सुरेंद्र कोली से आफताब पूनावाला तक: इन कसाईयों के दिमाग में क्या चलता है?
अक्सर हिंसक अनुभवों से ही लोग हिंसक बनते हैं. लेकिन, क्रूरता और बर्बरता के लिए एक अनुवांशिक प्रवृत्ति को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए. क्योंकि, वास्तविकता कभी-कभी ओटीटी लेखकों की सपनों की ऊंचाई और मनोचिकित्सकों की कल्पना की तुलना में कहीं ज्यादा भयावह और क्रूर होती है.
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श्रद्धा मर्डर केस ने पूरे देश को हिला कर रख दिया है. पुलिस के अनुसार, आफताब अमीन पूनावाला ने अपनी लिव-इन पार्टनर श्रद्धा वाल्कर की गला घोंटकर हत्या कर दी. इसके बाद श्रद्धा की लाश के 35 टुकड़े किये. लाश के टुकड़ों को स्टोर और प्रिजर्व करने के लिए एक फ्रिज खरीदा. और, बाद में 16 रातों तक दक्षिणी दिल्ली के जंगलों में उनको बिखेरता रहा. आफताब ने गूगल पर खून साफ करने के लिए केमिकल के इस्तेमाल का तरीका खोजा. और, पीड़िता श्रद्धा के सोशल मीडिया पर एक्टिव भी रहा. पुलिस की मानें, तो श्रद्धा की हत्या के बाद बनी नई गर्लफ्रेंड को बदबू न आए, इसके लिए कमरे में अगरबत्तियां जलाता था. और, महीनों तक देश की राजधानी में आजाद घूमता रहा.
श्रद्धा मर्डर केस के सामने आने के बाद आफताब के लिए कड़ी से कड़ी सजा की मांग लगातार तेज होती जा रही है. वहीं, मीडिया में इस घटना को खून जमा देने वाला, हड्डियां तक कंपा देने वाला और शरीर में सिहरन पैदा करने वाला बताया जा रहा है. श्रद्धा मर्डर केस ने सुरेंद्र कोली, राजा कोलंदर और चंद्रकांत झा के जघन्य अपराधों की याद दिला दी है. कोली, कोलंदर और झा ने कई शिकार किए. और, उनके शरीर के टुकड़े कर दिए. इन लोगों ने पीड़ितों के साथ और भी बहुत कुछ किया. जिस पर आगे बात करेंगे. वहीं, पुलिस के अनुसार, श्रद्धा के शरीर के टुकड़े करने की बात आफताब ने भी कबूल की है.
इस तरह के मामलों में सीरियल किलर, दरिंदा और मनोरोगी जैसे विशेषण बहुत ज्यादा इस्तेमाल किए जाते हैं. लेकिन, जिन्हें हम कसाई कह रहे हैं, ये तमाम विशेषण हमें समझने में बिलकुल भी मदद नहीं करते हैं कि ये अपराधी क्या करते हैं? और, जब उन्होंने इस अकल्पनीय घटना को अंजाम दिया, तो उनके दिमाग के अंधेरे कोनों में क्या चल रहा था? इन सवालों का पता लगाने की कोशिश करने का कोई औचित्य नहीं है. लेकिन, ये उन चीजों के बारे में बताता है. जिनकी मदद से भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने में मदद मिल सकती है. इसके बारे में एक अच्छा तर्कपूर्ण स्पष्टीकरण तभी पेश किया जा सकता है. जब अपराधों के पीछे की परिस्थितियों की जांच करने और तरीकों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने के लिए मनोवैज्ञानिक कारणों की परतों को उतारा जाए. क्योंकि, बिना संदर्भ के इनमें से अधिकतर सनसनी और सदमा ही देंगे.
आफताब ने श्रद्धा की लाश के 35 टुकड़े कर उन्हें फ्रिज में रख दिया. और, रोज एक हिस्सा जंगल में फेंकने लगा.
आफताब की कहानी से शुरू करते हैं. पहले ये जानते हैं कि आखिर कौन होता है मनोरोगी? मनोरोगी के लक्षणों में गुस्सा, चालाकी भरा व्यवहार और भव्यता शामिल होती है. लेकिन, सबसे बड़ी लक्षण पछतावे और सहानुभूति में कमी है. जो श्रद्धा मर्डर केस में क्या हुआ है, उसे बताने के लिए काफी है. 2012 में हुए निर्भया गैंगरेप और हत्याकांड के दोषियों में भी पछतावे और सहानुभूति की यह कमी नजर आई थी. जब एक विदेशी पत्रकार ने विवादित तौर पर तिहाड़ जेल में उनका इंटरव्यू लिया था. आने वाले दिनों में जांचकर्ता आफताब की मानसिक स्थिति का पता लगाएंगे. लेकिन, वो बेरहम दिखाया गया है.
आपराधिक मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, जिन अपराधों को आरोप लगाया गया है, वे अवचेतन यानी सबकॉन्शियस क्रूरता की तीन श्रेणियों में आते हैं. पहले मामले में अपराधी लाश के टुकड़े करने के तरीकों से चिकित्सक, कसाई या शेफ के तौर पर अपने जिंदगी के अनुभवों से सीखता है. पुलिस ने कहा है कि अमेरिकी क्राइम शो डेक्स्टर से प्रेरित आफताब मांस काटने वाली चाकू के इस्तेमाल में माहिर था. क्योंकि, वह एक प्रशिक्षित शेफ था. विशेषज्ञों का कहना है कि इन प्रोफेशन से जुड़े कुछ लोग समय के साथ शरीर के टुकड़े करने के प्रति असंवेदनशील हो सकते हैं. भले ही उनके सामने किसी इंसान की ही लाश क्यों न हो.
श्रद्धा मर्डर केस में लाश को बाहर निकालने, उसे छिपाने या ठिकाने लगाने में आने वाली कठिनाईयों भी नजर आती हैं. जो इशारा हैं कि लाश को डिफेंसिव तरीके से विकृत करने का तरीका अपनाया गया है. अलग-अलग जगहों पर फेंके गए लाश के छोटे-छोटे हिस्से पीड़ित की पहचान को मुश्किल बना देते हैं. और, अपराधी के पकड़े जाने तक सबूत के तौर पर बहुत कुछ बचता नहीं है. जिससे सभी टुकड़ों को एक साथ जोड़ने में मुश्किल होती है. फिलहाल पुलिस यही करने की कोशिश कर रही है.
सबकॉन्शियस क्रूरता का दूसरा रूप उन लोगों के बीच में पाया जाता है. जिन्हें किसी आघात का सामना करना पड़ा है. और, जिस पर काफी ठंडी प्रतिक्रिया देते हुए उन्होंने अपने गुस्से को एक झेलने वाले मैकेनिज्म से दबा दिया है. सभी भावनाओं की तरह गुस्सा भी एक ऊर्जा की तरह है. जो लोगों में सहजता से बहता है. और, जब इसे दबाया जाता है, तो ये अंदर ही बंद हो जाता है. लेकिन, बाहर निकलने के लिए छटपटाता है. इस वजह से एक छोटी सी घटना या ऐसा ही कुछ भी अचानक से इस गुस्से को भड़का सकता है. जो किसी भी समय फट पड़ता है.
हालांकि, यह जानने में समय लगेगा कि क्या इस तरह के पहलू श्रद्धा मर्डर केस में भी पहले से थे या नहीं? वैसे, मनोचिकित्सकों का कहना है कि हिंसा के शिकार रहे पीड़ित भी दबी हुई भावनाओं को दूर करने के लिए हिंसक अपराध कर सकते हैं. पुलिस का कहना है कि शादी की जिद पर आफताब की श्रद्धा से एक और लड़ाई हुई. जिसके बाद उसने हत्या को अंजाम दिया. श्रद्धा को नहीं पता था कि उसकी ये मांग उसकी हत्या और शरीर के टुकड़े करने तक पहुंच जाएगी.
विशेषज्ञों के अनुसार, सबकॉन्शियस क्रूरता का तीसरा प्रकार उन लोगों में देखा जाता है. जो गुस्से से जुड़े तीव्र मानसिक प्रकरणों से पीड़ित होते हैं. हालांकि, ऐसे लोग अंतर्मुखी होते हैं और साधारण परिस्थितियों में कमोबेश सामान्य दिखाई दे सकते हैं. जो श्रद्धा मर्डर केस में भी प्रासंगिक हो सकता है. वहीं, दूसरी ओर आक्रामक विकृति उसी आक्रामक भावनात्मक उत्तेजना से जुड़ी होती है, जो मारने की ओर मोड़ देती है. कभी-कभी शरीर के टुकड़े करना यातना के तरीके के तौर पर भी देखा जाता है. आईएसआईएस जैसे आतंकी समूह द्वारा सिर धड़ से अलग करने के मामलों में ये देखा गया है.
शरीर को टुकड़ों में करने का एक और तरीका है, जिसे आपत्तिजनक विकृति कहा जाता है. यह अक्सर वासना और नैक्रो-सैडिस्टिक (परपीड़ा से आनंद लेने वाले) लक्षणों से प्रेरित होता है. इसमें अपराधी अक्सर पीड़ितों के जननांगों या स्तनों को काट देता है. जैसे केरल के नरबलि कांड के आरोपी मोहम्मद शफी या रशीद पर आरोप हैं. कुछ अपराधी वास्तविकता को भुलाकर जननांगों के जरिये पेट के अंगों को बाहर निकालते हैं. जैसा कि दिल्ली के निर्भया गैंगरेप और हत्याकांड में मीडिया ने बताया था. विशेषज्ञों का कहना है कि कुछ सीरियल किलर अपराध करने से बहुत पहले यौन फंतासी यानी सेक्सुअल फैंटेसी बना लेते हैं. जो अपेक्षित भावनात्मक पुरस्कारों से प्रेरित होते हैं.
वे पिछले दर्दनाक अनुभवों से पैदा होने वाले भावनात्मक दर्द से अस्थायी रूप से बचने के लिए एक झेलने वाला मैकेनिज्म के रूप में इन फंतासियों को चीजों और जानवरों पर इस्तेमाल करते हैं. धीरे-धीरे नैतिकता, मानवता और परिणाम की चिंता के सवाल गायब हो जाते हैं. वैज्ञानिकों का कहना है कि एक बार फंतासी बन जाने के बाद यह एक ऑटोबायोग्राफिकल याद बन जाती है. इसे सक्रिय करने की जरूरत होती है, जो आमतौर पर जोखिम के जरिये उत्तेजना और उच्च स्तर की आक्रामकता का कारण बनता है. 2005-06 में नोएडा के निठारी में जब बिजनेसमैन मोनिंदर सिंह पंढेर के घर का नौकर सुरेंद्र कोली ने यही किया. उसने युवा लड़के और लड़कियों का बलात्कार करने और मारने में जबरदस्त दबाव दिखाया. उसने उनके शरीर के टुकड़े कर दिए और उन्हें नाले में फेंक दिया.
सुरेंद्र कोली पर नरभक्षण और नेक्रोफीलिया यानी मरे हुए लोगों के साथ सेक्स का आनंद हासिल करने के आरोप लगे थे.
इस मामले में नरभक्षण और नेक्रोफीलिया यानी मरे हुए लोगों के साथ सेक्स का आनंद हासिल करने के पहलुओं को भी शामिल किया गया था. हालांकि, कभी भी इसे पूरी तरह से प्रमाणित नहीं किया जा सका. हालांकि, बाद में एक डॉक्यूमेंट्री में सुरेंद्र कोली का एक मजिस्ट्रेट को दिया कबूलनामा दिखाया गया. जिसमें उसने स्वीकार किया कि उसने एक पीड़ित के मांस के टुकड़े को पकाया और खाया था. इस तरह की विचलित कर देने वाली फंतासियां लंबे समय तक महसूस की गई शक्तिहीनता और यौन सुख में कमी से मुकाबला करने के लिए सशक्तिकरण की प्रेरणा भी होती हैं. लाश के साथ सेक्स कुछ अपराधियों को शक्तिशाली और पौरुषता महसूस कराता है. जो वे जीवित लोगों के साथ महसूस नहीं करते हैं. सुरेंद्र कोली को कुछ मामलों में सजा सुनाई गई है. जबकि, पंढेर जमानत पर रिहा हुआ है.
उत्तर प्रदेश के राजा कोलंदर उर्फ राम निरंजन एक ऐसा ही दरिंदा था. जिसने कथित तौर पर कुछ वर्षों में लगभग 15 लोगों को मार डाला था. यह भी आरोप लगाया गया था कि उसने अपने पीड़ितों के दिमाग को बर्तन में उबाला और उनका सूप पिया. हालांकि, ये आरोप साबित नहीं हुए. 2000 में राजा कोलंदर को गिरफ्तार किया गया था. और, 2022 में नेटफ्लिक्स ने उस पर एक डॉक्यूमेंट्री जारी की है. राजा कोलंदर अपने आसपास के लोगों की बुद्धि और उनके सामाजिक कद से ईर्ष्या करता था. पीड़ितों के उन लक्षणों को प्राप्त करने के लिए उन्हें मारना और उनके शरीर को टुकड़ों में बांटना ही उसका तरीका था. विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसी मानसिक हत्याओं में अपराधी आवाजें सुनते हैं या विचित्र भ्रमों से ग्रस्त होते हैं. राजा कोलंदर ने अपने पीड़ितों के नामों की एक लिस्ट बनाकर एक डायरी में लिख रखी थी. जिसे वह कभी-कभी देखता था.
राजा कोलंदर ने लोगों के गुणों को पाने के लिए उनके दिमाग का सूप बनाकर पिया.
हालांकि, कोलंदर ने इन तमाम आरोपों से इनकार किया. उसने अपने कोल समुदाय के होने की वजह से उत्पीड़न की बात कही. जिन लोगों ने उसके केस के बारे में गहनता से पढ़ा है, वे कहते हैं कि लोगों को मारते समय कोलंदर के दिमाग में अपनी न्याय करने वाले दंडाधिकारी की छवि बनती थी. और, इसी वजह से उसने अपने नाम के साथ राजा शब्द का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था. उसने अपनी पत्नी का नाम भी बदलकर फूलन देवी, बच्चों का नाम आंदोलन, जमानत और अदालत रख दिया था.
और, अब आते हैं आखिरी केस स्टडी पर. बिहार के चंद्रकांत झा को 2003 से 2007 के दौरान दिल्ली में हुई कई हत्याओं के चौंकाने वाले मामले में गिरफ्तार किया गया था. 2013 में उसे तीन मामलों में दोषी ठहराया गया था. नेटफ्लिक्स ने इस साल की शुरुआत में चंद्रकांत झा पर बनी एक डॉक्यूमेंट्री जारी की थी. चंद्रकांत झा ने अपने पीड़ितों की लाश के टुकड़ों को पैकेट में भर कर तिहाड़ जेल के पास फेंका था. इतना ही नहीं, दिल्ली पुलिस को पत्र और फोन कॉल्स के जरिये खुद को गिरफ्तार करने की चुनौती देता था.
चंद्रकांत झा ने जेल में मिली यातनाओं और यौन हमलों की वजह से हत्याएं कीं.
चंद्रकांत झा एक प्रवासी मजदूर था. उसने कहा कि यह चार साल की कैद के दौरान जेल प्रहरियों द्वारा मिली यातना और यौन हमलों का बदला था. और, ये उसके बदला लेने का तरीका था. वह इस समय तिहाड़ में है, जहां उसकी मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया है. यहां उल्लेख करना जरूरी है कि ये कोई इक्का-दुक्का मामले नहीं हैं. उदाहरण के तौर पर तंदूर कांड भी है. 1995 में दिल्ली में जमकर सुर्खियां बटोरने वाला ये मामला ऐसा पहला उदाहरण कहा जा सकता है. जब कांग्रेस नेता सुशील शर्मा ने कथित अवैध संबंधों को लेकर अपनी पत्नी नैना साहनी की हत्या कर दी थी. और, उसकी लाश के कटे हुए हिस्सों को अपने दोस्त के रेस्तरां में तंदूर में झोंक दिया था.
जैसा कि हम निष्कर्ष निकालते हैं, यह नहीं भूलना चाहिए कि सीरियल किलर के निर्माण में आसपास का पर्यावरण एक अहम भूमिका निभाता है. और, अक्सर हिंसक अनुभवों से ही लोग हिंसक बनते हैं. लेकिन, क्रूरता और बर्बरता के लिए एक अनुवांशिक प्रवृत्ति को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए. क्योंकि, वास्तविकता कभी-कभी ओटीटी लेखकों की सपनों की ऊंचाई और मनोचिकित्सकों की कल्पना की तुलना में कहीं ज्यादा भयावह और क्रूर होती है.
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