2020 में जान'लेवा' जमात के इशारे पर चलती दिखी जान'देवा' जमात
2020 बेसिर-पैर वाले आंदोलनों का साल भी रहा. तब्लीगी जमात के मुखिया मौलाना साद की सरपरस्ती में कोरोना को चुनौती देने वाली ऐसी हवा चली, जिसने सरकार और प्रशासन के सामने अजीबोगरीब स्थिति पेश की. और जमात की करतूत को छुपाने के लिए कुछ बुद्धिजीवियों ने सरकारों पर मुस्लिम समुदाय को बदनाम करने की साजिश का आरोप लगा डाला.
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2020 ने हमें कई मासूम गुनाहगारों से मिलवाया है. वो इतने मासूम थे कि उनके गुनाहों को मासूमियत बताने की दुनिया में होड़ लगी रही. 2020 को आंदोलनों का साल कहना गलत नहीं होगा. नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ आंदोलन के साथ कील पर टांगा गया कैलेंडर, किसान आंदोलन के साथ नए जिंदाबाद-मुर्दाबाद करते हुए उतारा गया. कहने को बीच में लॉकडाउन का ब्रेक था, लेकिन उस दौरान एक अनूठा आंदोलन अमल में लाया गया. जो निजामुद्दीन मरकज से निकलकर तब्लीगी जमात से होता हुआ मुसलमानों के दिमाग में घर कर गया. नतीजा ये हुआ कि कोरोनो संक्रमण के फैलाव को चेक करने के लिए पहुंचे डॉक्टरों-नर्सों पर हमले हुए. हमला करने वाले अपना काम करके अलग हट लिए, बाकी कौम को शर्मिंदा होने देने के लिए.
निजामुद्दीन मरकज में जमा हुए लोगों को इल्म भी नहीं था कि वे किस खतरे में पड़ने जा रहे हैं.
सवाल उठ सकता है कि हम आंदोलनों के नाम पर गड़े मुर्दे क्यों उखाड़ रहे हैं? क्योंकि, ऐसे आंदोलनों पर फलने-फूलने वाले परजीवी न सिर्फ अब भी संगठित है, बल्कि वो अगले वार के मौके की तलाश में हैं. विजय मनोहर तिवारी की किताब 'उफ् ये मौलाना', उन परजीवियों की एनॉटॉमी को समझने का मौका देती है. कि किस तरह समाज के लिए बड़ा रिस्क बन जाने पर उतारू ये धर्म के ठेकेदार एक ही तकरीर से देश में बड़ी उथल-पुथल मचा देने का दम रखते हैं. 420 पन्नों की यह किताब कोरोना काल की एक डायरी है. जिसमें निजामुद्दीन मरकज के घटनाक्रम, और उसके बाद महामारी के फैलाव से उपजी परिस्थितियों को अंकित किया गया है. किताब एक दस्तावेज है उस दौरान बनी सुर्खियों के बारीक विश्लेषण का. कि किस तरह हमारे समाज का एक बड़ा धड़ा, कुछ कट्टरपंथियों के इशारे पर सरकार और प्रशासन के खिलाफ खड़ा हो गया. कैसे कुछ मौलानाओं ने अल्लाह का नाम लेकर कोरोना से न डरने की हिदायत दी, और कैसे उनके इशारे पर चलने वाले कुछ लोग अल्लाह की शहादत देते चले गए. कुल मिलाकर, जानलेवा जमात तकरीर कर रही थी, और जानदेवा जमात अपना जिंदगी का नजराना पेश कर रही थी.
तब्लीगी जमात के मुखिया मौलाना साद का ऑडियो वायरल हुआ, जिसमें वे कहते सुने गए कि 'कोरोना को मुसलमानों को डराने के लिए इजात किया गया है. ताकि वे मस्जिद से दूर हो जाएं. मरने के लिए मस्जिद से बेहतर जगह कौन सी होगी?' इस दौरान हजारों की तादाद में मौजूद सुनने वाले सुभानअल्लाह-सुभानअल्लाह कह रहे थे. हां, उनमें से कुछ खांस भी रहे थे. मार्च में हुए इस मजमे का असर अप्रैल आते आते दिखने लगा. मरकज से लौटे 10 जमातियों की तेलंगाना में मौत हो गई. और देखते ही देखते संक्रमण और मौतों की ऐसी खबरें देश भर से आने लगीं. गरुड़ प्रकाशन की 'उफ् ये मौलाना' में ऐसी कई छोटी बड़ी घटनाओं का जिक्र है, जब जमातियों की सेहत का जायजा लेने पहुंचे लोगों की सेहत बिगाड़ दी गई.
तब्लीगी जमात के मुखिया मौलाना साद के जिम्मे उनके अनुयायियों को कोरोना महामारी के प्रति सचेत करने का जिम्मा था, जो उन्होंने अपराधी होने के बाद निभाया.
अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती जमातियों ने फूहड़ता का नंगा नाच पेश किया. जमातियों के इस रवैये से कई और लोगों ने भी प्रेरणा ली. इंदौर की टाटपट्टी बाखल में दो महिला डॉक्टरों पर हमले वाला शर्मनाक वीडियो स्मृति से जाता नहीं. खैर, इन सभी घटनाओं की मुसलमानों के एक बड़े तबके ने कड़ी निंदा की. लेकिन, इसी के समानांतर जमात को निर्दोष साबित करने का अभियान भी चलता रहा. इतना ही नहीं, मौलाना साद जैसे लोगों के गुनाह छुपाने के लिए पूरी कौम को आगे कर दिया गया, और ये बात गढ़ी गई कि भारत में फैल रहे कोरोना संक्रमण का दोष मुसलमानों के सिर मढ़े जाने की साजिश रची जा रही है.
तमाम संगीन आरोपों के बावजूद मौलाना साद पुलिस गिरफ्त से बाहर ही रहे. इस बीच उनकी अकूत संपत्ति को जब्त किए जाने की खबर भी आई. लकिन ये तमाम बातें सुर्खियां ही रहीं. अलबत्ता, बॉम्बे हाईकोर्ट के जस्टिस टीवी नलावडे ने तो कोरोना फैलाने के इल्जाम से कुछ जमातियों को बरी करते हुए ये तक कह दिया कि तब्लीगी जमात एक सुधारवादी संगठन है. बदलते दौर में हर समाज को ऐसे संगठन की जरूरत होती है. जस्टिस नलावडे को शायद यह ध्यान में नहीं दिलाया गया कि तब्लीगी जमात की पिछड़ेपन वाली सोच और कट्टरपंथी रवैये के कारण कई मुस्लिम देशों ने उस पर पाबंदी लगाई हुई है. जमात को लेकर मुसलमानों के ही कई वैचारिक समूहों में विपरीत ख्याल हैं. और वे इसे बहुत सम्मान से नहीं देखते. बहरहाल, जिसका जो भी ख्याल हो. बॉम्बे हाईकोर्ट के जज ने तो अपने फैसले में यहां तक लिख दिया कि नागरिकता संशोधन कानून का विरोध मुसलमानों ने किया, इसलिए सरकार ने बदले की नीयत से उन पर कोरोना संक्रमण फैलाने का दोष मढ़ दिया.
विजय मनोहर तिवारी की किताब 'उफ् ये मौलाना' कोरोना काल में तब्लीगी जमात के कार्यकलाप और उससे उपजी चुनौतियों का दस्तावेज है.
किसकी नीयत में क्या था, ये तो शायद ही कभी पता चल पाएगा लेकिन जो बातें हकीकत हैं वो ये कि निजामुद्दीन मरकज के कार्यक्रम में हिस्सा लेकर लौटे लोगों में से ज्यादातर को कोरोना संक्रमण था. अप्रैल के पहले पखवाड़े में दिल्ली में जब कोरोना के 800 मरीज थे, तो उनमें से 30 फीसदी से ज्यादा का सिरा मरकज से जुड़ा हुआ था. जब ऐसे मरीजों की मौतों का सिलसिला देश में बढ़ने लगा तो उसका अलग से रिकॉर्ड रखना बंद कर दिया गया. माना गया कि इससे एक धर्म बदनाम हो रहा है. नाम हो या बदनाम, मरकज में जमा हुए लोगों में कोरोनो को लेकर भ्रम फैलाया गया. और भ्रम की वजह से जिन लोगों की जान गई, उनके परिजनों ने इसे अल्लाह की मर्जी मानकर कबूल कर लिया. और वो मासूम गुनाहगार फिर बच निकले.
मरकज से कोरोना संक्रमण लेकर घर पहुंचे कितने लोग मारे गए, उनके नाम नामालूम ही रहेंगे. क्योंकि, इसमें पीड़ित और गुनाहगार दोनों एक ही नाव के सवार हैं. लेकिन, ऐसे गुनाहों की परिपाटी कोरोना काल से पहले से चली आ रही है. 25 फरवरी को दिल्ली दंगे में मारे गए अशफाक हुसैन को 2020 बीतते बीतते श्रद्धांजलि जरूर दीजिए. बल्कि, उसे 2021 में भी याद रखे जाने की जरूरत है. बुलंदशहर के रहने वाले अशफाक का न तो दिल्ली दंगा कराने में हाथ था, और न ही इस दंगे की जड़ में रहे CAA प्रोटेस्ट में उसकी कोई भूमिका थी. लेकिन, जामिया, शाहीन बाग और अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी में बने आंदोलन के अखाड़े से निकले पहलवानों के दांवपेच में उलझकर अशफाक की जान चली गई. अशफाक ही क्यों, उसके जैसे ही अंकित शर्मा और 50 के करीब बेगुनाहों की मौत हुई. कोरोना की तरह CAA प्रोटेस्ट का संक्रमण चारों ओर फैलाया गया था. नागरिकता संशोधन कानून के बारे में भी यह प्रचारित किया गया था, कि इसे मुसलमानों को देश से बेदखल करने के लिए बनाया गया है. वैसे ही जैसे मौलाना साद ने कोरोना को मुसलमानों के खिलाफ गढ़ा गया बताया था. इस एक साल में एक भी मुसलमान को देश-निकाला नहीं दिया गया है. हां, अशफाक और अंकित जैसे लोग दुनिया से जरूर चले गए. अपनी पहचान के तमाम कागज होते हुए भी. शाहीन बाग में तो आंदोलन कर रही महिलाओं में से एक का दुधमुंहा बच्चा ठंड की वजह से मारा गया.
झूठ और भ्रम पर गढ़े गए आंदोलन को न रोक पाने के लिए भारत सरकार भी कम दोषी नहीं है. ऐसा लगता है, मानो साजिश रचने वालों से कोई खेल दिखाने का आग्रह कर रही हो. लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर आंदोलन खड़ा करने वाले भी तब तक आग में घी डालते हैं, जब तक वह बेकाबू न हो जाए. कुछ बातें इतनी संवेदनशील होती हैं, कि जब तक वो बेनकाब होती हैं तब तक बहुत नुकसान हो चुका होता है. नकाब ओढ़े मासूम गुनाहगारों की मंसूबे किसी से छुपे नहीं हैं. सरकारें यदि यह तय करें बैठीं हैं कि विरोधियों के गुनाह से ही उनकी ईमानदारी साबित होगी, तो ये सरकार का गुनाह होगा. सरकार भी जानलेवा जमात ही साबित होगी. तो ख्याल, जानदेवा जमातों को ही रखना है. 2020 जैसा भी था, बीत गया. 2021 में अपना ख्याल रखें. आपकी भावनाएं भड़काने के लिए फिर कुछ जमातें आएंगी. ख्याल रखिएगा, आपकी जान बहुत कीमती है.
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