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Updated: 14 अप्रिल, 2016 07:12 PM
शिवानन्द द्विवेदी
शिवानन्द द्विवेदी
  @shiva.sahar
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आज पूरा देश डॉ भीम राव अम्बेडकर की 125 वीं जयंती मना रहा है. बाबा साहब के विचारों पर चर्चा हो रही है. इस चर्चा के बीच उन तमाम वैचारिक पहलुओं पर गौर करना जरुरी है जो बाबा साहब अम्बेडकर की विचारधारा के मूल धरोहर हैं. वर्तमान भारत में राजनीतिक अथवा कतिपय कारणों से जिन विचारधाराओं के बीच परस्पर टकराव दिख रहा है, उन विचारधाराओं का तुलनात्मक विश्लेषण बाबा साहब के वैचारिक मूल्यों के आधार पर किया जाना बेहद रोचक होगा. आज मूल रूप से संघ के राष्ट्रवाद एवं वामपंथ सहित कांग्रेस के सेक्युलरिज्म के बीच एक वैचारिक बहस चल रही है. लिहाजा इसबात पर विचार जरुरी है कि इन विचारधाराओं पर बाबा साहब किसके सर्वाधिक करीब नजर आते हैं और किसको सिरे से खारिज कर देते हैं. तमाम तथ्य एवं बाबा साहब के भाषणों के आधार पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि बाबा साहब वामपंथ को संसदीय लोकतंत्र के विरुद्ध मानते थे.

25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में बोलते हुआ बाबा साहब ने कहा था कि 'वामपंथी इसलिए इस संविधान को नही मानेंगे क्योंकि यह संसदीय लोकतंत्र के अनुरूप है और वामपंथी संसदीय लोकतंत्र को मानते नही हैं. बाबा साहब के इस एक वक्तव्य से यह जाहिर होता है कि बाबा साहब जैसा लोकतांत्रिक समझ का व्यक्तित्व वामपंथियों के प्रति कितना विरोध रखता होगा! यह बात अलग है कि बाबा साहब के सपनों को सच करने का ढोंग आजकल वामपंथी भी रचने लगे हैं. खैर, बाबा साहब और कांग्रेस के बीच का वैचारिक साम्य कैसा था इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बाबा साहब जिन मुद्दों पर बाबा साहब अडिग थे कांग्रेस उन मुद्दों पर आज भी सहमत नहीं है. मसलन, समान नागरिक संहिता एवं अनुच्छेद 370 की समाप्ति, संस्कृत को राजभाषा बनाने की मांग एवं आर्यों के भारतीय मूल का होने का समर्थन. बाबा साहब देश में समान नागरिक संहिता चाहते थे और उनका दृढ मत था कि अनुच्छेद 370 देश की अखंडता के साथ समझौता है.

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भाजपा-संघ सहित एकाध दलों को छोड़कर कांग्रेस सहित कोई भी राष्ट्रीय दल अथवा छोटे दल इन मुद्दों पर बाबा साहब के विचारों का समर्थन करते हैं या नहीं, इसपर ध्यान दिया जाना चाहिए. सेक्युलरिज्म शब्द की जरुरत संविधान में बाबा साहब को भी नहीं महसूस हुई थी जबकि उस दौरान देश एक मजहबी बंटवारे से गुजर रहा था, लेकिन कांग्रेस ने इंदिरा काल में यह शब्द संविधान में जोड़ दिया. वैसे तो बाबा साहब सबके हैं लेकिन जो लोग बाबा साहब को अपना मानते हैं उन्हें यह स्पष्ट तो करना ही होगा कि बाबा साहब के इन विचारों को लेकर उनका उल्टा रुख क्यों है और बाबा साहब के इन सपनों को पूरा करने के समय वो विरोध क्यों करते हैं?

खैर, आज जब केंद्र में भाजपा-नीत मोदी सरकार पूर्ण बहुमत के साथ आई और बाबा साहब को लेकर कुछ कार्य शुरू हुए तो विपक्षी खेमा यह कहने लगा कि भाजपा और संघ को अचानक बाबा साहब क्यों याद आये! हालांकि यह किस्म का दुष्प्रचार है. चूंकि भाजपा जब भी सत्ता में रही अथवा न रही उसने बाबा साहब को याद किया. जवाब तो उन्हें देना चाहिए था जो साठ साल सत्ता में रहकर भी बाबा साहब को याद न किए, वरना बाबा साहब को भारत रत्न देने से पहले इंदिरा गांधी खुद को भारत रत्न क्यों दे लेतीं और जवाहर लाल नेहरु खुद को खुद से भारत रत्न क्यों बना लेते! खैर, विचारधारा के धरातल पर अगर बात करें तो बाबा साहब और संघ के बीच सिवाय एक मामूली मतभेद के और कोई मतभेद नही है. बल्कि हर बिंदु पर बाबा साहब और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचार समान हैं.

जिनको यह लगता है कि बाबा साहब को संघ आज याद कर रहा है उन्हें नब्बे के शुरुआती दौर का पाञ्चजन्य पढना चाहिए जिसमे बाबा साहब को आवरण पृष्ठ पर प्रकाशित किया गया था. संघ और बाबा साहब के बीच पहला वैचारिक साम्य ये है कि संघ भी अखंड राष्ट्रवाद की बात करता है और बाबा साहब भी अखंड राष्ट्रवाद की बात करते थे. संघ भी अनुच्छेद 370 को समाप्त करने की बात करता है और बाबा साहब भी इस अनुच्छेद के खिलाफ थे. समान नागरिक संहिता लागू करने पर संघ भी सहमत है और बाबा साहब भी सहमत थे. हिन्दू समाज में जाति-गत भेदभाव हुआ है और इसका उन्मूलन होना चाहिए इसको लेकर संघ भी सहमत है और बाबा साहब भी जाति से मुक्त अविभाजित हिन्दू समाज की बात करते थे.

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बाबा साहब के भाषणों के आधार पर कहा जा सकता है कि बाबा साहब वामपंथ को संसदीय लोकतंत्र के विरुद्ध मानते थे

वर्तमान सर संघचालक मोहन भागवत ने 16 दिसम्बर 2015 को समाजिक समरसता पर दिए अपने भाषण में द्वितीय सर संघ चालाक गुरु गोलवलकर का जिक्र किया जिसमे उन्होंने बताया कि 1942 में महाराष्ट्र के एक स्वयंसेवक के परिवार में अंतरजातीय विवाह सम्पन्न हुआ था. इस विवाह की सूचना जब तत्कालीन सरसंघचालक गुरूजी को मिली तो वे पत्र लिखकर इसकी सराहना किये और ऐसे उदाहरण लगातार प्रस्तुत करने की बात कही. इससे साफ़ जाहिर होता है कि 1942 में भी संघ का दृष्टिकोण सामाजिक एकता को लेकर दृढ था. हालांकि समाजिक भेद और इसको समाप्त करने की अनिवार्यता पर 16 दिसम्बर 2015 का मोहन भगवत का दिया भाषण अवश्य सुना जाना चाहिए, यह यूट्यूब पर उपलब्ध भी है अथवा संघ की वेबसाईट पर भी है. खैर, संघ और बाबा साहब के बीच वैचारिक साम्य को अगर बाबा साहब के नजरिये से देखने की कोशिश करें तो भी स्थिति वैसी ही नजर आती है. डॉ अम्बेडकर सम्पूर्ण वांग्मय के खंड 5 में लिखा है, 'डॉ अंबेडकर का दृढ़ मत था कि मैं हिंदुस्तान से प्रेम करता हूं. मैं जीऊंगा तो हिंदुस्तान के लिए और मरूंगा तो हिंदुस्तान के लिए. मेरे शरीर का प्रत्येक कण और मेरे जीवन का प्रत्येक क्षण हिंदुस्तान के काम आए, इसलिए मेरा जन्म हुआ है.’

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बाबा साहब की जीवनी लिखने वाले सी.बी खैरमोड़े ने बाबा साहब के शब्दों को उदृत करते हुए लिखा है कि ‘मुझमें और सावरकर में इस प्रश्न पर न केवल सहमति है बल्कि सहयोग भी है कि हिंदू समाज को एकजुट और संगठित किया जाये, और हिंदुओं को अन्य मजहबों के आक्रमणों से आत्मरक्षा के लिए तैयार किया जाए.’ राजभाषा संस्कृत को बनाने को लेकर भी उनका मत स्पष्ट था. 10 सितंबर 1949 को डॉ बी.वी.केस्कर और नजीरूद्दीन अहमद के साथ मिलकर बाबा साहब ने संस्कृत को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन वह पारित न हो सका. संस्कृत को लेकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का विचार भी कुछ ऐसा ही है जैसा बाबा साहब का था. धर्म के मामले में भी संघ और बाबा साहब के बीच वैचारिक साम्य दीखता है. संघ भी धर्म को मानता है और बाबा साहब भी धर्म को मानते हैं. संघ भी भारतीय एवं आयातित मजहबों का वर्गीकरण करता है और बाबा साहब भी इस्लाम और इसाईयत को विदेशी मजहब मानते हैं. वे धर्म के बिना जीवन का अस्तित्व नहीं मानते थे लेकिन धर्म भी उनको भारतीय संस्कृति के अनुकूल स्वीकार्य था. इसी वजह से उन्होंने ईसाईयों और इस्लाम के मौलबियों का आग्रह ठुकरा कर बौद्ध धर्म अपनाया क्योंकि बौद्ध भारत की संस्कृति से निकला एक धर्म है. मुस्लिम लीग पर संविधान सभा के प्रथम अधिवेशन में 17 दिसंबर 1946 का वक्तव्य उनके प्रखर राष्ट्रवादी व्यक्तित्व का दर्शन कराता है। उन्होंने कहा था, ‘आज मुस्लिम लीग ने भारत का विभाजन करने के लिए आंदोलन छेड़ा है, दंगे फसाद शुरू किए हैं, लेकिन भविष्य में एक दिन इसी लीग के कार्यकर्ता और नेता अखंड भारत के हिमायती बनेंगे, यह मेरी श्रद्धा है.’ हिन्दु समाज की बुराइयों पर चोट करते हुए भी बाबा साहब भारतीयता की मूल अवधारणा और अपने हिन्दू हितों को नहीं भूलते हैं. महार मांग वतनदार सम्मेलन, सिन्नर(नासिक) में 16 अगस्त, 1941 को बोलते हुए बाबा साहब कहते हैं, 'मैं इन तमाम वर्षों में हिंदू समाज और इसकी अनेक बुराइयों पर तीखे एवं कटु हमले करता रहा हूं, लेकिन मैं आपको आश्वस्त कर सकता हूं कि अगर मेरी निष्ठा का उपयोग बहिष्कृत वर्गों को कुचलते के लिए किया जाता है तो मैं अंग्रेजों के खिलाफ हिंदुओं पर किए हमले की तुलना में सौ गुना तीखा, तीव्र एवं प्राणांतिक हमला करूंगा.’

संघ और बाबा साहब के बीच अनगिनत साम्य होने के प्रमाण मौजूद हैं. अगर दोनों के बीच विरोध की बात करें तो संघ और बाबा साहब के बीच सिर्फ एक जगह मतभेद दिखता है. संघ का मानना है कि हिन्दू एकता को बढ़ावा देकर ही जाति-व्यवस्था से मुक्ति पाई जा सकती है जबकि बाबा साहब ने इस कार्य के लिए धर्म-परिवर्तन का रास्ता अख्तियार किया. यही वो एकमात्र बिंदु है जहां संघ और बाबा साहब के रास्ते अलग हैं, वरना हर बिंदु पर संघ और बाबा साहब के विचार एक जैसे हैं और एक लक्ष्य को लिए हुए हैं.

लेखक

शिवानन्द द्विवेदी शिवानन्द द्विवेदी @shiva.sahar

लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउन्डेशन में रिसर्च फेलो हैं एवं नेशनलिस्ट ऑनलाइन डॉट कॉम के संपादक हैं.

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