इस गौरक्षक के समर्थन में क्यों न अब सारे लिबरल एक हो जाएं
यदि हम गौ रक्षकों द्वारा मचाए गए उत्पात पर चर्चा कर सकते हैं तो फिर हमारी जुबान बैंगलोर की इस भीड़ द्वारा की गयी हिंसा के लिए क्यों खामोश है. आखिर ऐसी क्या वजहें हैं कि हम चीजों के प्रति मौके बेमौके सिलेक्टिव हो जाते हैं.
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बीते कई दिनों से हम गौ रक्षकों द्वारा मचाए जा रहे उत्पात के विषय में देख-सुन रहे हैं. हमने उन घटनाओं के विषय में भी सुना, जब इन्हीं गौ रक्षकों द्वारा पहलू खान और दादरी के अखलाक को मारा गया. मीडिया ने हमें उन खबरों से भी रू-ब-रू कराया, जब समाज का बुद्धिजीवी वर्ग लिंचिंग के खिलाफ सड़क पर आया. ये विरोध और गुस्सा जायज भी था. प्रधानमंत्री मोदी ने भी ऐसे तत्वों को असामाजिक बताया. लेकिन, क्या इन घटनाओं से गौ रक्षा का उद्देश्य छोटा हो जाता है ? तो जवाब है- नहीं. यह उद्देश्य बदनाम तो होता है, लेकिन छोटा नहीं होता.
जो लिंचिंग के विषय पर बड़ी बड़ी बातें करते हैं उन्हें सॉफ्टवेयर इंजीनियर नंदनी की ये तस्वीर ज़रूर देखनी चाहिए.
जब एक तरफ गौ रक्षकों की भीड़ के आतंक का विरोध हो रहा है तो उस भीड़ का भी विरोध होना चाहिए जो सिर्फ इसलिए किसी को बेरहमी से मार देती है क्योंकि वो उनके काम में बाधा डाल रहा है. शायद आप ऊपर लिखी बातों को पढ़कर विचलित हों और आपको ये महसूस हो कि हम गौ रक्षकों द्वारा मचाए जा रहे उत्पात पर पर्दा डालने का प्रयत्न कर रहे हैं तो ऐसा नहीं है. हमारी बात के तार कर्नाटक की राजधानी बैंगलोर से जुड़ी है.
बैंगलोर में एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर को भीड़ द्वारा बस इसलिए मारा गया क्योंकि उसने गैर कानूनी ढंग से चल रहे एक स्लॉटरहाउस की शिकायत न सिर्फ पुलिस से की बल्कि वो खुद दो कांस्टेबलों को लेकर वहां गयी और जानवरों के काटने का विरोध किया.
बैंगलोर में रहने वाली और एक एमएनसी में बतौर सॉफ्टवेयर इंजीनियर नंदनी और उनकी दोस्त रिजिल पर भीड़ ने हमला किया है जिससे वो घायल हो गयी हैं. इस हमले के पीछे की वजह बस इतनी थी कि वो और उनकी दोस्त पुलिस को लेकर एक अवैध स्लॉटरहाउस पर जा रही थीं, जहां मवेशियों के अलग-अलग 14 झुंडों को काटने के लिए बांधा गया था.
जब कानून सबसे लिए बराबर है तो फिर सबको बराबर की सजा मिलनी चाहिएजो होना था हो चुका है. पुलिस ने भी कार्यवाही करते हुए मामला दर्ज कर लिया है. मगर इस घटना से कई प्रश्न उठते हैं, जैसे कि यदि हम गौ रक्षकों द्वारा मचाए गए उत्पात पर चर्चा कर सकते हैं तो फिर हमारी जुबान इस भीड़ द्वारा की गयी हिंसा के लिए क्यों खामोश है. आखिर ऐसी क्या वजहें हैं कि हम चीजों के प्रति मौके बेमौके सिलेक्टिव हो जाते हैं.
अंत में इतना ही कि यदि हम गौ रक्षकों द्वारा की गयी हिंसा से नफरत करते हैं तो हमें इन गाय काटने वाले लोगों की भीड़ से भी नफरत करनी चाहिए और यदि हम उन्हें सजा दिलाने की मांग करते हैं तो हमें बेख़ौफ़ होकर इनकी भी सजा का मुद्दा उठाना चाहिए.
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मां, तुम तो पॉलीथीन खाकर भी रह लोगी !
ये कैसी गौ रक्षा, जब बात कुछ "ले देकर" मामला दबाने तक आ गयी
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