम... नेकी पर चलें और बदी से डरें ताकि हंसते हुए निकले दम..'.
मशहूर शायर इकबाल ने भी लिखा 'लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी.. ज़िंदगी शम्मा की सूरत हो खुदाया मेरी... मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको.. नेक जो राह हो उसी रह पे चलाना मुझको...'
बरसों से ये दुआ ये प्रार्थना स्कूलों और मदरसों में गाई जाती है... लेकिन आजतक किसी को उस पर आपत्ति नहीं हुई.. आपत्ति होनी भी नहीं चाहिए... क्योंकि प्रार्थना परमात्मा के साथ हमारी आत्मा के संवाद का मामला है विवाद का नहीं...
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