रोज-रोज दफ्तर! प्राइवेट नौकरी में यही चक्कर है
सरकारी नौकरी. प्राइवेट जॉब. दोनों के अपने तसव्वुर हैं - और अपनी अपनी फितरत भी. दोनों एक दूसरे को स्वर्ग जैसे पवित्र और नर्क जैसे हसीन सपने दिखाते हैं.
-
Total Shares
सरकारी नौकरी. गूगल में ये दो शब्द टाइप करते ही पूरे पेज पर एक जैसी साइटों के लिंक हैं. अगले और उसके अगले पेज पर भी तकरीबन वही हाल है. कुछ साल पहले तक सरकारी नौकरी की जानकारी देने वाले दो तीन ब्लॉग दिखते थे. हाल के दिनों में इनकी भरमार है. सभी पर एक जैसी ही सूचनाएं हैं - पर सबके अपने अपने सब्स्क्राइबर हैं - साढ़े पांच लाख तक. ये सरकारी नौकरी का ही क्रेज है.
सरकारी मुलाजिम
सरकारी नौकरी. प्राइवेट जॉब. दोनों के अपने तसव्वुर हैं - और अपनी अपनी फितरत भी. दोनों एक दूसरे को स्वर्ग जैसे पवित्र और नर्क जैसे हसीन सपने दिखाते हैं. बाद में भले शादी के लड्डू खाने जैसा अनुभव होता हो.
सरकारी मुलाजिमों को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक भाषण भी गौर फरमाने लायक है -
"मैं हैरान था, जब मैं प्रधानमंत्री बना तो खबरें ये नहीं आती थीं कि मोदी क्या कर रहा है, खबरें ये आ रहीं थीं कि सब लोग दफ्तर में समय पर जाने लगें हैं. दफ्तर समय से खुल रहे हैं. अफसर समय से दफ्तर जा रहे हैं. ये खबरें पढ़ करके पल भर के लिए लगता है कि चलो, सरकार बदली तो नजरिया भी बदला, माहौल भी बदला, लेकिन मुझे ये खबर पढ़ करके पीड़ा होती थी. क्या, सरकारी मुलाजिम को समय पर दफ्तर जाना चाहिए कि नहीं जाना चाहिए? अब ये कोई खबर की बात है?"
रोज दफ्तर जाना पड़ता है...
बड़े कमाल की शख्सियत थी वो भी. ताश के पत्तों की तरह उसने जिंदगी को भी फेंट कर रख दिया था. मल्टीटैलेंटेड. फोर फर्स्ट क्लास - यानी हाईस्कूल से लेकर एमए तक - प्रथम श्रेणी में पास. पहले अटेंप्ट में सरकारी नौकरी मिल गई. बस.
"पढ़ने में बहुत तेज थे, ऊ तो सरकारी नौकरी मिल गई नहीं तो बहुत आगे जाते." उसकी तारीफ में उसके दोस्त ने कहा.
वो और मेरा एक कजिन आपस में बात कर रहे थे. ट्रेन चली जा रही थी. खिड़की के पास बैठा मैं भी उनकी बातें सुन रहा था.
पहले उसने मेरे कजिन से उसके बारे में बात की. उसकी पढ़ाई लिखाई के बारे में भी पूछा. कुछ ज्ञान भी दिए.
फिर उसने कजिन से पूछा, "पापा आपके सर्विस में हैं?"
कजिन ने हां में सिर हिलाया तो उसने पूछा, "कहां?"
"नोएडा."
"नौएडा में नौकरी करते हैं?" आदतन उसने कंफर्म भी किया.
उसका अगला सवाल था, "सरकारी, कि प्राइवेट?"
"प्राइवेट."
"फिर तो रोज दफ्तर जाना पड़ता होगा?"
कजिन बोला, "जाना तो पड़ेगा ही."
"प्राइवेट नौकरी की यही दिक्कत है..."
मेरे कजिन के पास शायद कुछ कहने को नहीं बचा था.
फलाने बाबू का चश्मा...
ऐसे बहुत सरकारी दफ्तर मिल जाएंगे जहां नजारा एक जैसा नजर आता है. फर्ज कीजिए आप किसी दफ्तर में पहुंचते हैं. किसी बाबू के बारे में पूछते हैं. जवाब सुनिए -
"यहीं कहीं होंगे... चश्मा तो है ना..."
फलाने बाबू का चश्मा वहीं मिलेगा. वो दफ्तर आए हों या नहीं, इससे फर्क नहीं पड़ता.
एक चश्मा उनके दराज में पड़ा मिलेगा. इसके साथ ही छुट्टी का एक एप्लीकेशन भी रखा रहता है. अधिकारियों के औचक निरीक्षण में वही ब्रह्मास्त्र होता है. गैरहाजिर वही होता है जो सबसे मिलजुल कर नहीं रहता. या फिर, टाइम से दफ्तर आता जाता है. वो कहीं से भी 'नसीबवाला' नहीं होता. जिस दिन उसकी किस्मत खराब होती है, पेट उसी दिन गड़बड़ होता है. बस छूट जाती है. या बीच रास्ते में खराब हो जाती है. दफ्तर पहुंचते पहुंचते वो साजिश का शिकार हो चुका होता है.
लेकिन रोज की तरह वो घर लौट कर सोता सुकून से है - बाकियों की तरह उसे रात भर बेचैन रहने की जरूरत नहीं होती.
दफ्तरों का कामकाज...
बीएचयू कैंपस का वाकया है. एक सेमिनार में जाना हुआ था. जाते वक्त तो सीधे अंदर चले गए. पहली पारी खत्म हुई तो बाहर निकले. किताबों के दो स्टॉल लगे थे. उनमें से एक मेरे एक परिचित के छोटे भाई ने लगाया था.
बताने लगा व्यस्तता बढ़ गई है. किताबों के काम में तो कई साल से लगा था, उसने बताया कि अब व्यस्तता कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है. "क्या बताएं भइया, अब मौका ही नहीं मिलता? आपको तो पता ही होगा नौकरी भी लग गई है."
नौकरी की बात बताते ही वो कुछ परेशान सा हो गया. लगा जैसे कुछ जरूरी काम याद आ गया हो. मुझे भी लगा और कामों के लिए छुट्टी लिया होगा - और भूल गया होगा.
शाम के साढ़े चार बजे होंगे. उसने किसी को फोन मिलाया. दो-तीन बार की कोशिश के बाद भी नहीं लगा. फिर बीएसएनएल पर ही खीझ निकाली, "ई भाई साहब लगते ही नहीं, सही फुल फॉर्म बनाया गया है."
तब तक 4.45 बज गए थे. फोन लग गया.
"अरे रामश्री बाबू, आज आ नहीं पाएंगे. थोड़ा समाजसेवा में फंस गए हैं. आप हमारा साइन मार दीजिएगा. ठीक है ना?"
दूसरी तरफ से आश्वस्त होने के बाद उसने राहत की सांस ली.
"अच्छा हुआ भइया, आप से बात करने लगे, नहीं तो अबसेंट हो जाते."
मैं बस उसे देखता रहा.
"और बताइए..."
मुझे और नहीं बताना पड़ा. वैसे बताने को कुछ था भी नहीं मेरे पास.
टी-ब्रेक खत्म हो चुका था. सभी लोग ऑडिटोरियम का रुख कर चुके थे. मैं भी उनके साथ हो लिया.
आपकी राय